Tuesday, June 22, 2010

झुकने को तैयार नहीं ईरान

भले ही अमेरिका के दबाव में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिया हो लेकिन ईरान अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं। ईरान पर बीते नौ जून को चौथे दौर का प्रतिबंध लगाया गया। राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाये गए नए प्रतिबंधों को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा ये इस्तेमाल किया हुआ रूमाल है जो कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए। वहीं अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने परमाणु मुद्दे पर ईरान के साथ बातचीत के दरवाजे खुले होने की बात कहकर अपनी कमजोरी को उजागर कर दिया। गौरतलब है कि यह वर्ष २००६ के बाद से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करने के लिए लगाए गए प्रतिबंधों की चौथी और आखिरी किस्त है। सवाल उठता है कि इसके बाद अमेरिका क्या करेगा?
पांच महीनों की माथापच्ची के बाद आखिरकार ईरान पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने विगत नौ जून को बहुप्रतीक्षित चौथे दौर का प्रतिबंध लगाया। संबंधित प्रस्ताव को १२-२ से पारित कर दिया गया। १५ सदस्यों की सुरक्षा परिषद में अमेरिका और बिट्रेन सहित १२ देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किये जबकि ब्राजील और तुर्की ने इसका विरोध किया। वहीं लेबनान गैर हाजिर रहा। अमेरिका को इस प्रस्ताव को तैयार करने में बिट्रेन और फ्रांस ने भी मदद की। जबकि चीन और रूस पहले प्रतिबंधों का विरोध कर रहे थे लेकिन उन्होंने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आरोप है कि ईरान परमाणु हथियार बना रहा है। लेकिन ईरान का दावा है कि उसका यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है।
ताजा प्रतिबंधों में ईरान की परमाणु गतिविधियों को अवरुद्ध करने, मालवाहक जहाजों को जब्त करने और तेहरान को युद्ध टैंक और हेलिकॉप्टर के निर्यात पर रोक लगाई गई हैं। प्रस्ताव के मसौदे के मुताबिक ईरान के परमाणु या मिसाइल कार्यक्रम के साथ संबंध होने की स्थिति में विदेशों में कारोबार कर रहे ईरानी बैंकों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जा सकते हैं। सेंट्रल बैंक सहित ईरान के सभी बैंकों के साथ लेनदेन पर भी कड़ी नजर रखी जाएगी। ईरान के हथियार खरीदने पर लगाए गए प्रतिबंधों को भी विस्तार दिया गया है।सैन्य, व्यापारिक और वित्तीय संबंधों को प्रतिबंधित करने से ईरान की सरकार से ज्यादा वहां की जनता को परेशानी होगी, जिसका असर दीर्द्घकालिक रूप से पड़ेगा। भारत ने इन प्रतिबंधों को यह कहते हुए बेमानी बताया कि इससे शासन की बजाय आम आदमी पर बुरा असर पडे़ेगा। प्रतिबंध लगने के बाद ईरानी बैंकों, नागरिकों और संदिग्ध कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। प्रस्ताव पारित होने के बाद यूएन में अमेरिकी प्रतिनिधि सुसन राइस भले ही यह कह रहे हों कि प्रतिबंध ईरानी नागरिकों के खिलाफ नहीं है बल्कि वहां के शासन की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लक्ष्य करके लगाए गए हैं। लेकिन इसका सबसे बुरा प्रभाव तो वहां की आम जनता को ही होगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान के खिलाफ लगाए गए अब तक के सबसे कड़े प्रतिबंध को अंतराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिबद्धता बताया। लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि तेहरान के लिए राजनयिक विकल्प अब भी खुले हुए हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री ने भी र्ईरान के साथ बातचीत की बात कही। जबकि चीन ने इस प्रतिबंध को ईरान के सामने बातचीत के रास्ते पर वापस लाने के लिए बताया। जबकि संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी संस्था अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में तैनात ईरान के राजदूत अली असगर सुल्तानेह ने स्पष्ट कहा है कि ईरान अपना यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम बंद नहीं करेगा।
सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान के खिलाफ विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम के कारण प्रतिंबध लगाए जाने के बाद उसने विरोधी कदम उठाने की धमकी दी है। अमेरिका, इजराइल, पाकिस्तान जैसे गैरजिम्मेदार देशों के परमाणु हथियारों को स्वीकार कर सकता है, उन्हें संरक्षण दे सकता है। वह ईरान के पीछे पड़कर दुनिया में शांति की संभावनाओं को धूमिल करने में लगा है। इराक के बाद अब अमेरिका ईरान को निशाना बनाकर पश्चिम एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहता है। लेकिन जानकारों के मुताबिक ईरान कई मायनों में इराक से बेहतर स्थिति में है। वह अमेरिका की सारी चालों का समझता है। यही वजह है कि ईरान की क्रांति के बाद से अमेरिका और ईरान के बीच कटूता बढ़ती रही है। अमेरिका सहित पश्चिमी देश लगातार ईरान पर दबाव बना रहे हैं। लेकिन ईरान अपने भौगोलिक स्थिति के कारण किसी हाल में झुकने को तैयार नहीं।

निशाने पर नीतीश

बिहार में विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। राजनीतिक गतिविधियों का बढ़ना लाजमी है। लेकिन सभी पार्टियों के निशाने पर जनता दल यूनाइटेड के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। हालांकि भाजपा सरकार में शामिल है लेकिन उसे अपनी चिंता अधिक सता रही है। इसका सबसे बड़ा कारण जदयू का बढ़ता वोट प्रतिशत है। भाजपा के साथ रहते हुए नीतीश कुमार ने कुछ ऐसे फैसले लिये हैं, जिन्हें आसानी से भाजपाई पचा नहीं पा रहे हैं। भाजपा को सबसे अधिक परेशानी मुसलमानों के पक्ष में लिये गये फैसलों से हुई है। इन सब से इतर भाजपा की स्थिति दिन पर दिन प्रदेश में खराब होती गई। इतिहास पर नजर डालें तो राजद-कांग्रेस का गंठबंधन भी कुछ इसी तरह का था। राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस लगभग विलीन हो गई और राजद के रहमोकरम पर चलती रही। इस बात का अंदाजा भाजपा के नेताओं को लग गया है। लेकिन आगे क्या होगा इसका आकलन करना गलत होगा। क्योंकि गठबंधन रहेगा या नहीं, नीतीश कुमार या भाजपा क्या फैसला लेती है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।
अपनी साख जनता के बीच बचाये रखने के लिए भाजपा ने पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से शंखनाद की जो योजना बनाई उसने जदयू-भाजपा गठबंधन में दरार डालने का काम किया। भाजपा जाने-अनजाने ऐसा कर बैठी जिससे राज्य में उसकी सहयोगी पार्टी को भाजपा के सम्मान में दिया जाने वाला भोज रद्द करना पड़ा। दरअसल, सारा विवाद उस विज्ञापन को लेकर हुआ जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हाथ में हाथ डाले दिखलाया गया। विज्ञापन छपने के बाद से ही सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन पर संकट के बादल मंडराने लगे। ऐसे में जब चुनाव सिर पर है नीतीश किसी हालत में नरेन्द्र मोदी या भाजपा के साथ दिखना नहीं चाहते। वहीं भाजपा नीतीश कुमार की छाया से बाहर निकलने की बेचैनी में है। साफ है जो हो रहा है वह विशुद्ध राजनीति है। बिहार में अल्पसंख्यकों का वोट काफी महत्व रखता है। नीतीश हर हाल में इस वोट बैंक को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। नीतीश किसी भी प्रकार से नरेन्द्र मोदी या भाजपा के साथ नहीं दिखना चाहते हैं। भाजपा इस बात को भलीभांति समझती है कि वह अल्पसंख्यक के वोट पाने में कामयाब नहीं हो सकती। ऐसे में बिहार में पार्टी ने हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री को खड़ा कर अपने पुराने एजेंडे पर लौटने का संकेत देने की कोशिश की है। स्थानीय अखबारों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का महिमामंडन और मोदी के साथ उन्हें दिखाने वाले विज्ञापनों से आग बबूला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कानूनी कार्रवाई तक की धमकी दे डाली। विज्ञापन में नरेन्द्र मोदी का जमकर गुणगान किया गया था। विज्ञापन के माध्यम से इस बात पर जोर दिया गया कि गुजरात की तर्ज पर प्रदेश में खूब विकास हुआ। कुल मिलाकर बिहार के चुनाव में स्थानीय मुद्दों को भूला कर भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की छवि को भुनाने की कोशिश की। जानकारों के मुताबिक इसके पीछे भाजपा की सोची-समझी चाल थी। बिहार के विकास का सारा श्रेय कहीं नीतीश कुमार और जदयू को न जाए इसलिए मोदी को सामने लाकर भाजपा ने अपनी छवि को भुनाने का काम किया। साथ ही उसने नीतीश कुमार के विकास पुरुष की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया। अब तक राज्य में नीतीश के सुझावों पर चलने वाली भाजपा ने इस बार दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है।
नीतीश कुमार की नाराजगी की दूसरी वजह भी है जो बिहार के स्वाभिमान से जुड़ी है। नरेन्द्र मोदी ने इन विज्ञापनों के जरिए यह बताने का प्रयास किया कि अगर गुजरात नहीं होता तो बिहार की जनता पूरी तरह बाढ़ में डूब जाती। नरेन्द्र मोदी के इस विज्ञापन से भारतीय परंपरा का अपमान हुआ है। विज्ञापन में कहा गया कि संकट की द्घड़ी में गुजरात हमेशा बिहार के साथ खड़ा रहा। २००८ में आई बाढ़ के दौरान भी गुजरात ने बिहार को सर्वाधिक मदद की। अपने विज्ञापन के माध्यम से भाजपा ने बिहार की नौ करोड़ जनता को यह बताने की कोशिश की कि बिहार को भाजपा शासित राज्य गुजरात ने मदद देकर बहुत बड़ा उपकार किया। अब बिहार के लोगों को अपना कर्ज उतारने की बारी है। यानी बिहार की जनता गुजरात के इस उपकार के बदले प्रदेश में भाजपा को वोट दे। शायद मोदी यह भूल गए कि गुजरात की खुशहाली में बिहारी मजदूरों का भी योगदान है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा सहयोगी दल भाजपा के प्रमुख नेता एवं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर खुला और तीखा प्रहार करने के बाद इस बात के साफ संकेत नजर आ रहे हैं कि दोनों दलों में दरार पड़ चुकी है और इस साल अक्टूबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां अलग-अलग रास्ते पर चल सकती हैं।
जानकारों के मुताबिक अगर नीतीश कुमार भाजपा से नाता तोड़ते हैं तो उन्हें इसका दोहरा लाभ मिल सकता है। पहला बिहार के स्वाभिमान के नाम पर नौ करोड़ बिहारियों के हीरो बन सकते हैं। दूसरा भाजपा से नाता टूटने पर अब तक भटक रहे अल्पसंख्यकों का वोट उनकी झोली में आसानी से गिर सकता है। इस बीच जदयू के अल्पसंख्यक नेता भी बिहार के मुख्यमंत्री पर भाजपा का साथ छोड़ने और राज्य विधानसभा का आगामी चुनाव अकेले लड़ने का दबाव बना रहे हैं। मोदी की छवि सांप्रदायिक है जबकि नीतीश की धर्मनिरपेक्ष। जदयू नेता मोनाजिर हसन का कहना है कि उन्होंने सुनिश्चित साजिश के तहत पूरे राज्य में मोदी के इश्तेहार छपवाए हैं। यह नीतीश कुमार को सत्ता से बेदखल करने की साजिश है। विज्ञापन में मोदी और नीतीश को साथ-साथ दिखाकर उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि को तार-तार करने की कोशिश की गई है।

Wednesday, April 21, 2010

पढ़ाई का हक

आखिरकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना साकार होता नजर आया। राष्ट्रपिता ने ऐसे भारत की परिकल्पना की थी, जिसमें कोई अशिक्षित न हो। बीते एक अप्रैल को शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाला ऐतिहासिक कानून देश भर में लागू हो गया। इससे सीधे तौर पर लगभग एक करोड़ बच्चों को फायदा पहुंचेगा। 'सूचना का अधिकार' और 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी' के बाद 'शिक्षा का अधिकार कानून' लागू करना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। यकीनन यह कानून शिक्षा की दिशा की उन्नति में एक मील का पत्थर साबित होगा। यह कानून कितना अहम है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजाद भारत में पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री ने कानून को लेकर देश को संबोधित किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून के लागू होने पर देश को बधाई देते हुए इसकी सफलता के लिए हरसंभव प्रयास करने का आह्‌वान किया।
इस कानून से स्कूल छोड़ चुके लगभग ९२ लाख बच्चे प्राथमिक शिक्षा पा सकेंगे। संविधान के ८६वें संशोधन के जरिये ०६ से १४ आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए 'शिक्षा' मौलिक अधिकार में शामिल हो गया। संविधान संशोधन के जरिये संविधान में २००२ में एक उपबंध जोड़ा गया। बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-२००९ की वजह से यह संभव हुआ। इसके साथ ही मूल अधिकारों की फेहरिस्त में शिक्षा का अधिकार भी शामिल हो गया। कानून हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार देता है। निजी शैक्षणिक संस्थानों को २५ फीसदी सीटें कमजोर तबके के बच्चों के लिए आरक्षित रखना होगा। वित्त आयोग ने इस कानून को लागू करने के लिए राज्यों को २५,००० करोड़ रुपया उपलब्ध कराया है। वहीं सरकार के मुताबिक इस कानून को लागू करने के लिए अगले पांच साल में १ ़७१ लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही एक सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या यह कानून देशभर में ईमानदारी से लागू हो पायेगा? चुनौती शिक्षा की पहुंच, समता और गुणवत्ता की भी है। विधेयक में कहा गया है कि इसके कानून बनने की तारीख के तीन साल के भीतर ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि प्रत्येक बच्चे के आसपास स्कूल हो सके। वैसे इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर बच्चा स्कूल जाने ही लगेगा? फीस के अलावा भी कई प्रकार के खर्च होते हैं। अधिकांश भूमिहीन, गरीब और वंचित के लिए यह संभव नहीं है कि वे इन खर्चों का बोझ उठा सकें। ऐसे हालात में वे अपने बच्चे को स्कूल से दूर ही रखना पसंद करते हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि ढांचागत सुविधाओं के विस्तार और शिक्षकों की गुणवत्ता सुनिश्चित होने से सरकारी स्कूलों की बदहाली पर विराम लग सकेगा। सरकारी और निजी सभी स्कूलों के लिए नियामक व्यवस्था के शुरुआती सुझाव को सर्वसम्मति नहीं बनने पर छोड़ दिया गया। दोनों ही खेमों में इस प्रावधान को लेकर बेचैनी थी। निजी स्कूलों का मानना था कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में दखल होगा। मौजूदा विधेयक में इससे अलग राय व्यक्त की गई है। इसमें आठ साल तक की प्रारंभिक शिक्षा की अनिवार्यता का दायित्व सरकार के कंधों पर रखा गया है। इसका मतलब यह है कि यदि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी और उसे ही दंडित भी किया जाना चाहिए। सवाल यह है कि इसकी निगरानी कौन करेगा? इसे लेकर कई और सवाल उठने लगे हैं। क्या इतनी देर से इस विधेयक के पारित होने के बाद हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार हो पायेगा? क्या भारत के माथे पर लगा अशिक्षा का कलंक पूरी तरह से मिट सकेगा? इस कानून को लेकर विरोध के स्वर भी उठने शुरू हो गये हैं। निजी स्कूल इस साल तो इस कानून की गिरफ्त से बच गये, लेकिन अगले साल क्या वे इसे पूरी ईमानदारी से लागू करेंगे? पब्लिक स्कूलों ने अभी से इसमें अड़ंगे लगाने शुरू कर दिये हैं। कुछ निजी स्कूलों ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसके विरोध में याचिका भी दायर कर दी है। वैसे सरकारी स्कूलों की हालत क्या है यह किसी से छिपी नहीं है। जब तक शिक्षा के बीच गहरी हुुई खायी को नहीं पाटा जाएगा तब तक यह कानून बेमानी सा ही रहेगा। सरकार अपनी कथनी और करनी से इस कानून को कितना सार्थक बना पाएगी, यह तो समय ही बताएगा।

सत्ता पर लाल हमला

केंद्रीय गृहमंत्री पी .चिदंबरम लालगढ़ में माओवादियों के खिलाफ पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का मनोबल बढ़ा रहे थे वहीं माओवादी सरकार के ग्रीन हंट को 'लाल' करने की योजना को अमलीजामा पहनाने की तैयारी को अंजाम देने में लगे थे। लालगढ़ में अभी गृहमंत्री का दौरा खत्म भी नहीं हो पाया था कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के पास तालमेतला जंगलों में सीआरपीएफ के जवानों को द्घात लगाकर मार डाला। नक्सलियों ने इसे ऑपरेशन ग्रीन हंट की जवाबी कार्रवाई बताया। जाहिर सी बात है नक्सलियों में इस समय आपरेशन ग्रीन हंट की बौखलाहट साफ तौर से देखी जा सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल जो इस निर्मम हत्या के बाद उठ रहा है वह यह कि आखिरकार सूचना तंत्र से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी? खुफिया विभाग को इस कांड की भनक तक क्यों नहीं लग पायी? सरकार की नीति कारगर क्यों नहीं हो पायी? द्घने जंगलों में हजारों की तादाद में नक्सलियों ने मार्च किया, इसका पता लगाने में सरकार क्यों सफल नहीं हो पाई? बिना किसी पुख्ता जानकारी और सूचना के जवानों को नक्सलियों के खिलाफ क्यों झोंक दिया गया?
गृहमंत्री इसे अपनी रणनीतिक चूक बता रहे हैं। दंतेवाड़ा में रिजर्व पुलिस बल के गश्ती दश्त पर हमला सीधे तौर पर राज-व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में द्घात लगाकर इससे पहले भी हमला होते रहे हैं। लेकिन जिस तरह का हमला पिछले ६ अप्रैल को हुआ वह माफी के लायक नहीं है। अब ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि नक्सली देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं। सरकार को उनके खिलाफ सख्त मुहिम चलाने की आवश्यकता है। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ की लगभग पूरी बटालियन नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गयी। जिस पैमाने पर गश्ती दल पर हमला हुआ उससे जो एक बात निकलकर समाने आती है वह यह है कि नक्सलियों ने पूरी रणनीति के तहत इस कार्रवाई को अंजाम दिया।पिछले कुछ अरसे से केंद्र सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों में ऑपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। नक्सलियों को अपने अस्तित्व बचाने की चिंता होने लगी। नक्सलियों के पांव उखड़ने लगे थे। ऐसे में बौखलाहट का होना लाजिमी है। जैसे-जैसे सरकार ने अभियान तेज किया, माओवादियों के हमले भी बढ़ते गये। इस खूनी खेल के बीच सियासी खेल भी तेज हो गया है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच सही तालमेल नहीं बन पाना और सियासी बयानबाजियों ने भी माओवादियों का मनोबल बढ़ाया। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की भेंट चढ़े जवानों की जान का जाना यह दिखाता है कि वहां चीजें सामान्य नहीं हैं। राज्य पुलिस बल और सीआरपीएफ में तालमेल की भारी कमी है। दोनों के बीच संवादहीनता की कमी है। किसी भी ऑपरेशन की सफलता उसके रणनीति पर निर्भर करती है। प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक करीब हजार लोगों ने द्घात लगाकर जवानों पर हमला किया। निश्चित तौर पर इसके लिए कई दिनों से प्रयास किया जा रहा होगा। गांव के खुफिया तंत्र को इसकी जानकारी भी रही होगी। सरकारी खुफिया विभागों को इसकी भनक तक नहीं लग पायी। इससे नक्सलियों के खिलाफ खुफिया तंत्र के दावे की सच्चाई तार-तार हो गयी। सरकार दिल्ली में बैठकर रणनीति बनाती है लेकिन अमली जामा पहनाने में वह अब तक नाकाम रही है।आपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत जून २००९ से दक्षिण-पश्चिम बस्तर में दंतेवाड़ा तथा बीजापुर जिलों से की गई। धीरे-धीरे इसका विस्तार अन्य इलाकों में हुआ। एक तरफ नक्सली समस्या से निपटने की पुख्ता रणनीति तो दूसरी ओर उन कारकों को दूर करने की कोशिश , जो नक्सलियों के लिये क्षेत्र को उर्वरा बना रहे हैं। इलाके में तैनात की गई सेना ग्रामीणों का दिल जीतने की कोशिश कर रही है। ग्रामीणों में यह विश्वास पैदा करने की भी कोशिश चल रही है कि सेना उन्हें मार गिराने के लिए नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए लगाई गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों? जनता नक्सलियों को अपना रक्षक क्यों मानने लगी। निश्चित रूप से इसके लिये सरकारी मशीनरी ही दोषी है।
सरकार योजनायें तो बनाती हैं लेकिन अफसरों एवं नेताओं तक ही सिमट कर रह जाती हैं। जाहिर सी बात है कि सरकारी एवं सामंती शोषण के बीच जब नक्सलियों की ओर से सहानुभूति दिखती है तो यहां के ग्रामीण उनके मुरीद हो जाते हैं। वे नक्सलियों की भूमिका और उद्देश्य पर गौर नहीं करते। इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखते कि वे जिसका सहयोग कर रहे हैं, वही सही है या गलत। उन्हें तो बस शोषण से बचने की एक किरण दिखाई पड़ती है और इस किरण के जरिये वह अंधेरी गलियारों में जिन्दगी की रोशनी ढूंढने लगते हैं।

रिश्ते सुधारने की जुगत

विगत कुछ वर्ष में अमेरिका से बढ़ती भारत की नजदीकियां और गोर्शकोव सौदे को लेकर भारत रूस के बीच तनातनी के चलते भारत और रूस के बीच दूरियां बढ़ी हैं। इस दौरान भारत ने हथियारों की आपूर्ति के लिए यूरोप, इजरायल और अमेरिका की ओर अपना रुख किया तो रूस की नाराजगी और भी परवान चढ़ी। लेकिन प्रधानमंत्री के रूस दौरे के दौरान दोनों देशों ने सामरिक क्षेत्र में आपसी सहयोग के महत्व को पहचाना। वैसे भी रूस सामरिक दृष्टि और हथियारों की आपूर्ति के मामले में हमेशा से भारत का विश्वसनीय सहयोगी रहा है। बीती बारह मार्च को भारत-रूस ने अपने मैत्री संबंधों को नए आयाम प्रदान किए। दोनों देशों ने नागरिक परमाणु समझौतों सहित कुल १९ करारों पर हस्ताक्षर किए। समझौते के तहत रूस, भारत में बारह परमाणु प्लांट बनाएगा, इसमें से छह कुंडनकुलम और छह पश्चिम बंगाल के हरिपुर में बनाए जाएंगे। इन महत्वपूर्ण करारों से उच्च एवं दुर्लभ तकनीक को लेकर दोनों देशों के बीच कई दशक पुराने दोस्ताना संबंधों में फिर एक नए युग की शुरुआत हुई। भारत-रूस नागरिक परमाणु समझौते के तहत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग का प्रावधान शामिल है। समझौते के तहत भारत में रूसी डिजायन के न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाए जाएंगे। नाभिकीय करार में रूस ने भारत को वो सारी रियायतें मुहैया कराईं जो अमेरिका उसे नहीं दे सका।एडमिरल गोर्शकोव के मोल-भाव को लेकर दो साल पहले तनावपूर्ण हुए भारत-रूस के सामरिक संबंध २० हजार करोड़ के रक्षा समझौतों के बाद फिर पटरी पर लौट आए हेैं। रूस के प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन की मौजूदगी में हुए करीब चार बिलियन अमेरिकी डॉलर के असैन्य परमाणु समझौते के तहत भारत में रूस १२ परमाणु संयंत्र बनाएगा। करीब २० हजार करोड़ रुपये के इन समझौतों के तहत भारत विमानवाहक पोत एडमिरल गोर्शकोव की खरीद के लिए २.३४ बिलियन अमेरिकी डॉलर के भुगतान पर सहमत हो गया। पहले इस पोत की खरीद के लिए मात्र ९७४ मिलियन डॉलर का भुगतान होना था, लेकिन कई दौर के मोल-भाव के बाद आखिरकार यह सौदा अपने अंजाम को पहुंचा।गौरतलब है कि भारत को यह पोत २०१३ से पहले नहीं मिल सकेगा। रूस के साथ हमारे संबंध हमारी विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक संबंधों के लिहाज से काफी मायने रखते हैं। अन्य समझौतों में ओएनजीसी और रूस के गेजप्रोम के बीच हाइड्रोकार्बन के क्षेत्र में समझौता, इसरो और रूस की फेडरल स्पेस एजेंसी के बीच भी सहमति पत्र पर दस्तखत और उर्वरक के क्षेत्र में दो तथा हीरे के क्षेत्र में पांच समझौतों पर दस्तखत शामिल हैं। हीरा क्षेत्र में सहयोग के लिए रूस की फर्म अल रोजा से एग्रीमेंट हुआ। १.५ अरब डॉलर की लागत से २९ मिग-२९ फाइटर प्लेन खरीदने की डील भी हुई। यह विमान २०१२ से मिलने शुरू होंगे। इसके साथ ही सैन्य परिवहन विमान एमटीए के लिए संयुक्त उद्यम लगाने पर भी सहमति बनी। इसके अलावा आतंकवाद को लेकर भी दोनों देशों के नेता काफी गंभीर दिखे। अफगानिस्तान पर चर्चा के दौरान दोनों देश आपसी सलाह-मशवरा का दायरा बढ़ाने पर सहमत हुए। आतंकवाद से निबटने के लिए भी दोनों देश सहयोग बढ़ाएंगे। पुतिन ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी गुटों को पूरी दुनिया के लिए खतरा बताया। उन्होंने कहा वह आतंकवादी गुटों के बारे में भारत की चिंताओं को समझते हैं कि अफगानिस्तान बॉर्डर के पास होने के कारण भारत की सुरक्षा प्रभावित हो रही है। पुतिन ने स्वीकार किया कि रूस की चिंताएं भी भारत जैसी ही हैं। अफगानिस्तान और आतंकवाद पर आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए भारत और रूस ने सहमति जताई है।

नीयत पर सवाल

अगर आतंकवाद की बात की जाए तो यह हाल के दिनों में दुनियाभर के लिए चिंता का विषय रहा है। दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है। ९/११ की द्घटना को शायद ही अमेरिका कभी भूल पाए। यह वही द्घटना थी जिसने यह साबित कर दिया कि आतंकवादियों का काला साया अमेरिका जैसे देश पर भी है। ९/११ के बाद अमेरिका ने आतंकवादियों के खिलाफ जो अभियान चलाया उसने देखते ही देखते अफगानिस्तान में तालिबानी हुकुमत को नेस्तनाबूत कर दिया गया। आज भी वहां आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई जारी है। जहां अमेरिका का आतंकवाद के खिलाफ यह एक सख्त चेहरा रहा है, वही दूसरी ओर भारत की औद्योगिक राजधानी मुंबई में हुए २९/११ के हमले के प्रमुख अभियुक्त को वह अपने यहां शरण दिये हुए है। उसे बचाने के लिए अमेरिका हरसंभव प्रयास में लगा है। एक ही समस्या दो तरह से नहीं देखी जा सकती। एक तरफ जहां अमेरिका ९/११ के आतंकवादियों के खिलाफ जंग छेड़े हुए है वहीं दूसरी ओर भारत पर हमला करने वाले आतंकियों को शरण देकर अमेरिका अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद को प्रोत्साहन देने का काम कर रहा है।
डेविड कोलमैन हेडली को लेकर भारत के प्रति अमेरिकी रुख की हकीकत सामने आ गयी। सरकार भले ही अमेरिका के साथ मधुर संबंधों की दुहाई दे, लेकिन अमेरिका ने पिछले दिनों साफ कर दिया कि उसकी नजर में भारत की औकात क्या है? भारत के गृह मंत्री और गृह सचिव भले ही यह मान रहे हों कि अमेरिकी आतंकवादी डेविड हेडली द्वारा अमेरिका में गुनाह कबूला जाना भारत के लिए झटका नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि हेडली ने ऐसा करके न केवल अपनी जान बचाई है, बल्कि अमेरिका का असली चेहरा उजागर होने से भी बचा लिया। सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका की नीयत शुरू से ही साफ नहीं थी।
यह सब एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ। दरअसल हेडली ने गुनाह कबूल कर सरकारी गवाह बनने का प्रयास किया जिसमें वह कामयाब रहा।लेकिन कई सवाल भी हैं, जो अमेरिकी भूमिका को कटद्घरे में खड़ा करते हैं। दरअसल हेडली डबल एजेंट था और ऐसे में अमेरिका को अपनी पोल खुलने का खतरा पैदा हो गया था। अगर हेडली भारत को सौंप दिया जाता, तो यह सच्चाई पूरी दुनिया के सामने आ जाती कि वह लश्कर के लिए काम करने के अलावा अमेरिकी खुफिया एजेंसी का भी एजेंट था। ऐसा होने पर अमेरिका बेनकाब हो जाता। ऐसे में अमेरिका ने हेडली को गवाह बनाकर अपनी इज्जत और उसकी जान दोनों ही बचा ली।अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने डेविड हेडली को शिकागो से अक्टूबर २००९ में गिरफ्तार किया था। खुफिया ऐजेंसी उस पर एक वर्ष से भी ज्यादा समय से नजर रख रही थी। उसके और लश्कर-ए-तैयबा के बीच जारी हुई ई-मेल पहले ही पकड़ी जा चुकी थीं। लेकिन, उसने भारतीय एजेंसियों को इसकी सूचना नहीं दी।ऐसे में अब भारत चाहे जितनी कोशिश कर ले, हेडली को भारत लाकर मुकदमा चलाना एक सपना ही होगा। अमेरिकी कानूनी दांव-पेंच लगाकर हेडली को अप्रत्यक्ष रूप से सहायता कर रही है। हेडली ने शुरुआत में आरोपों से इनकार किया था लेकिन बाद में उन्हें मान लिया जिसके चलते वह सजा ए मौत या भारत, पाकिस्तान, डेनमार्क प्रत्यर्पण से बच गया। भारत के आग्रह पर अमेरिका पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह स्पष्ट नहीं है लेकिन कहीं न कहीं अमेरिका की नियत में खोट जरूर दिख रहा है।

ब्रिटेन में चुनावी बिगुल

ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स की सभी ६५० सीटों के लिए ६ मई को आम चुनाव होगा। हाल में हुए एक सर्वेक्षण से उत्साहित सत्तारूढ़ लेबर पार्टी जहां अपनी लगातार चौथी जीत के लिए बेकरार हैं, वहीं कंजरवेटिव पार्टी १३ साल बाद अपनी खोयी राजनैतिक जमीन फिर से वापस पाने की कोशिश करेगी। इन दो पार्टियों के अलावा मैदान में तीसरी पार्टी है लिबरल डेमोक्रेट, यह पार्टी दोनों प्रमुख दलों से फायदा उठाने की कोशिश करेगी। त्रिशंकु संसद की स्थिति में सौदेबाजी करने के लिए लिबरल डेमोक्रेट ज्यादा राजनीतिक वजन बढ़ाने की कोशिश करेगी। हाल ही में हुए जनमत सर्वेक्षण में ब्रिटेन में होने वाले चुनावों में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने और संसद में त्रिशंकु स्थिति बनने की संभावना व्यक्त की गई है। अगर ऐसा हुआ तो यह वर्ष १९७० के मध्य के बाद से ब्रिटेन में पहली बार होगा। ब्रिटेन के समाचार पत्रों मेल टुडे और पीपुल्स में प्रकाशित जनमत सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्य विपक्षी दल कंजरवेटिव पार्टी प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन की लेबर पार्टी के मुकाबले नौ प्रतिशत अंक लेकर आगे है। एक अन्य सर्वेक्षण में भी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स में त्रिशंकु स्थिति के संकेत मिले हैं। समीक्षकों का मानना है कि कंजरवेटिव पार्टी को नौ अंकों की बढ़त मिलना यह दर्शाता है कि उसे बहुमत मिल सकता है। बीपीआई एक्स पोल में डेविड केमरुन की कंजरवेटिव पार्टी को ३९ प्रतिशत, लेबर पार्टी को ३० प्रतिशत और लिबरल डेमोक्रेट्स को १८ प्रतिशत अंक मिले हैं।
इराक युद्ध और आतंक विरोधी कानून के बावजूद ब्रिटिश मुसलमानों का झुकाव लेबर पार्टी की ओर बना हुआ है। सर्वे के मुताबिक लगभग ५७ प्रतिशत मुस्लिम सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के पक्ष में हैं। हालाकि ५३ प्रतिशत मुसलमानों का मानना है कि पिछले दशक में धार्मिक आजादी पर कई तरह की रोक लगी हैं। वहीं ४० प्रतिशत ईसाई प्रमुख विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी का समर्थन कर रहे हैं। इस बीच प्रमुख पार्टियां एशियाई लोगों के मत को अपने पक्ष में करने के लिए योजना बनाने में जुट गयी हैं। आगामी संसदीय चुनाव को देखते हुए कई सांसद संसद में अश्वेत और एशियाई मूल के सदस्यों की संख्या को बढ़ाने के लिए अभियान चला रहे हैं। ब्रिटेन की संसद के कुल सदस्यों में से केवल १५ अश्वेत हैं, जबकि देश की सामान्य आबादी के अनुपात के अनुसार अल्पसंख्यकों की जनसंख्या के हिसाब से ५८ सदस्य अश्वेत या एशियाई मूल के होने चाहिएं। लेबर पार्टी का मानना है कि प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन ने न सिर्फ आर्थिक मंदी से ब्रिटेन को निकाला है, बल्कि विश्व का भी प्रतिनिधित्व किया। लेकिन इस सब के बावजूद ब्राउन को अपनी ही पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ब्रिटेन की गार्डन ब्राउन सरकार के दो पूर्व मंत्रियों ने मांग की है कि चुनावों में ब्राउन लेबर पार्टी का नेतृत्व करें या नहीं इस बारे में गुप्त मतदान होना चाहिए। उधर प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी बयान में कहा गया है कि पूरा मंत्रिमंडल प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के साथ है। ज्याफ हून और पैट्रिशिया हेविट ने संसद को लिखे पत्र में कहा है कि नेतृत्व के मुद्दे पर जारी अनिश्चितता पार्टी को चुनाव में अपना पक्ष मजबूती से रखने से रोक रही है और इसका फैसला सिर्फ गुप्त मतदान से हो सकता है। लेबर पार्टी के चेयरमैन टोनी लायड ने कहा है कि नेतृत्व को चुनौती कोई संकट नहीं है और यह चुनौती जल्द दम तोड़ देगी। ब्राउन के आलोचकों का कहना है कि उनकी छवि को आर्थिक संकट और अफगानिस्तान में ब्रिटिश सैनिकों की मौतों के चलते काफी नुकसान पहुंचा है। ब्रिटेन चुनाव में इन सब से अलग जो नया देखने को मिलेगा, वह रहेगा अमेरिका के चुनाव प्रचार का सफल तरीका। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का असर साफ देखा जा सकता है। प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की पत्नियां भी चुनावी मैदान में हैं। प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के सामने हैं प्रमुख विपक्षी पार्टी कंजरवेटिव के डेविड कैमरन। लेकिन इनकी चुनावी कमान सारा ब्राउन और सामंथा कैमरन के हाथों में होगी। सारा ब्राउन अपने पति की टीम में पब्लिक रिलेशन संभालने में अहम भूमिका निभा रही हैं। दूसरी तरफ डेविड कैमरन ने भी चुनावी अभियान में अपनी स्टाइलिश पत्नी सैम को शामिल कर लिया। वैसे सारा और सैम में समानताएं भी हैं और अंतर भी। सैम बहुत ही उच्च, संभ्रांत द्घराने से हैं, जबकि सारा मिडिल क्लास फैमिली से हैं। बहरहाल इन दोनों की बदौलत चुनावी दंगल काफी दिलचस्प होने वाला है।

महाशक्तियों की संधि

चेकेस्लोवाकिया की राजधानी प्राग में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा और रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव के बीच परमाणु हथियारों में कटौती के समझौते में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसे हम ऐतिहासिक कह सकें। बस कहने भर को अमेरिका और रूस अपने परमाणु जखीरों में तीस फीसदी कटौती करेंगे। लेकिन दोनों देशों के पास दुनिया का ९५ प्रतिशत परमाणु भंडार हैं। अगले सात सालों में उनके पास २२०० के बजाय १५५० परमाणु हथियार होंगे, लेकिन इससे दुनिया को क्या फर्क पड़ेगा? दुनिया को खत्म करने के लिए महज चंद परमाणु बम ही काफी हैं। भविष्य में यह संधि निस्त्रीकरण में क्या महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगे? दरअसल ओबामा एक ऐसे विश्व की परिकल्पना करने की कोशिश कर रहे हैं जो परमाणु हथियार मुक्त हो। वाकई उनकी यह सोच अच्छी है। लेकिन इसको अमली जामा भी पहनाया जा सकेगा, मुमकिन नहीं लगता।
अमेरिका और रूस अपने पुराने और कम असर रखने वाले परमाणु हथियारों में एक तिहाई कटौती कर दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि वह इस मुद्दे पर कितने गंभीर हैं। मानो वही दुनिया के सच्चे हितैषी हैं। ओबामा उम्मीद कर रहे हैं ईरान और उत्तर कोरिया जैसे देश इससे प्रेरणा लेकर अपना कार्यक्रम समाप्त कर देगे। जो उनकी भूल है। दो सबसे बड़े परमाणु हथियार संपन्न देश परमाणु हथियारों की संख्या में कटौती को ऐतिहासिक बताकर महज दुनिया को गुमराह कर रहे हैं। आज की तारीख में दुनिया भर में २३ हजार से ज्यादा परमाणु बम हैं।शीत युद्ध के बाद से अंतरराष्ट्रीये स्तर पर कई बदलाव आये। आज दुनिया के कई देश परमाणु संपन्न हो चुके हैं। इन सब के अलावा विश्व के सामने आतंकवाद की चुनौती हैं। आतंकवाद के बाद परमाणु प्रसार दूसरी बड़ी चुनौती हैं। ऐसे में आतंकी संगठनों के बीच भी परमाणु हथियार पाने की लालसा हैं। अगर वो इसमें कामयाब होते हैं तो दुनिया को बचाना मुश्किल होगा। इस दिशा में दोनों देशों की ओर से कोई सार्थक पहल नहीं की गयी। इस सब के बावजूद दोनों देशों के प्रमुखों ने इसे एक परमाणु रहित दुनिया की तरफ नया कदम बताया।दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की संख्या कम करने के मकसद से हुई इस संधि से दुनिया के उन देशों को एक सबक मिलने की उम्मीद है जो विनाश के इन हथियारों के पीछे दौड़ रहे हैं। परमाणु आधारित विध्वंशक हथियारों में कटौती कर विश्व को सुरक्षित जीवन देने की राह में दो महाशक्तियां आगे बढ़ी है। इन सब के बावजूद दुनिया भर में उपलब्ध परमाणु साम्रगी और काले बाजार में उपलब्ध तकनीकी के चलते यह खतरा कम हो जाएगा ऐसा नहीं लगता।

Tuesday, March 9, 2010

दो महाशक्तियों की प्रतिस्पर्धा

पिछले कुछ अरसे से अमेरिका की स्थिति में जहां गिरावट देखने को मिली, चीन उसके मुकाबले में आगे निकलता दिखाई पड़ा। आर्थिक मंदी और जलवायु परिवर्र्तन पर अमेरिका को काफी फजीहत झेलनी पड़ी। ईरान ने अमेरिकी प्रतिबंधों को धता बताकर परमाणु संवर्धन करने में सफलता प्राप्त कर ली। अमेरिका इस से काफी द्घबराया हुआ है। ऐसे में ईरान पर और कडे़ प्रतिबंध लगाने के लिए चीन की मंजूरी जरूरी है। यही कारण है कभी दलाई लामा से मिलने से इंकार करने वाला ओबामा प्रशासन उनसे मुलाकात कर चीन पर दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है
दुनियाभर की दो महाशक्तियों चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देखा जा सकता है। अमेरिका चीन पर दबाव बनाना चाहता है, तो चीन भी इस मामले में पीछे नहीं है। राष्ट्रपति ओबामा के कोपनहेगन की जलवायु शिखर बैठक के दौरान हुए अपमान और ईरान के खिलाफ कड़े प्रतिबंधों के प्रस्ताव पर चीन की उल्टी राय से भी अमेरिका द्घबराया हुआ है। जलवायु परिवर्तन पर अंतिम समय में चीन का कटौती के प्रस्ताव से इंकार कर देना भी अमेरिका को रास नहीं आया। अमेरिका ने चीन पर दबाव बनाने के लिए पिछले दिनों ताईवान को अरबों डॉलर के आधुनिक श्रेणी के हथियार बेचे। गूगल सेंसरशिप मामले में दोनों देशों के मतभेद खुलकर सामने आ चुके हैं। पश्चिमी देश विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान पर प्रतिबंध लगाना चाहते हैं, ऐसे में चीन पर दबाव बनाना जरूरी हो गया। समझा जाता है कि इसी रणनीति के तहत अमेरिका ने चीन के लाख विरोधों के बीच तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा से मुलाकात की।
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने १८ फरवरी को तिब्बती आध्यात्मिक नेता दलाई लामा से मुलाकात की। नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त इन नेताओं की मुलाकात वैसे तो अनौपचारिक थी, लेकिन इसे लेकर चीन ने काफी आपत्ति जताई। इस बैठक में जो हुआ या उससे भी बढ़कर जो नहीं हुआ, उसे आशाजनक तो कतई नहीं कहा जा सकता। दोनों नेताओं की मुलाकात अमेरिकी राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस के मैप रूप में हुई। मैप ऑफिस में दलाई लामा से मुलाकात को ओबामा प्रशासन ने निजी करार दिया। मीडिया को यहां आने से रोक दिया गया। मुलाकात कक्ष में कैमरे के इस्तेमाल की इजाजत नहीं थी। दोनों नेताओं की मुलाकात भले ही मैप रूम में हुई पर इसकी गरज चीन में सुनाई पड़ी। चीन सरकार ने चीन में अमेरिकी राजदूत को तलब किया और ओबामा-दलाई लामा मुलाकात को सरासर 'हस्तक्षेप' की संज्ञा दी। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा चीन की जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को इस मुलाकात से आद्घात पहुंचा इस बीच व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव रॉबर्ट गिब्स ने दोनों नेताओं के बीच हुई इस वार्ता के बाद कहा कि राष्ट्रपति ओबामा ने तिब्बत की अनूठी धार्मिक, सांस्कूतिक और भाषायी पहचान को बचाए रखने तथा चीन में तिब्बतियों के मानवाधिकार की रक्षा के प्रति पूर्र्ण सर्मथन व्यक्त किया। गौरतलब है १९९१ से अमेरिका का प्रत्येक राष्ट्रपति चीन के विरोधों के बावजूद दलाई लामा से बातचीत करता आया है और इस मुलाकात को उसी परंपरा की एक कड़ी माना जा रहा है।
राष्ट्रपति ओबामा बैठक के बाद दलाई लामा के साथ मीडिया के सामने आने का न तो साहस जुटा सके और न ही तिब्बत की स्वायत्तता का कोई जिक्र किया।
इस मुलाकात की एक और वजह हैं। राष्ट्रपति ओबामा को अपनी सत्ता के दूसरे साल में कैनेडी परिवार और डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ समझे जाने वाले मैसाच्यूसेट्स की सीट पर करारी हार के बाद से अपनी भूलों का अहसास होने लगा और उसे चीन को सीना दिखाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसी सिलसिले में चीन के टायरों और इस्पात की ट्यूबों पर शुल्क जड़ना, चीन के गूगल इमेल खातों में सेंध लगाए जाने की शिकायतों की मांग करना, ताईवान को रक्षात्मक हथियार बेचने का फैसला करना और आखिरी चाल के तौर पर दलाई लामा से मिलना शामिल है। दरअसल, सांकेतिक कदमों का यह दौर अमेरिका और चीन के आपसी संबंधों में आ रही खनक से ज्यादा कुछ नहीं। आर्थिक मंदी की विभीषिका झेल चुका अमेरिका दोनों देशों के बीच टकराव का जोखिम नहीं उठाना चाहेगा। मुश्किल यह है कि तिब्बत जैसी समस्याओं का समाधान केवल रचनात्मक आलोचनाओं से नहीं निकल सकता।

भुला दिया 'आम आदमी' को

आम आदमी के नाम पर सत्ता में दूसरी बार वापसी करने वाली यूपीए सरकार ने आम बजट में 'आम आदमी' को ही भुला दिया। वित्त मंत्री ने किसानों और वेतनभोगियों को राहत देने के साथ ही साथ ढांचागत एवं सामाजिक क्षेत्रों के लिए आवंटन में वृद्धि की। लेकिन पेट्रोल, डीजल तथा अन्य
वस्तुओं के उत्पाद शुल्क में वृद्धि से महंगाई की मार झेल रहे आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ा दीं। महंगाई के मुद्दे पर बजट का बहिष्कार कर मुद्दाविहीन विपक्ष ने भी अपना फर्ज पूरा कर लिया
आध्र प्रदेश में विपक्षी दलों के विधायकों ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में इजाफे का विरोध का अनूठा तरीका निकाला। टीडीपी नेता पहले तो बैलगाड़ी में फिर साइकिल पर सवार होकर विधानसभा पहुंचे। उधर केरल की सड़कों पर लाल झंडे लेकर वामपंथी विरोध प्रदर्शन करते दिखाई पड़े तो दिल्ली में प्रतिरोध करने वालों को पानी की बौछारों का सामना करना पड़ा। सरकार के खिलाफ मुद्दों का सूनापन झेल रही विपक्षी पार्टियों के लिए मानो बहार आ गयी। भारत के करीब साठ साल के संसदीय इतिहास में शायद पहली बार ऐसा हुआ जब पूरे विपक्ष ने एकजुट होकर आम बजट का न सिर्फ बहिष्कार किया, बल्कि संसद से वाक आउट भी किया। विपक्ष के इस व्यवहार को सामान्य राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता। विपक्ष की मानें तो यह देश का 'आम बजट' नहीं, बल्कि 'खास बजट' है।हाल ही हुए आम चुनाव के बाद लोगों को ऐसा महसूस होने लगा था कि अब यूपीए की स्थिर सरकार आम जनता के हित को ध्यान में रखते हुए बजट पेश करेगी। लेकिन पिछले दिनों जिस महंगाई की मार से जनता त्रस्त थी उस पर इस आम बजट ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। बीते वर्ष दुनिया को मंदी की मार झेलनी पड़ी, लेकिन इस मंदी के दौरान भी भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ाई नहीं। लगता है हमारे राजनीतिक दलों खासकर कांग्रेस ने इससे कोई सबक हासिल नहीं किया। यही वजह है कि अपनी अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने का जज्बा बजट के दौरान नहीं दिखा। आम आदमी के नाम पर सत्ता में वापसी करने वाली केंद्र सरकार खाद्य वस्तुओं के मूल्य नियंत्रित कर पाने में लाचार दिखी। ऐसी आशा की जा रही थी कि वित्त मंत्री आम बजट में ऐसी कई द्घोषणाएं करेंगे जिससे बेलगाम हो चुके खाद्य पदार्थों के मूल्यों पर गिरावट न सही, स्थिरता देखी जाएगी। लेकिन आम बजट में आम आदमी के लिए ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने मध्यम वर्ग को आयकर में छूट देकर उसे महंगाई से बचाने का दिखावा करने का प्रयास तो किया, लेकिन उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी के साथ पेट्रोलियम पदार्थों में वृद्धि से स्पष्ट हो गया कि कोई राहत मिलने वाली नहीं। वित्त मंत्री ने माना कि मंदी से हम उबर चुके हैं। मंदी ने हमारे विकास को प्रभावित किया है। मौजूदा महंगाई के लिए उन्होंने मानसून की बेवफाई को दोषी बताया पर मनमोहन सरकार को बरी कर दिया। उन्होंने उम्मीद जताई कि देश की विकास दर ८ .५ फीसदी तक पहुंच जाएगी, लेकिन फिलहाल उनका लक्ष्य नौ फीसदी तक विकास दर हासिल करना है। वित्त मंत्री ने जहां करदाताओं को टैक्स सीमा बढ़ाकर खुश किया वहीं पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने के प्रस्ताव ने संसद से सड़क तक लोगों को नाराज कर दिया है। विपक्ष ने इस बजट को जन विरोधी, किसान विरोधी और गरीब विरोधी बताया।दरअसल पिछले वर्ष मंदी के दौर में सरकार ने चुनाव के मद्देनजर रियायतों का पिटारा खोल दिया। करीब साठ हजार करोड़ रुपये के कृषि राहत पैकेज की द्घोषणा की गयी। यही वजह रही कि सरकारी खजाने की स्थिति चिंताजनक हुई और राजकोषीय द्घाटा निराशाजनक होने लगा। राजकोषीय द्घाटे को नियंत्रित करने के लिए हालांकि कुछ नए कर लगाए गए हैं लेकिन अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति से साढ़े पांच प्रतिशत तक इसे ला पाना एक चुनौती है। जानकारों के मुताबिक बजट का कोई दूरगामी परिणाम नजर नहीं आता। आधारभूत ढांचे में बजट आवंटन बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में जान फूंकी जा सकती थी, पर ऐसा हुआ नहीं।एक तरफ जहां अन्य देश लगातार अपने रक्षा बजट में इजाफा कर रहे हैं, वहीं वित्त मंत्री का रक्षा बजट में कंजूसी करना समझ से परे है। देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का मनोबल बढ़ाने का कोई उपाय इस बजट में नहीं किया गया है। प्रशासनिक सुधार की बात तो कही गई है पर सरकारी मशीनरी के खर्चे कम करने की कोई चर्चा नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य या अन्य सामाजिक क्षेत्र के बजट में कोई खास बढ़ोतरी नहीं की गई है। खतरा यह है कि थोड़ा-थोड़ा धन सबको देने से सभी दूरगामी योजनाएं प्रभावित हो सकती हैं, जिसका सीधा असर सकल द्घरेलू उत्पाद पर पड़ेगा और जिस राजकोषीय द्घाटे को कम करने की कोशिश की जा रही है वह और बढ़ सकता है। डीजल और पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क में एक-एक रुपये प्रति लीटर की वृद्धि करने की द्घोषणा से इनके मूल्यों में ढाई रुपये प्रति लीटर से अधिक की वृद्धि हो गई। इन प्रस्तावों का विपक्ष ही नहीं, बल्कि सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे दलों ने भी भारी विरोध किया। डीजल के दाम बढ़ने से आम आदमी की रोजमर्रा की जरूरत की चीजें तो महंगी होगी ही बजट प्रस्तावों से बुनियादी क्षेत्र में काम आने वाले सीमेंट, लोहा, कोयला वाहन आदि कई उद्योगों पर सीधा असर पड़ेगा। महंगाई पर बिना मतदान वाली चर्चा से सत्ता पक्ष को राहत मिली, लेकिन यदि समूचा विपक्ष एकजुट बना रहा तो सरकार की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। यही वजह है कि चौथी बार आम बजट पेश कर रहे प्रणब मुखर्जी ने ममता बनर्जी की तरह शेरो-शायरी का सहारा नहीं लिया और शुरू से अंत तक गंभीर बने रहे।

बातें हैं बातों का क्या?

करीब चौदह महीने के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच सचिव स्तर की बातचीत हुई। नतीजा वही ढाक के तीन पात, जिसकी पहले से उम्मीद की जा रही थी। पाकिस्तान ने भारत की सभी मांगों को सिरे से नकारते हुए भारत को सलाह न देने की सलाह दी। कुल मिलाकर महज बातचीत के लिए बातें हुईं जिसने अपनी विश्वसनीयता खो दी। कुछ इस अंदाज में कि बातें हैं बातों का क्या? भारत-पाकिस्तान के बीच २५ फरवरी को संपन्न हुई वार्ता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि मुंबई धमाकों के बाद जो वार्ता रुक गयी थी उसे एक बार फिर से पटरी पर लाने की कोशिश की गई। वैसे यह बैठक आशा के अनुरूप बेनतीजा ही रही। कोशिश की जा रही थी कि पिछले चौदह माह से जो बर्फ दोनों देशों के बीच जम गयी थी उसे थोड़ा पिद्घलाया जाए। वार्ता के दौरान एक बात तो साफ तौर पर स्पष्ट हो गयी कि दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हुई है। भारत की ओर से जहां इस वार्ता में मुख्य रूप से पाकिस्तानी जमीन से भारत के खिलाफ चल रहे आतंकवाद पर जोर दिया गया, वहीं पाकिस्तान ने बलूचिस्तान, कश्मीर और सिंधु नदी के पानी का मुद्दा उठाया। भारत सरकार ने अपने द्घरेलू दबाव को दरकिनार करके दोनों देशों के विदेश सचिव स्तर की बातचीत की पहल की थी। हालांकि आतंकवाद के दंश से पाकिस्तान भी दो चार है, मगर वह भारत के खिलाफ चरमपंथी गतिविधियां चला रहे संगठनों के प्रति इसलिए नरम रवैया अपनाए हुए है कि वह उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पा रहा है।
चौदह महीने के अंतराल के बाद द्विपक्षीय वार्ता बहाल करते हुए भारत ने पाकिस्तान को आतंकवाद पर तीन दस्तावेज सौंपे। इन तीनों दस्तावजों में ३४ आतंकवादियों के नाम हैं। जिनमें पाकिस्तान से सेना के रिटायर्ड मेजर इकबाल के अलावा वांछित लश्कर-ए-तैयबा प्रमुख हाफिज सईद, मुजम्मिल, अबू हम्जा जैसे आतंकियों को सौंपने की मांग की। एक डोजियर में प्रमुख आतंकी इलियास कश्मीरी की गतिविधियों की जानकारी है। इसमें यह मांग की गई कि इन आतंकवादियों को सौंपा जाए और अन्य प्रभावी कदम उठाये जायें। इस बैठक में भारत ने हाल ही में हुई पाकिस्तान में तालिबान द्वारा सिखों की हत्या पर भी चिंता जताई। निरूपमा राव ने कहा कि हमलों से विश्वास खत्म हुआ है। उन्होंने पाकिस्तानी समकक्ष से कहा कि उनकी सरजमीं से गतिविधियां संचालित कर रहे सभी आतंकवादी समूहों को नेस्तनाबूद करना पाकिस्तान की महती जिम्मेवारी है। भारत ने पाकिस्तान में आतंकी ढांचे के लगातार बने रहने और पाकिस्तानी क्षेत्र तथा पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र से भारत के खिलाफ आतंकी हिंसा भड़काने के लिहाज से लश्कर-ए-तैएबा, जमात-उद-दावा, हिज्ब उल मुजाहिदीन आदि जैसे संगठनों की निर्बाध गतिविधियों पर अपनी चिंता जताई।
लेकिन शाम होते ही सलमान बशीर ने जिस लहजे में बात की उस तल्ख अंदाज ने गुड केमिस्ट्री की हवा निकाल दी। पाकिस्तान के विदेश सचिव सलमान बशीर ने सारे एजेंडे को ही पलट कर रख दिया। उन्होंने मुंबई हमलों पर कहा कि पाकिस्तान में तो ऐसे कई सौ हमले हो चुके हैं। फिर पिछले तीन साल के दौरान पाकिस्तान में हुए आतंकी हमलों के आंकड़े भी गिना डाले। बशीर ने कश्मीर का राग तो हमेशा की तरफ अलापा ही साथ ही गैर कूटनीतिक अंदाज में भारत को नीचा दिखाने का प्रयास भी किया। साथ ही उन्होंने भारत की आतंकवाद पर चिंता को कोई तरजीह नहीं दी। आतंकी सरगना हाफिज सईद पर दिए दास्तावेज को साहित्य करार दिया। साथ ही उन्होंने कहा कि भारत को पाकिस्तान को लेक्चर देने की जरूरत नहीं है।
महज दुनिया को दिखाने की गरज से साथ बैठ कर बात कर लेने से किसी ठोस नतीजे की उम्मीद नहीं की जा सकती, जब तक कि एक दूसरे की चिंताओं को समझने और सुलझाने की मंशा न हो। इसलिए जब तक पाकिस्तान अपने रुख में नरमी नहीं लाता, भारत के प्रति भरोसा पैदा नहीं करता, ऐसी वार्ताएं महज औपचारिक साबित होती रहेंगी।

Friday, February 12, 2010

करीब आते भारत बांग्लादेश

खालिदा जिया के समय भारत-बांग्लादेश रिश्ते में जो ठंड आ चुकी थी वो शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद पिद्घलने लगी। दरअसल, खालिदा जिया की सरकार पर कट्टरपंथी गुटों का वर्चस्व था जो कभी नहीं चाहते थे कि भारत से संबंध सुधरें। लेकिन अवामी लीग
के आते ही रिश्तों की खटास मिठास में बदलने लगी। गतिरोध और विरोध का सिलसिला टूटा। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की तीन दिवसीय यात्रा से भारत-बांग्लादेश के रिश्तों में एक नये अध्याय की शुरुआत दिखाई पड़ी। भारत ने भी रेड कारपेट से जिस तरह शेख हसीना का स्वागत किया है उससे यह बात स्पष्ट होती है कि भारत का भरोसा बांग्लादेश पर बढ़ा है। बांग्लादेश में हुई सेना बगावत के बाद यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि अगर ऐसे हालात भविष्य में बने रहे तो बांग्लादेश पर राजनीतिक संकट गहरा सकता है। इसको अवामी लीग ने अच्छी तरह महसूस किया। यही वजह रही कि शेख हसीना ने पदभार संभालते ही भारत को यह भरोसा दिलाया कि बांग्लादेश को आतंकवादियों की पनाहगाह नहीं बनने दिया जाएगा। भारत आगमन पर उन्होंने भारत को यह यकीन दिलाया कि भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने में वह अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देंगी। पिछले साल कई उल्फा नेताओं को गिरफ्तार कर उन्होंने यह साबित भी किया।
भारत यात्रा पर आयी शेख हसीना ने जिन महत्वपूर्ण करारों पर समझौते किए। उनमे आपराधिक मामलों में कानूनी सहायता, अंतरराष्ट्रीय और आतंकवाद संगठित अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी रोकने को लेकर हुआ। तीसरा करार कैदियों की अदला बदली के बारे में हुआ। इस करार ने भारत और बांग्लादेश के बीच प्रत्यर्पण संधि की भूमिका तैयार कर दी है। दूसरी तरफ भारत ने बांग्लादेश को एक अरब अमेरिकी डॉलर की वित्तीय सहायता देने की द्घोषणा की है जो किसी भी देश को एक बार में दी जाने वाली सबसे बड़ी कर्ज-राशि है। भारत ने बांग्लादेश को अपने यहां से नेपाल और भूटान तक रेल और सड़क संपर्क की सुविधा दी है। इन उपायों से दोनों मुल्कों के बीच आवाजाही के नए रास्ते खुलेंगे। भारत ने बांग्लादेश से अनेक नई वस्तुओं के शुल्क मुक्त आयात के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि भविष्य में इस नकारात्मक सूची को छोटा किया जा सकता है। व्यापारिक मोर्चे पर यह भारत के लिए नई संभावनाएं खोल सकता है। भारत आने वाले समय में चटगांव के बंदरगाह का उपयोग कर सकेगा, जिससे समुद्री रास्तों से व्यापार बढ़ाने में आसानी होगी। लेकिन नदियों के पानी के बंटवारे और तीन बीद्घा गलियारे के सीमांकन जैसे कुछ पुराने मुद्दों पर मतभेद जस के तस बना रहा।
बेगम शेख हसीना को राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने इंदिरा गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया। इस मौके पर शेख हसीना भावुक दिखाई पड़ीं। उन्होंने इंदिरा गांधी को याद करते हुए उन्हें अपनी मां जैसा कहा। इंदिरा गांधी से अपनी मुलाकातों को याद कर वह भावुक हो उठीं। उन्होंने अपने पिता शेख मुजीबुर रहमान की हत्या का जिक्र करते हुए कहा उस कठिन समय में श्रीमती गांधी ने उन्हें पनाह दी। वह १९७६ से १९८१ तक दिल्ली में रहीं। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री ने भारत के प्रति जैसी कृतज्ञता दिखाई, वो दोतरफा रिश्तों के बीच बेहतर संभावना का परिचायक है। यही कारण है कि इन दोनों देशों के बीच हुए इन समझौतों को जानकार रूटीन कूटनीति से आगे आपसी सद्भाव और शांति के क्षेत्र में एक बड़ी पहल मान रहे हैं। भारत दौरे पर आयी शेख हसीना ने कहा कि वो भारत के साथ बेहतर रिश्ते चाहती हैं। ताकि दक्षिण एशिया में स्थायी रूप से शांति हो सके। उन्होंने कहा भारत से हमारा रिश्ता पुराना है। मुक्ति आंदोलन में भारत ने हमारे लोगों की न केवल मदद की बल्कि हमारे संद्घर्ष में भी साथ दिया। उन्होंने कहा कि हम दोस्ती और सहयोग चाहते हैं ताकि अपने सबसे बड़े दुश्मन गरीबी का सामना कर सकें। हम गरीबी मुक्त, शांतिपूर्ण दक्षिण एशिया की चाहत रखते हैं। मेरी यात्रा का मुख्य उद्देश्य लोगों की भलाई है। गौरतलब है कि बांग्लादेश के निर्माण के मात्र चार वर्ष बाद ही १९७५ में शेख मुजीबुर रहमान की हत्या कर दी गयी थी। तत्कालीन सैन्य विद्रोह के कारण शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा। निर्वासित जीवन उन्होंने भारत में ही बिताया। अवामी लीग दुबारा १९९६ में सत्ता में आयी लेकिन यह सरकार अल्प मत की थी। इस बार जब बांग्लादेश की अवाम ने अवामी लीग को पूर्ण बहुमत दिया तो शेख हसीना भ्ाी भारत के साथ अपने पुराने संबंधों को सुधारने के प्रयास में लग गयीं। भारत के पूर्वोत्तर में चल रहे आतंकवाद को खत्म करने की दिशा में बांग्लादेश नए संकेत पहले ही दे चुका है। जानकारों की मानें तो दक्षिण एशिया में शांति के लिए भारत और बांग्लादेश के अच्छे रिश्ते बड़ा रोल निभा सकते हैं।

राज को राज

श्रीलंका में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम
चौंकाने वाला नहीं रहा। पहले से यह माना जा रहा था कि इस चुनाव में महिंदा राजपक्षे जीतेंगे और हुआ भी कुछ ऐसा ही। राष्ट्रपति पद के लिए करीब २२ उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे लेकिन मुख्य मुकाबला राजपक्षे और जनरल फोनसेका के बीच ही था। वैसे चुनाव का मुख्य मुद्दा लिट्टे के साथ चल रहे २६ साल पुराने गृहयुद्ध को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभाने का ही रहा। ऐसे में आम लोगों की अपेक्षाएं राजपक्षे से ज्यादा थीं। यही कारण उनकी जीत का भी बना। गृहयुद्ध की विभीषिका झेल चुके श्रीलंका में स्थायी शांति के लिए लोगों ने राजपक्षे के पक्ष में मतदान किया। लेकिन इन सब के बीच नई सरकार के सामने अभी कई चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। मसलन सैन्यवाद, मानवाधिकारों का उल्लंद्घन, प्रेस की आजादी, अंधराष्ट्रवाद तथा तमिल अल्पसंख्यकों के अधिकार।जिस पैमाने पर राजपक्षे को जीत हासिल हासिल हुई है उससे एक बात स्पष्ट है कि अब श्रीलंका में लंबे समय तक राजनीतिक स्थायित्व बना रहेगा। चुनावों में मिली जीत से जानकारों का मानना है कि वहां के हालात में और सुधार आयेगा। ऐसे में राजपक्षे को श्रीलंका में व्याप्त भय के माहौल को खत्म करने के लिए एक अवसर प्राप्त हो गया है। लंबे समय तक चली तमिल और सिंहली खूनी जंग ने श्रीलंका की राजनीति और आर्थिक स्थिति की चूलें हिला दी थीं। देश की अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने के लिए राजपक्षे को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि श्रीलंका अपने हिंसात्मक इतिहास से उबरने में सफल रहेगा। साथ ही ढाई लाख तमिलों को पुनर्वास कैंपों से बाहर निकालकर वापस मुख्यधारा में लाने में सक्षम होगा।
इस बीच श्रीलंका के रक्षा सचिव का कहना है कि सरकार राष्ट्रपति चुनाव में हार चुके जनरल सनथ फोनसेका के खिलाफ कार्रवाई करने पर विचार कर रही है। वैसे श्रीलंका में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की चुनाव परिणामों के बाद हत्या का पुराना इतिहास रहा है। इसे देखते हुए सेना कमांडर फोनसेका ने अपनी जान के खतरे की आशंका जताई है। सैनिकों से द्घिरे एक होटल में संवाददाताओं को संबोधित करते हुए जनरल फोनसेना ने कहा कि चुनाव में धांधली हुई है और सरकार उन्हें जान से मरवाने की कोशिश कर रही है। इस बीच सरकार का कहना है कि जनरल होटल छोड़ने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन उन्हें उन आरोपों के नतीजों का सामना करना होगा जो उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान लगाए थे। चुनाव में जनरल को पूर्व राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंग समेत कुछ विपक्षी दलों का समर्थन प्राप्त था।
दरअसल राष्ट्रपति राजपक्षे को जनरल फोनसेका की तरफ से दी गई चुनौती कोई सामान्य चुनौती नहीं थी। यह सेना के शीर्ष नेतृत्व का नागरिकों के शीर्ष नेतृत्व के साथ टकराव था। अगर यह टकराव आगे भी बना रहा तो श्रीलंका की शांति को नया खतरा हो सकता है। लेकिन जानकारों के मुताबिक यह स्थिति किसी सैन्य बगावत की तरफ जाएगी ऐसा नहीं लगता है। लेकिन राजपक्षे की छवि को देखकर ऐसा मालूम पड़ता है कि टकराव का खतरा अभी टला नहीं है। इसलिए सवाल महज चुनाव जीतने का ही नहीं है। सवाल लोकतंत्र का है, श्रीलंका के अस्तित्व और आगे की रणनीति, कूटनीति का है। गृहयुद्ध खत्म होने के बाद भी श्रीलंका सामान्य नहीं हुआ है। असली चुनौतियां अभी बाकी हैं। ऐसे में भारत सहित पूरी दुनिया की निगाहें श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति राजपक्षे पर लगी हैं।जहां तक भारत-श्रीलंका के संबंधों का सवाल है तो कुल मिलाकर अभी तक यह संबंध संतोषप्रद ही रहा है। लेकिन लिट्टे के खात्मे के लिए जिस प्रकार श्रीलंका ने चीन और पाकिस्तान की मदद ली वह भारत के हित में नहीं जाता। लिट्टे के खिलाफ अभियान के दौरान चीन और पाकिस्तान की सैन्य भूमिका श्रीलंका में बढ़ी है। जो भारत के लिए चिंता का विषय है। श्रीलंका में होने वाले परिवर्तनों का भारत पर भी असर पड़ता है। गृहयुद्ध के कारण चरमराई श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में भारत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसलिए व्यापार के मामले में भारत को श्रीलंका के साथ अपने रिश्ते मजबूत करने होंगे। श्रीलंका अभी भी भारत पर काफी कुछ निर्भर करता है। ऐसे में उसे आर्थिक और राजनैतिक पहल के माध्यम से प्रभावित किया जा सकता है।

Thursday, January 7, 2010

क्या तेलंगाना बन सकेगा

चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन से द्घबराकर केन्द्र सरकार ने पृथक तेलंगाना राज्य देने की द्घोषणा तो कर दी, लेकिन सरकार की यह द्घोषणा आग में द्घी डालने जैसी रही। जहां एक ओर बहुत से कांग्रेसी विधायक और सांसद सरकार के इस फैसले से असंतुष्ट दिखे वहीं दूसरी ओर विदर्भ, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड, गोरखालैंड, बोडोलैंड, मिथिलांचल सहित अन्य कई छोटे राज्यों के गठन की मांग को बल मिल गया है। वैसे आंध्र प्रदेश का विभाजन कर तेलंगाना का गठन भी आसान नहीं होगा। सबसे अहम सवाल हैदराबाद को लेकर उठ रहा है। राजधानी के प्रश्न पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। बंटवारे की लहर आंध्र प्रदेश तक ही समिति रह जाएगी ऐसा मुमकिन नहीं है। पूरे भारतवर्ष में दर्जन भर अलग राज्य बनाने के लिए आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। दरअसल इसमें कोई शक नहीं कि यदि राव को कुछ हो जाता तो इस बार १९५२ के श्रीरामुलु कांड से भी भयंकर चक्रवात आंध्र को द्घेर लेता।
वर्तमान में जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जा रहा है, उसमें आंध्र प्रदेश के २३ जिलों में से १० जिले आते हैं। मूल रूप से यह निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा है। पिछले दिनों जिस तरह आंध्र प्रदेश का राजनीतिक तापमान दिल्ली के गलियारों में महसूस किया गया उसकी पृष्ठभूमि काफी पुरानी है। दरअसल यह आंदोलन छह दशक पुराना है। चालीस के दशक में कामरेड वासुपुन्यया की अगुवाई में कम्युनिस्टों ने पृथक तेलंगाना की मुहिम की शुरुआत की थी। उस समय इसका उद्देश्य भूमिहीनों को भूपति बनाना था। बाद में इसकी कमान नक्सलवादियों के हाथों में आ गई। शुरूआत में तेलंगाना को लेकर छात्रों ने आंदोलन शुरू किया था लेकिन इसमें लोगों की भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक बना दिया। आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग और लाठी चार्ज में साढ़े तीन सौ से अधिक छात्र मारे गए थे। एम चेन्ना रेड्डी ने 'जय तेलंगाना' का नारा दिया था।
दरअसल कांग्रेस ने कभी नहीं सोचा था कि तेलंगाना का मुद्दा कभी इतना गम्भीर हो जाएगा। कांग्रेस अगर अपने २००४ के वादे के मुताबिक अलग तेलंगाना राज्य का निर्माण करवा देती तो शेष प्रांतों में अलगाव की आग इतनी तेजी से नहीं भड़कती। आंध्र प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत ने इस मुद्दे की हवा निकाल दी थी। आंध्र में मजबूत रेड्डी की सरकार ने अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाकर 'तेलंगाना राष्ट्र समिति' को राजनीतिक हाशिए पर सरका दिया। लेकिन चंद्रशेखर राव के अनशन ने उन्हें महानायक बना दिया। आंध्र की वर्तमान स्थिति ने गृहमंत्री चिदंबरम की द्घोषणा को अधर में लटका दिया है। यदि कांग्रेस का नेतृत्व अपने विधायकों और सांसदों के साथ जोर जबर्दस्ती करता है तो कांग्रेस के सामने नयी चुनौतियां आ सकती हैं। हालांकि तेलंगाना को स्वीकार करने में गलत कुछ नहीं है लेकिन जिन परिस्थितियों में इसे स्वीकार किया गया उस पर जरूर जानकारों को आपत्ति है। जानकारों का कहना है कि ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सरकार ने द्घुटने टेक दिये हैं।
अलग तेलंगाना पर आंध्र प्रदेश में सड़क से लेकर सदन तक द्घमासान मचा है। आंध्र प्रदेश में जहां जनजीवन बेहाल रहा, वहीं विधायकों के इस्तीफों की बाढ़ आ गयी है। १२९ विधायकों ने इस्तीफे सौंप दिए हैं। इनमें ७० कांग्रेस, ३८ तदेपा और १५ प्रजा राज्यम पार्टी के विधायक हैं। इस बीच विधानसभा अध्यक्ष एन कुमार रेड्‌डी ने विधायकों के इस्तीफे से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर सभी पार्टियों से राय मांगी है कि सदन का कामकाज जारी रखा जाए या नहीं। इस बीच रेड्डी के बेटे जगनमोहन अपने पिता का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं और अपने समर्थकों से कह रहे हैं कि तेलंगाना व्यवहार्य नहीं है। इस सब के बीच सबसे बड़ा सवाल हैदराबाद को लेकर उठ रहा है। यह शहर किसके साथ जाएगा। सबकी आंखें हैदराबाद की समृद्धि पर टिकी हुई हैं। इसकी वजह से भी तेलंगाना के गठन में देरी हो सकती है। अगर यह शहर तेलंगाना को मिलता है, तो आंध्र प्रदेश पहचानने योग्य नहीं रह जाएगा। सवाल उठता है कि अचानक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चन्द्रशेखर राव की मांग के आगे मजबूर क्यों होना पड़ा।
राजनीतिक प्रेक्षकों की राय में राव को पीछे आंध्र के रेड्डी समुदाय की ताकत थी। वाईएस रेड्डी की मृत्यु के बाद रेड्डी को मुख्यमंत्री न बनाकर कांग्रेस ने रेड्डियों को नाराज कर दिया। इसलिए रेड्डियों ने कांग्रेस को इस तरह सबक सीखाया है।उधर तेलंगाना को पृथक राज्य बनाए जाने की द्घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी छोटे राज्यों के गठन की वकालत की है। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उत्तर प्रदेश को विभाजित कर बुंदेलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश (हरित प्रदेश) को अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए कहा है कि बसपा छोटे राज्यों के पक्ष में है। तेलंगाना के बाद पूर्वोत्तर में भी कई राज्यों के गठन की मांग बुलंद हो गई है। केन्द्र में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी 'बोडोलैण्ड पीपुल्स फ्रंट' ने फिर से बोडोलैंड बनाने की मुखर मांग की है। ऑल असम दिमासा स्टूडेंट्स यूनियन और दिमासा पीपुल्स काउंसिल ने दिमासा जनजातियों को लेकर अलग दिमाराजी राज्य के गठन की मांग उठाई है। इस बीच गोरखालैंड के गठन की मांग भी जोर पकड़ती जा रही है।
वर्ष १९९२ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद वाकई देश में काफी तेजी से विकास हुआ। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी दिखा। इसे हम विगत दो दशकों में पैदा हुई आर्थिक विकास की असमानता के खिलाफ सब्र के बांध का टूटना मान सकते हैं। हालांकि भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग नेहरू युग में उठी थी। दरअसल छोटे राज्यों का निर्माण क्षेत्रीय दलों के हित ज्यादा साधता है। यही वजह है कि क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए जनता को उकसा रहे हैं। इसलिए यह अति आवश्यक है कि छोटे राज्यों की उभरती मांगों पर एक दीर्द्घकालिक योजना के साथ कार्य किया जाए। इस विचार की भी हवा निकल चुकी है कि छोटे राज्य प्रशासन के लिहाज से बेहतर साबित होते हैं। झारखंड उदाहरण के रूप में सामने है।

क्या यही इंसाफ है बस छह माह

आखिरकार १९ सालों के बाद रूचिका को इंसाफ मिला। लेकिन देरी से मिलने वाले इस इंसाफ पर एक लंबी बहस ने जन्म ले लिया है, आखिर एक संवेदनशील मामले में इतनी देर क्यों हुई। ऐसे कई सामाजिक संगठन,बुद्धिजीवी, पत्रकारिता जगत के लोग और अन्य वर्ग मुखर होकर सामने आने लगे हैं। रूचिका एक मात्र ऐसी पीड़िता नहीं हैं देश भर में, न जाने कितनी रूचिकाएं हैं जो किसी न किसी रूप में प्रताड़ित होती हैं। राठौर को हुई छह महीने की सजा काफी है या कम, इस पर भी बहस छिड़ गयी है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कानून के जानकार कानून का उपयोग अपने हित में करने से कभी नहीं चूकते। राठौर के मामले में राजनीतिक पार्टियां भी अपने को पाक साफ दामन नहीं कह सकतीं। राजनीतिक दल भी उतने ही दोषी हैं जितने कि राठौर।
चंडीगढ़ की सीबीआई की विशेष अदालत ने हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक (डी जी पी) एसपीएस राठौर को १४ वर्षीय टेनिस खिलाड़ी रूचिका से छेड़छाड़ का दोषी करार देते हुए उन्हें सजा सुनाई। अदालत ने राठौर को छह महीने की कैद और एक हजार रूपये जुर्माना भरने का आदेश दिया। जुर्माना न अदा करने की हालत में राठौर को एक माह की सजा और हो सकती है।१४ वषीय किशोरी रूचिका गिराहोत्रा एक टेनिस खिलाड़ी थी। १२ अगस्त १९९० को वह राठौर के द्वारा छेड़छाड़ का शिकार हुई। राठौर उस समय हरियाणा में आई जी और हरियाणा टेनिस एसोशियेशन के अध्यक्ष थे। छेड़छाड़ के करीब तीन साल बाद रूचिका ने १९९३ में जहर पीकर आत्महत्या कर ली थी। रूचिका ने इस छेड़खानी की बात अपने पिता को नहीं बताई थी। लेकिन उसकी सहेली ने राठौर द्वारा रूचिका के उत्पीड़न को देखा और पूरा मामला अपने परिवार वालों को बताया था। मधुप्रकाश १९९७ में इस मामले को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायलय में लेकर गई। उनकी अपील पर हाईकोर्ट ने यह मामला दर्ज किया था। १९९८ में यह पूरा मामला सीबीआई को सौंप दिया गया था।मुकदमें के दौरान बार-बार मजिस्ट्रेट बदले गए और गवाहों को प्रभावित करने की लगातार प्रयास भी किये गये। इस बीच राठौर हरियाणा के पुलिस महानिदेशक बन गए । वर्ष २००२ में राठौर डीजीपी के पद से सेवानिवृत हो गए। सितंबर २००२ में रूचिका के भाई ने भी आत्महत्या कर ली थी।
रूचिका की सहेली और इस द्घटना की एकमात्र गवाह अराधना गुप्ता इस मामले का फैसला सुनने के लिए आस्ट्रेलिया से अपने पति के साथ चंडीगढ़ आई थी। आराधना, रूचिका की सहयोगी टेनिस खिलाड़ी और पड़ोसी थी। इस द्घटना के वक्त वह मात्र १३ साल की थी। फैसला सुनाए जाते वक्त अदालत में राठौर और उनकी वकील पत्नी आभा राठौर भी उपस्थित थे। पुलिस की रिपोर्ट में बताया गया था कि प्रथम दृष्टया राठौर के खिलाफ मामला बनता है। मधु ने पत्रकारों से हुई बात चीत में बताया कि वह खुश है कि राठौर को छह महीने के कडे़ कारावास की सजा सुनाई गई है। लेकिन उन्हें इस बात का दुख भी है कि अदालत को मामले में फैसला सुनाने में इतना अधिक समय लगा।राठौर शायद ऐसे पहले पुलिस अधिकारी नहीं हैं जिन्हें सजा सुनाई गयी है। इससे पूर्व शिवानी भटनागर हत्याकांड में रविकांत शर्मा को अभियुक्त बनाया गया। पूर्व डीजीपी रमेश सहगल को रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इसके अलावा गैर कानूनी रूप से हिरासत में रखने के आरोप में आईपीएस अधिकारी अनिल डाबरा को कैद की सजा सुनाई गयी थी। एक नाबालिग को गैरकानूनी हिरासत में रखने के आरोप में एक अन्य आईपीएस अधिकारी एम . एस .अहलावत भी सुप्रीम कोर्ट से दण्डित हो चुके हैं। पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक के पीएस गिल पर भी एक आई ए एस महिला अधिकारी से छेड़छाड़ का आरोप लग चुका है।आनंद प्रकाश और उनके परिवार ने जो भी किया यकीनन वह काबिले तारीफ है। उन्होंने जो हिम्मत दिखाई उससे कई लोगों को हौसला मिलेगा। प्रकाश परिवार ने जो मिसाल कायम की है वह आने वाली नई नस्लों के

सिफर रहा कोपनहागन सम्मलेन

पहली बार ऐसा देखने को मिला जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विश्व भर के नेताओं ने बारह दिनों तक माथापच्ची की, एक मंच पर दिखे, रूठने मनाने का सिलसिला चला,आखिरी वक्त तक संस्पेंस बना रहा। दो डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों में कटौती की बात कही गयी पर किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा?
विकसित देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जिस तरह पीछे हटे उससे उनकी नीयत पर शक होना आवश्यक है। किसी सम्मेलन में सहमति पर पहुंचने के लिए इतनी खींचातानी कभी नहीं हुई। अंततः कोपेनहेगन का नतीजा सिफर रहा। इस सम्मेलन की कोई उपलब्धि रही हो या नहीं पर एक बात जरूर सामने आई वह यह कि दुनिया भर के लोग इसे लेकर चिंतित जरूर दिखे। इसने एक अहसास जरूर पैदा किया कि पृथ्वी गंभीर संकट में हैं
बारह दिनों तक चले कोपेनहेगन सम्मेलन के अंतिम दिन तक गतिरोध बना रहा। थक हार कर अंततः वही समझौता पारित कर दिया गया जो अमेरिका ने भारत, चीन, ब्राजील सहित कुछ प्रमुख विकासशील देशों के साथ मिल कर तैयार किया था। २०२० तक ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रखने पर सहमति बनी है लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट समय सीमा या कानूनी बंदिश नहीं है। समझौते में कार्बन उत्सर्जन कम करने के संबंध में कोई बाध्यकारी लक्ष्य द्घोषित करने का जिक्र नहीं किया गया है। विकसित देश अपने रवैये पर अड़े रहे। कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन पर डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में हुए शिखर सम्मेलन में कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो पाने की वजह से २०१० में मेक्सिको में होने वाले शिखर सम्मेलन पर पूरी दुनिया की नजर लग गयी है। गौरतलब बात यह है कि कोपेनहेगन समझौता में धरती के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी नहीं होने देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन यह तय नहीं हो पाया की इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि यह समझौता भविष्य में क्या गुल खिलाएगा। लेकिन इसे एक शुरुआत जरूर कहा जा सकता है। इस समझौते को सम्मेलन में सर्व सहमति से स्वीकार नहीं किया गया। लेकिन इस पर आगे विचार करने का मार्ग जरूर प्रशस्त हुआ है। एक चीज और उभरकर सामने आयी वह यह कि दुनिया के सभी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश कम से कम एक मंच पर जरूर इकट्ठा हुए। हालांकि अमेरिका और विकासशील देशों के बीच समझौते में किसी तरह का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है। सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधियों ने अमेरिका और कुछ प्रमुख विकासशील देशों के बीच हुए समझौते को स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। लेकिन उन्होंने इस पर विचार व्यक्त करने पर सहमति जताई। इन देशों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य काफी कम है। पर्यावरण से जुड़े लोग इस समझौते को नाकाफी और दिशा विहिन समझौता मान रहे हैं।
कोपेनहेगन में विकासशील एवं निर्धन देश यह चाह रहे थे कि विकसित देश कम से कम चालीस प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर सहमत हो जाएं, लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने खुद कार्बन उत्सर्जन में तीन-चार प्रतिशत कमी लाने की हामी भरी और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों को अंतरराष्ट्रीय निगरानी वाले दायरे में लाने की कोशिश की। इस तरह उसने अपनी जिम्मेदारियों से साफ मुंह-मोड़ लिया। भले ही अमेरिका यह कहे कि वह एक संतोषजनक समाधान पर पहुंच चुका है लेकिन जी-७७ विकासशील देशों एवं अन्य निर्धन राष्ट्रों ने जिस तरह इस समझौता को खारिज कर दिया उससे यह समझा जा सकता है कि कोपेनहेगन में कुछ हाथ नहीं लगा। विकसित देश पर्यावरण में आ रहे बदलाव को लेकर चिंता जरूर जता रहे हैं लेकिन बाकी दुनिया की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वे सिर्फ चिंता जता रहे हैं। विकसित देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जिस तरह पीछे हटे उससे उनकी प्रतिबद्धता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। १९९० से ही अमेरिका पर्यावरण संरक्षण के उपायों से खुद को अलग करता चला आ रहा है। बुश प्रशासन की तरह ओबामा ने भी क्वोटो प्रोटोकॉल से किनारा करने में अपना हित समझा। शायद यही वजह है कि कोपेनहेगन में कोई सर्वमान्य समझौता नहीं हो सका।
पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता दिखाने वाले यूरोपियन देशों ने १९९० के आधार पर २०२० तक ३० प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती की पेशकश की बशर्ते अमेरिका भी उनका साथ दे। विकसित देश यह तो मान रहे हैं कि यदि भारत, चीन, ब्राजील सरीखे देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं की तो २०२० तक पर्यावरण का बेहद बुरा हाल हो सकता है, लेकिन वे इन देशों की चिंताओं के अनुरूप कोई कदम नहीं उठाना चाहते। जहां विकसित देशों ने भारत,चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को अंतरराष्ट्रीय निगरानी वाले समझौते में बांधने की कोशिश की वहीं इन चार देशों ने विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन में प्रभावी कटौती करने का दबाव बनाया है। दोनों पक्ष अपने-अपने हितों को साध रहे हैं इसलिए किसी सहमति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही वजह है कि कोपेनहेगन में आखिरी क्षणों तक गहमागहमी और भ्रम का माहौल बना रहा। शायद यह पहला अवसर है जब किसी सम्मेलन में सहमति पर पहुंचने के लिए इतनी खींचतान हुई और फिर भी नतीजा सिफर रहा! महत्वपूर्ण बात यह है कि जब क्वोटो प्रोटाकॉल की लिखित शर्तों को बड़े देशों ने मानने से इनकार कर दिया, तो कुछ देशों की सहमति पर भला किस तरह अमल होगा। उससे भी बड़ी चिंता यह है कि पृथ्वी के गरमाते चले जाने का कोई समाधान नहीं है। अगर दुनिया को वाकई बचाना है तो ग्रीन हाउस गैसों में २५ से ४० फीसदी तक कटौती करनी पड़ेगी। इस सम्मेलन का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि दुनिया भर के लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी। इसी झंझावत के बीच भविष्य में कोई समाधान सामने जरूर आएगा।

इक नज़र में २००९

'विश्व राजनीति साल भर अमेरिका, अफगानिस्तान, ईरान, चीन के ईद-गिर्द द्घूमती रही। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को शांति का नोबल पुरस्कार मिलना शांति के साथ-साथ नोबल के चयन प्रक्रिया पर सवाल खड़ा कर गया। कोपनहेगन समझौता के जिस तरह के नतीजे सामने आए उससे साफ हो गया कि शाक्तिशाली और अमीर देशों की मनमानी कम होने वाली नहीं है
वर्ष २००९ में जिन मुद्दों ने सुर्खियां बटोरीं उनमें ओबामा को नोबेल पुरस्कार का मिलना, भारत-अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकियां, ईरान में अहमदीनेजाद की वापसी, लिट्टे सरगना प्रभाकरण का अंत, म्यांमार का परमाणु कार्यक्रम,
अफगानिस्तान में करजई का दुबारा राष्ट्रपति बनना तथा नेपाल में अस्थिरता शामिल हैं। जर्मनी में मॉकेल एंजेल की वापसी, जापान में पचास वर्षों के बाद सत्ता परिवर्तन, भारत-चीन की बीच बढ़ती कटुता, पाकिस्तान की अस्थिरता, तालिबान नेता बैतुल्लाह मेहसूद का मारा जाना तथा ईरान का परमाणु कार्यक्रम भी चर्चा में रहा। इटली के प्रधानमंत्री का विवादों में रहना और साल के अंत में उन पर हुए हमले के साथ-साथ टाईगर वुड्स के प्रेम प्रसंगों का चर्चा में आना और पॉप सिंगर माइकल जैक्सन की असमय मृत्यु के साथ ही वर्ष का समापन कोपेनहेगन की असफलता के साथ हुआ।
बीते साल की उपलब्यिों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिकी यात्रा को भला कैसे भुला जा सकता है। ओबामा प्रशासन की गर्मजोशी देखने लायक थी। २१वीं सदी में वैश्विक चुनौतियों से निपटने और अपने अवाम की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिहाज से भारत-अमेरिकी साझीदारी महत्वपूर्ण रही। इस यात्रा के दौरान छह समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये। र्ष की खास द्घटनाओं में श्रीलंका में लिट्टे और प्रभाकरन का अंत प्रमुख रहा। श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे के अंतिम ठिकाने मुल्लईतिब पर कब्जा कर लिया। लिट्टे की युद्ध विराम की द्घोषणा और दुनिया भर से तमाम विरोध के बावजूद श्रीलंका ने लिट्टे को नेस्तनाबूद कर देने का अभियान जारी रहा। श्रीलंका सरकार ने आर- पार की लड़ाई का मन बना लिया। लिट्टे और सेना के बीच निर्णायक कही जाने वाली इस जंग में हजारों निर्दोष तमिल नागरिक मारे गये, लाखों की तादाद में शरणार्थी बने। आखिरकार लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण को श्रीलंकाई सेना ने मार गिराया। पिछले छब्बीस सालों में दक्षिण एशिया की यह सबसे बड़ी कार्रवाई रही। द्घमासान लड़ाई में लिट्टे के कई प्रमुख कमांडरों समेत ढाई सौ लड़ाके मारे गए। मरने वालों में प्रभाकरण, उसका बेटा चार्ल्स एंथनी, प्रभाकरण के शीर्ष सहयोगी खुफिया इकाई के प्रमुख पोट्ट अम्मन और नौ सेना प्रमुख सूसई शामिल रहे।
पिछले साल का सबसे बड़ा आश्चर्य रहा ओबामा को नोबेल पुरस्कार मिलना। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नाम नोबेल पुरस्कार चौकाने वाला रहा। जिसे लेकर इस पुरस्कार पर सवाल भी उठे। स्वयं ओबामा ने अपने को इस पुरस्कार के लायक नहीं माना। लगभग आधी सदी तक चले शीत युद्ध के बाद विद्घटित रूस के साथ अमेरिकी रिश्तों की बर्फ पिद्घलती दिखी। बराक ओबामा रूस से बेहतर संबंध बनाने के इच्छुक दिखे। कई महत्वपूर्ण समझौते के बावजूद ओबामा की रूस में मौजूदगी मौसम के तापमान के साथ ठंडी दिखी। पिछले बीस सालों से रिश्ते पर जमीं बर्फ इतनी सख्त हो चुकी थी जिसे हटाना ओबामा के लिए काफी मुश्किल रहा। वर्ष २००९ की शुरूआत बांग्लादेश के लिए अच्छी रही। सात साल बाद हुए आम चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज करने वाली शेख हसीना प्रधानमंत्री बनी। लेकिन साल के दुसरे महीने में २५ फरवरी को बीडीआर जवानों ने विद्रोह कर दिया। लगभग ३३ द्घंटे तक चले इस विद्रोह में सेना के अधिकारियों समेत करीब ७४ लोग मारे गए। इसी साल जून में बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शेख मुजीबुरेरहमान ने ही बांग्लादेश की आजादी की द्घोषणा की थी इसलिए उन्हें राष्ट्रपिता माना जाना चाहिए। साल के मध्य में समुद्री तूफान 'आइला' ने बांग्लादेश में भयंकर तबाही मचाई।
पड़ोसी देश नेपाल में भी प्याले में तूफान रहा। प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' के इस्तीफे के बाद नेपाल में तूफान सा आ गया। ढाई सौ वर्षों के बाद नेपाल की राजशाही का अवसान हुआ। देश में लोकतंत्र बहाली की उम्मीदें जगी लेकिन बाद में वह भी धूमिल होने लगीं। सेनाध्यक्ष रुकमांगद कटवाल को बर्खास्त करने के प्रचंड के फैसले ने तूफान ला दिया। सहयोगी दलों के समर्थन वापस लेने के बाद सरकार अल्पमत में आ गयी। अंततः प्रचंड को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। आतंक का पर्याय बन चुके अफगानिस्तान में २० अगस्त को चुनाव संपन्न हुए। भय, हिंसा और संगीन के साये में लोगों ने मतदान किया। कई देशों के पर्यवेक्षक वहां मौजूद रहे। सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए। लेकिन चुनाव परिणाम किसी के पक्ष में नहीं आया। हमीद करजई के निकटतम प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला-अब्दुल्ला ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया। आखिरकार फिर से मतदान हुआ और करजई को दूसरे कार्यकाल के लिए अफगानिस्तान का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया।
पड़ोसी देश म्यांमार में लगभग पांच दशकों से लोकतंत्र के आंदोलन को पैरों तले रौंदने वाली सैन्य सरकार की तानाशाही चरम पर रही। पिछले तेरह सालों से अपने ही द्घर में नजरबंद लोकतंत्र समर्थक नेता आंग सान सू की इस वर्ष भी हिरासत में रहीं। जनाल थानश्वे की अगुवाई में निरंकुश सैन्य सरकार ने सूकी की रिहाई के लिए दुनिया भर से उठी आवाजों को एक बार फिर दरकिनार कर दिया। १९९० में हुए आम चुनाव में सू की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को मिली भारी सफलता के बाद उन्हें निर्वाचित प्रधानमंत्री द्घोषित किया गया था लेकिन सैनिक तानाशाही ने सू की जीत को मानने से इनकार कर दिया और सत्ता हस्तांतरण से मना कर दिया। म्यांमार की गोपनीय परमाणु गतिविधियों ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। म्यांमार के इस कदम से दक्षिण एशिया की सुरक्षा को गहरा धक्का लगा।
ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद अमेरिकी सरकार की आंखों की किरकिरी बने रहे। अमेरिका अहमदीनेजाद की जीत से बौखला गया। तमाम विरोधों के बावजूद आखिरकार ५ अगस्त को ईरान के राष्ट्रपति पद की दूसरी बार अहमदीनेजाद ने शपथ ली। अहमदीनेजाद की भारी जीत के बाद चुनाव हारे मीर हुसैन मुसवी के समर्थकों ने चुनाव में गड़बड़ी का आरोप लगाते हुए विरोध प्रदर्शन किया। दुनिया के सामने इसे ईरान पर मंडराता संकट बताया गया। दरअसल यह ईरान का आंतरिक संकट नहीं, बल्कि अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा दिखाया गया संकट था। अहमदीनेजाद की जीत से अमेरिका के मामले पर पसीना आ गया। वर्ष २००९ में नस्लवाद का मुद्दा छाया रहा। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों और भारतीय मूल के लोगों पर हमले जारी रहे। नस्लवाद के आरोपों को लेकर हो हल्ला मचता रहा। इन द्घटनाओं के बाद ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई कर रहे भारतीयों छात्रों के बीच दशहत का माहौल रहा। भारतीय अधिकारियों ने ऑस्ट्रेलिया सरकार को अपनी चिंता से अवगत कराया। ऑस्ट्रेलिया में नस्लीय हमलों के विरोध में हजारों की संख्या में भारीतय छात्र सड़कों पर उतरे। लगातार हो रहे हमलों से नेता, अभिनेता दोनों नाराज दिखे। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी से मिलने वाली डॉक्टरेट की मानक उपाधि लेने से इंकार कर दिया। ऑस्ट्रेलिया में इस तरह की सैकड़ों द्घटनाएं द्घटीं।
वर्ष २००९ में जापान के चुनाव सम्पन्न हुए। जापान पर लगातार पचपन वर्ष से सत्ता पर काबिज लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को जनता ने नकार दिया। विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को नयी बागडोर संभालने को मिली। हातोयामा ने इसे सत्ता के लिए मतदान करार दिया। इस चुनाव में सत्तारूढ़ दल के कई बड़े नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। हातोयामा, अपने दादा इशिरो हातोयान के बाद अपने परिवार के दूसरे सदस्य हैं, जिन्होंने जापान के प्रधानमंत्री का पद संभाला।बीते वर्ष की प्रमुख द्घटनाओं में अमेरिका के अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा का काहिरा संबोधन लोकप्रिय हुआ। उन्होंने अमेरिका और इस्लाम के बीच मतभेद मिटाने का आह्‌वान किया। अपने भाषण में ओबामा ने अमेरिका के प्रति मुस्लिम देशों की नाराजगी को दूर करने की हर संभव कोशिश की। उन्होंने मुस्लिम देशों की दुखती रगों को छूने की कोशिश की। अफगानिस्तान और इराक में फैला अमेरिका प्रशासन मुसलमानों के प्रति अपनी सदाशयता का प्रयास करता दिखा। अमेरिका को ऐसा प्रतीत होने लगा कि हर समस्या का समाधान जंग से नहीं हो सकता।
वर्ष २००९ में भारत चीन के रिश्ते में खटास देखने को मिली। चीनी सेना ने भारत के लददख क्षेत्र में द्घुसकर चीनी भाषा में लाल रंग से 'चीन' लिख दिया। चीन ने न सिर्फ भारतीय सीमा में द्घुसपैठ बढ़ाई, बल्कि पड़ोसी देशों में दखल बढ़ाकर भारत को द्घेरने की कोशिश की। उसका यह कदम विस्तारवादी रणनीति का रहा। चीन का सिनजियांग प्रांत अपनी सांप्रदायिक हिंसा के कारण चर्चा में रहा। पांच जुलाई २००९ को भड़के इस दंगे में दो सौ से ज्यादा लोग मारे गए और आठ सौ से अधिक द्घायल हुए। दुनिया ने सिनजियांग की वीभत्स तस्वीरों को देखा। अपराध जगत की महारानी जई कीपिंग की गिरफ्तारी भी चर्चा में रही। छियालिस वर्षीय यह महिला गैर कानूनी तरीके से जुए के अड्डे चलाने के लिए जानी जाती है। साथ ही लोगों को गैर कानूनी तरीके से बंधक बनाने, समुद्र तटीय नगरों में अवैध तरीकों से नशीले पदार्थ बेचने का आरोप उन पर लगा।
फरवरी २००८ में पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली बेनजीर भुट्टो के कत्ल की इबारत लिखने के बाद शुरू हुई। लेकिन वर्ष २००९ में पाकिस्तान में पूरी तरह अराजकता रही। सुधार की बात तो दूर पाकिस्तान आतंकवाद के दलदल में धंसता चला गया। देश में जातीय हिंसा, आतंकवाद और अर्थिक संकट कम होने का नाम नहीं ले रहा। पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में तालिबान और अलकायदा की चुनौती कमजोर होने की बजाय दिन-ब-दिन बढ़ती ही गयी। अमेरिकी हाथों से संचालित ऑपरेशन में कई मासूमों की जानें गयीं। पाकिस्तान का बलूचिस्तान दूसरा बांग्लादेश बनने की ओर अग्रसर दिखा। पाक सरकार ने अपनी नाकामी का ठीकरा भारत और अफगानिस्तान के सिर फोड़ने का प्रयास किया। ब्लूचिस्तान में पाकिस्तान विरोधी गतिविधियां वर्ष २००४ में और बढ़ी। गत वर्ष पाकिस्तान पर कई आतंकी हमले हुए।
तमाम आरोपों और विरोधों के बीच अफ्रीकी कांग्रेस के शीर्ष और बहुचर्चित नेता जैकब जुमा दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने में सफल रहे। जुमा को रोकने की तमाम कोशिशें नाकाम रहीं। पूर्व राष्ट्रपति थाबो म्बेकी की सारी चालें धरी की धरी रह गई। अपहरण, भ्रष्टाचार दलाली और बलात्कार जैसे आरोपों को खारिज कर जनता ने उन्हें अपने सर आंखों पर बिठाया। इसमें जैकब की जनता के बीच लोकप्रियता और गरीबों के मसीहा की छवि अहम रही। नौ मई २००९ को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाले जैकब जुमा दक्षिण अफ्रीका के बहुसंख्यक अश्वेत नागरिाकों के बीच काफी लोकप्रिय रहे। 'गरीबों का मसीहा और आमजन का प्रतिनिधि' का नारा देकर चुनाव जीतने वाले जैबक जुमा दक्षिण अफ्रीका की गरीब अश्वेत की उम्मीदों की किरण बने।वर्ष २००९ में जर्मनी में सम्पन्न हुए चुनाव में जनता ने एक बार फिर मॉकेल पर ही भरोसा किया। पूर्ववर्ती सतारूढ़ गठबंधन में शामिल रहे अपने प्रतिद्वंद्वी दल को धूल चटाते हुए लगातार दूसरी बार न सिर्फ शानदार जीत दर्ज की बल्कि अपने पसंदीदा दल के साथ गठबंधन बनाने में भी सफल रहीं।
विलासिता और भ्रष्टाचार के कारण चर्चा में रहे इटली के प्रधानमंत्री बर्लुस्कोनी साल के आखिर में जनता के कोप का शिकार बने। मिलान शहर में एक व्यक्ति ने उन पर हमला कर उन्हें द्घायल कर दिया। इससे पहले जॉर्ज बुश पर भी जूता फेंका गया था। २००९ में नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में चर्चा में रहा सीटीबीटी एक बार फिर बहस के केन्द्र में रहा। परमाणु बमों का आतंकवादियों के हाथ लगने का भय भी दुनिया को सताता रहा। अमेरिका सरकार में तकरीबन दस वर्षों के बाद 'सीटीबीटी' को वैश्विक बहस के केन्द्र में लाने की कवायद शुरू हुई।वैसे यह साल कुदरती कहर का भी रहा। दुनिया के कई देशों में बीते साल कुदरत ने अपना कहर बरपाया। इंडोनेशिया,वियतनाम फिलीपींस और इटली में भारी तबाही हुई। सैकड़ो लोगों की जानें गयी।