Saturday, September 26, 2009

सरहद पर उठती लपटे

भारत के पड़ोसी देशों में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। सीमाओं पर खतरों की लपटें हैं। चीन से लेकर नेपाल तक का रुख भारत के प्रति बदला हुआ है। पाकिस्तान तो भारत का द्घोषित रूप से शत्रु रहा है

ठीक ही कहा जाता है कि आप जीवन में कुछ भी चुन सकते हैं, पड़ोसी नहीं। पड़ोसियों के साथ जीना आपको सीखना पड़ता है। क्योंकि सहयोग भी उन्हीं से मिलता है और सबसे ज्यादा खतरा भी उन्हीं से होता है। भारत के तमाम पड़ोसी देशों में या तो अस्थिरता है या भारत विरोधी माहौल है। चीन की द्घुसपैठ लगातार जारी है और वो इन दिनों मीडिया के सुर्खियों में भी है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। जिसका अकसद भारत को अस्थिर करना है।

हाल ही में पाक के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी स्वीकार किया है कि अमेरिका से आतंकवाद से लड़ने की खातिर मिले फंड से उन्होंने सेना के लिए हथियार खरीदे। जाहिर है कि उन हथियारों का इस्तेमाल भारत से लड़ने में ही होता है। नेपाल में माओवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत के साथ उसका पुराना रिश्ता चरमराया है। श्रीलंका की मौजूदा सरकार का रुख भारत के लिए संतोषजनक नहीं है।

कुल मिलाकर पड़ोसी देशों में कुछ ऐसा माहौल महज एक इत्तेफाक नहीं है। हमारा पड़ोसी देश चीन बार-बार देश की सीमा का अतिक्रमण कर रहा है। भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक में फैसला किया गया था कि दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। लेकिन हकीकत यह है कि चीन तनाव पैदा करने में जुटा है। अमेरिका के साथ हमारी निकटता से चीन परेशान है। दक्षिण एशिया में भारत की मजबूत होती आर्थिक हैसियत भी उसे नहीं सुहा रही है। ऐसे में चीन थोड़े दिनों के अंतराल पर सीमा विवाद के मसले को हवा देने लगता है। न सिर्फ अरुणाचल प्रदेश के मसले पर उन्होंने एक बार फिर हमारे खिलाफ विषवमन किया है, बल्कि लद्दाख क्षेत्र में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।

मुंबई की २६/११ की द्घटना में पाकिस्तान बुरी तरह द्घिरा हुआ है। पाकिस्तान अब विश्व जनमत को जोर-शोर से यह विश्वास दिलाने में लगा है कि वह आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई कर रहा है। और इसलिए भारत अब उससे बातचीत के लिए तैयार हो गया है। जबकि वास्तविकता इससे परे है। भारत मुंबई हमले के बाद मारे गए आतंकवादियों के डीएनए सैंपल और अन्य जानकारियां पाकिस्तान को उपलब्ध करा चुका है। इसके बावजूद पाकिस्तान ने अभी तक इन आतंकवादियों की पहचान और पृष्ठभूमि की जांच नहीं की है।

साफ है पाकिस्तान इस मामले में गंभीर नहीं है। इस बीच एक ब्रिटिश अखबार ने खुलासा किया है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। कैंप की दीवारों पर भारत विरोधी नारे और लाल किले का नक्शा भी मौजूद है। भारत को अब अपनी रणनीति की व्यापक समीक्षा करनी चाहिए और कड़े तेवर अपनाकर पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए कि वह आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करे। यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके साथ वार्ता संभव नहीं है।

साथ ही भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने इस तथ्य को उजागर करना चाहिए कि पाकिस्तान के भारत विरोधी तत्व पश्चिमी सीमा पर अमेरिकी सैनिकों और अफगान सरकार के साथ हो रही लड़ाई में शामिल हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान पर कूटनीतिक के साथ ही आर्थिक दबाव बढ़ाना चाहिए ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के उधर मजबूर हो जाए।

बांग्लादेश में जब तक खालिदा जिया की सरकार रही, इस पड़ोसी देश से भारत के रिश्ते दोस्ताना तो क्या सामान्य भी नहीं रह पाए। लेकिन शेख हसीना के आते ही बर्फ पिद्घलने लगी। दोनों देशों के आपसी संबंधों में एक बड़ा पेंच आतंकवाद का रहा है। शेख हसीना ने भारत को विश्वास दिलाया है कि उनका देश आतंकी गतिविधियों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। मगर इस मामले में पाकिस्तान और बांग्लादेश की कहनी और करनी में अंतर है। भारत के उत्तर-पूर्व में आतंक का पर्याय बने उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड, कामनापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन, त्रिपुरा टाइगर फोर्स जैसे संगठनों के लोग वारदातों को अंजाम देकर बांग्लादेश की सीमा में भाग जाते रहे हैं।

बांग्लादेश सरकार इनके खिलाफ मुहिम चलाने में भारत के साथ सहयोग करने को तैयार है। प्रत्यर्पण संधि के लिए बांग्लादेश के राजी होने के संकेत हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच दोनों ओर बहने वाली नदियों के पानी के बटवारे और तीन बीद्घा जैसे मामलों में सीमा का विवाद भी रहा है। जहां तक नदी जल विवाद का संबंध है, दोनों देशों के बीच अरसे से यह एक नाजुक मसला रहा है। जरूरत इस बात की है कि आगे की वार्ताओं में अनावश्यक पेचीदगियों से बचा जाए।

नेपाल में गैर माओवादी लोकतांत्रिक सरकार का स्थायित्व भारत के लिए रणनीतिक आवश्यकता होनी चाहिए। दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपनी आंतरिक स्थितियों के प्रति इतने अधिक केन्द्रित रहे हैं कि नेपाल में अपने मित्रों की सहायता के लिए ध्यान देने का उन्होंने समय ही नहीं निकला। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने वहां की हर स्थिति का दोषारोपण भारत पर करना शुरू किया। नेपाल, पाकिस्तान और चीन ही नहीं बल्कि बांगलादेश भी जेहादियों भी अड्डा बनता जा रहा है। भारत में पाकिस्तानी षड्यंत्र से नकली करेंसी भी नेपाल मार्ग से ही भारत भेजी जाती है।

नेपाल में चीन के समर्थन से माओवादी लगातार भारत-विरोधी भावनाएं फैला रहे हैं। अतः इन परिस्थितियों में नेपाल की वर्तमान सरकार को स्थायित्व देते हुए माओवादियों को भविष्य में सर न उठाने देने की कोशिश करनी चाहिए। भारत विरोध का ही दूसरा पैतरा है, पशुपति नाथ मंदिर के पुजारियों का अपमान। उनका एक मात्र दोष यही है कि वे भारतीय हैं। माओवादी चीन की शह पर सैकड़ों वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को तोड़ना चाहते हैं। चीनी सरकार नेपाल फौज में भी द्घुसपैठ के रास्ते तलाश रही है।

नेपाल में जो हो रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन सकता है। अगर भारत अपने इस दायित्व से चूका तो आने वाला समय अस्थिर और अराजक हो सकता है। नेपाल का दोष भारत पर ही मढ़ा जाएगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा नेपाल को स्पष्ट करना होगा कि अगर उसने 'चाइना कार्ड' खेलने की कोशिश की तो भारत सबक सिखाने से नहीं चूकेगा।

श्रीलंका में भारत की भूमिका हमेशा से ही अहम मानी जाती रही है। गौरतलब है कि यहां के अल्पसंख्यक समुदाय तमिल को लेकर भारत सरकार हमेशा चिंतित रही है। भारत श्रीलंका के साथ मधुर संबंध चाहता है। लेकिन जानकारों का ऐसा मानना है कि प्रभाकरण के खिलाफ चलाये गये अभियान में चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका की सैन्य और आर्थिक मदद की। यकीनन ये भारत के लिए शुभ नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान और चीन की श्रीलंका से बढ़ती नजदीकी अरब सागर में भारत के लिए एक चुनौती साबित हो सकती है। ऐसे में भारत सरकार को श्रीलंका के साथ ठोस पहल करने की आवश्यकता है।

Thursday, September 17, 2009

चीन से चिंता

बतौर रक्षा मंत्री वाजपेयी शासन में जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को 'दुश्मन नम्बर वन' बताया तो उनके इस बयान की खूब आलोचना हुई। तब जॉर्ज को इस विवादास्पद बयान के चलते बैकफुट पर जाना पड़ा। लेकिन हाल-फिलहाल भारत विरोआँाी चीनी गतिविआिँायों से उनका वह बयान सच की परिआिँा में दाखिल होता दिख रहा है। चीनी सेना ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में द्घुसकर चट्टानों पर लाल रंग से 'चीन' लिख दिया। न सिर्फ भारतीय सीमा में चीनी द्घुसपैठ बढ़ी है, बल्कि पड़ोसी देशों में दखल बढ़ाकर चीन ने भारत को चक्रव्यूह में द्घेरने की रणनीति पर जैसे अमल करना आरंभ कर दिया है। उसका यह कदम उसकी विस्तारवादी नीति का हिस्सा बताया जा रहा है। दीगर बात है कि वह एक तरफ भारत को द्घेर रहा है तो दूसरी ओर बाजार का विस्तार करते हुए भारत के साथ व्यापारिक समझौते भी कर रहा है- कुछ इस अंदाज में झुका शेर, छिपा ड्रैगन। यह ड्रैगन देश के लिए कितना खतरनाक है, इस सवाल से जूझने की बजाय शायद भारत ऐतिहासिक गलती दोहराने की राह पर है

द्घटना (एक)-चीन की एक वेबसाइट 'चाइना इंटरनेशनल फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' के हवाले से यह खबर आती है कि चीन भारत को तीस टुकड़ों में बांटना चाहता है। इस दीर्द्घकालिक योजना पर उसने अमल भी करना शुरू कर दिया है।

द्घटना (दो)-लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना ने भारतीय सीमा में द्घुसपैठ कर वहां की चट्टानों पर चीन लिख दिया।

द्घटना (तीन)-चीन ने भारत को एशियाड विकास बैंक (एडीबी) से मिलने वाली २ ़९ बिलियन डॉलर सहायता में अड़ंगा डालने की कोशिश की।

द्घटना (चार)- भारत में अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक विमान ने लैंड किया जो चीन जा रहा था।

ये कुछ हाल की चीनी गतिविधियां हैं जो भारत विरोधी अभियान की पटकथा लिख रही हैं। पटकथा भी ऐसी-वैसी नहीं, साजिशों, द्घातों और प्रतिद्घातों से भरी रोमांचपूर्ण पटकथा। राजनीति या शासन करने का एक सामान्य सा नियम होता है कि शत्रु की हरकत के बाद सतर्क हो उससे मुकाबले की तैयारी में जुट जाना चाहिए। लेकिन इसका क्या किया जाए कि भारत चीन की इन हाल की खतरनाक गतिविधियों के मद्देनजर उस कदर गंभीर नहीं है जिसकी उम्मीद की जाती है।

विदेश मंत्री एसएम कृष्णा मानते हैं 'भारत-चीन सीमा एकदम शांत है। चीन देश के लिए चिंता का कारण नहीं है।' इसे भारतीय राजनीति की सदाशयता कहा जाएगा जिससे कई बार विस्फोटक स्थितियों का जन्म होता है। कुछ इसी तरह की सदाशयता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी दिखाई थी- 'चीनी-हिन्दी भाई-भाई' का नारा देकर। इसी झूठी मित्रता की छाती फाड़ते हुए चीनी सेना ने भारत पर १९६२ में हमला बोल दिया। नतीजा क्या हुआ यह सभी जानते हैं।

कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता नहीं है। लेकिन अक्सर वह थोड़ा बदले रूप में खुद को दोहराता है। भारत-चीन मामले में भी १९६२ का परिदृश्य बदले रूप में खुद को भले ही न दोहराए मगर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन के इरादे काफी खतरनाक हैं। अपनी पुरानी विस्तारवादी नीति को अमली जामा पहनाते हुए वह भारत को द्घेरने में जुटा है। प्रमाण के तौर पर भारत के पड़ोसी देशों में उसके बढ़ते हस्तक्षेप को भारत के खिलाफ बनते माहौल को हवा देने के रूप में देखा जा सकता है।

चीनी सैनिक हाल ही में लद्दाख की अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंद्घन करते हुए चकार क्षेत्र के 'माउंट ग्या' के निकट भारतीय इलाके के करीब १ ़५ किलोमीटर तक द्घुस आए। यह पहली बार या भूलवश नहीं हुआ। एक सिलसिला बन गया है जो आने वाले वक्त में भयावह शक्ल अख्तियार कर सकता है। भारत में चीनी द्घुसपैठ दिनों दिन तेज हुई है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि पिछले साल चीनी द्घुसपैठ के करीब २४० मामले दर्ज किए गए। इस साल अगस्त में ही २० मामले सामने आ चुके हैं।

इतना सब कुछ हो रहा है मगर सरकार सो रही है। सो नहीं भी रही है तो इसकी अनदेखी कर संबंधों की बिसात बिछा रही है। इस बिसात पर भारत चीन को शह दे पाएगा, इसमें कई अगर-मगर हैं। जानकारों की राय में चीन की रणनीति का हिस्सा है कि वह जिस क्षेत्र पर कब्जा करना चाहता है, पहले उसे विवादास्पद बताता है। बाद में सैन्य द्घुसपैठ के सहारे माहौल रचता है। अंत में सैनिक कार्रवाई के जरिए वह उस पर कब्जा करने की कोशिश करता है। आज की तारीख में उसके २२ देशों से इसी तरह के विवाद चल रहे हैं।

पहले से ही चीन भारत के पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर में कब्जा जमाए हुए है। अजीब बात है कि वह हमारी ही जमीन को मुक्त करने की शर्तें भी रखता है। चीन पूर्वोत्तर में भारत को रियायत देने को तैयार है। बशर्ते भारत पश्चिमोत्तर इलाके में चीन को रियायत दे। कहने का आशय यह कि भारत अक्साई चीन से अपना दावा वापस लेकर इसे चीन का हिस्सा माने तो चीन भी अरुणाचल प्रदेश को भारत का अंग मानने लगेगा। चित और पट, दोनों स्थितियों में अपनी जीत हासिल करने को आतुर शातिर चालें चल
रहे चीन की यह चतुराई नहीं तो क्या है?

'चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' की वेबसाइट पर झान लू नामक लेखक ने लिखा है कि चीन अपने मित्र देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की मदद से तथाकथित भारतीय महासंद्घ को तोड़ सकता है। झान लू तमिल और कश्मीरियों को आजाद कराने और उल्फा जैसे संगठनों का समर्थन करने की बात भी कहते हैं। वह अरुणाचल प्रदेश की ९० हजार वर्ग किलोमीटर जमीन को मुक्त कराने की सलाह भी देते हैं। चीनी सरकार को सलाह देने वाले थिंक टैंक की यह वेबसाइट अधिकृत है या नहीं, पर इस बात का प्रमाण तो है ही कि वहां के बुद्धिजीवी भारत के बारे में क्या सोचते हैं।

इस बीच भारतीय नौसेना प्रमुख सुरीश मेहता ने कहा है कि चीन लगातार अपनी सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी कर रहा है। वो ऐसा सिर्फ और सिर्फ अपने पड़ोसियों पर दबाव बनाने की योजना के तहत कर रहा है। अगर वह इसमें सफल हो जाता है तो फिर अपने पड़ोसियों के साथ चल रहे सीमा विवाद को ज्यादा बलपूर्वक रखने में सक्षम हो जाएगा। पिछले कई सालों से चीन भारत को अस्थिर करने में लगा है। भारत को हजार द्घाव देकर उसे टुकड़ों में बांटना पाकिस्तान का द्घोषित एजेंडा है। लेकिन इसको अमलीजामा पहनाना चीन की अद्घोषित नीति है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बंदरगाहों में चीन ने अपने नौ सैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं। नेपाल में चीन एक ऐसे वर्ग को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है जो द्घोर भारत विरोधी और चीनपरस्त है। थल और जल क्षेत्र में भारत के इर्द-गिर्द चीन अपना साम्राज्यवादी शिकंजा लगातार बढ़ाता जा रहा है।

चीनी अधिकारियों का कहना है कि भारत-चीन संबंध में चीन शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच मौलिक सिद्धातों पर कार्य करता है जिसमें यह भी शामिल है कि क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान किया जाए। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में चीन के रवैये में सीधे तौर पर सख्ती आई है। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय एक बार ऐसा लगने लगा था कि तिब्बत के मामले में चीन के नजरिए से भारत करीब आने लगा है। जिसके बदले चीन भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विवादित इलाकों पर भारत के दावे को मान लेगा। लेकिन अब चीन के नजरिए में कठोरता देखी जा रही है।

चीन के पूर्व राष्ट्रपति तंगश्यो फंग ने कहा था- चीन को अपने पड़ोसियों की गतिविधियों पर खूब नजर रखनी चाहिए। इस नीति पर चलते हुए चीन अपने पड़ोसी देश भारत को द्घेरने के लिए भारत के पड़ोसी देशों में अपनी दखल में लगातार बढ़ोतरी कर रहा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यामांर, श्रीलंका में उसकी उपस्थिति भारत के खिलाफ माहौल रच रही है। नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर विवाद में चीन और उसकी लाल सेना की अहम भूमिका मानी जा रही है। वहां माओवादी सरकार के गठन के बाद चीन को जैसे मांगी हुए मुराद मिल गयी। माओवादी नेता प्रचंड ने प्रधानमंत्री के रूप में भारत की बजाय पहले चीन की यात्रा करना बेहतर समझा। जबकि परंपरा रही है कि नेपाल में हर प्रधानमंत्री अपनी ताजपोशी के बाद सर्वप्रथम भारत की यात्रा करता रहा है।

श्रीलंका में भी लिट्टे विवाद सैन्य अभियान में चीन ने श्रीलंका सरकार की मदद कर भारत के खिलाफ अपनी जमीन तैयार की। उसने श्रीलंका को बड़े पैमाने पर सैन्य साधन भी उपलब्ध कराए हैं। चीन बांग्लादेश में छोटे हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अब वह उसे बड़े और अत्याधुनिक हथियार भी मुहैया कराना चाहता है। चीन ने बांग्लादेश में बिजली उत्पादन के लिए परमाणु संयंत्र लगाने में मदद की पेशकश भी की है। चीन म्यामांर को भी अपना अहम सहयोगी मानता है। दोनों देशों के दरम्यान पिछले मार्च में एक अनुबंध पर हस्ताक्षर भी हुए। म्यामांर की सैन्य सरकार अपने विरोधियों को कुचलने के लिए चीन से ही हथियार लेती है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भी चीन ने म्यामांर के पक्ष में वोट किया है। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में चीन की बढ़ती दिलचस्पी भी चिंताजनक है। कुल मिलाकर भारत के तमाम पड़ोसी मुल्कों को चीन अपनी गिरफ्त में लेकर इन देशों से भारत के खिलाफ मदद ले सकता है।

गौरतलब है कि भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक हाल ही में हो चुकी है। समिति के फैसले के अनुसार दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ओर दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते तेजी से मजबूत हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भारत-चीन राजनीतिक संबंधों में खटास बढ़ती जा रही है। वर्ष २००७-०८ में भारत चीन के बीच दोतरफा व्यापार पचास अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया। डब्लूटीओ में अपने किसानों को अतिरिक्त सब्सिडी देने के सवाल पर भी भारत-चीन के नजरिये में काफी समानता है।

इसके बिलकुल विपरीत कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चीन का रवैया खुल्लमखुल्ला भारत विरोधी है। विश्व स्तर पर शीत युद्ध भले ही समाप्त हो गया हो, परन्तु भारत-चीन के बीच शीत युद्ध कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। जब-जब संयुक्त राष्ट्र संद्घ में सुधार और संतुलन की बात होती है और भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का सवाल उठता है तब-तब चीन खुलकर इसका विरोध करता है। भारत की विदेश नीति और कूटनीति के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है कि वह किस प्रकार इसका विरोध करता है।

भारत की तुलना में चीन का परमाणु हथियारों का भंडार और उनका प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम गुणात्मक रूप से बहुत बड़ा है। चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट से साढ़े तीन सौ प्रतिशत अधिक है। अमेरिका के बाद चीन विश्व का दूसरा देश है जो हथियारों का सौदागर है। दुनिया में लगभग ५३ देश हैं, जिनको चीन लगातार हथियार बेच रहा है। भारत की उभरती शक्ति को रोकने के लिए चीन ने भारत की द्घेरेबंदी की नीति अपनाई है। पाकिस्तान को फौजी और परमाणु मदद, म्यांमार की जमीन पर चीनी अड्डे तथा म्यामांर को शक्तिशाली हथियार बेचने और दान में देने की नीति , नेपाल में चीनी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। भारत-अमेरिका परमाणु सौदे का चीन ने पुरजोर विरोध किया। चीन नहीं चाहता कि भारत-अमेरिका संबंधों में गुणात्मक सुधार हो।

चीनी मामलों के जानकार भारत के रक्षा रणनीतिकारों को पाकिस्तान के बजाय चीन पर ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दे रहे हैं। आर्थिक मंदी से चीन का निर्यात काफी प्रभावित हुआ है। उसके कई हिस्सों में व्यापक असंतोष है। ऐसे में आंतरिक समस्याओं को दबाने और एशिया में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए चीन को एक सैन्य विजय की जरूरत है और भारत उसके निशाने पर है। भले ही भारत चीन से अच्छे संबंध और शांतिपूर्ण बातचीत की दुहाई दे रहा हो, पर चीन के बारे में चिंता भी कम नहीं की जा रही है। देश के रणनीतिकार अब अपना ध्यान सीधे तौर पर चीन की ओर केन्द्रित कर रहे हैं जिसमें दीर्द्घकालीन सैनिक रणनीति भी शामिल है।

अब चीन को यह फैसला करना होगा कि भारत के साथ उसे मित्रता के संबंध चाहिए या शत्रुता के। मित्रता और आपसी सदभावना दोनों देशों के हित में है। दोनों देश गरीबी, बेरोजगारी ,भूख तथा बीमारी के खिलाफ लड़ रहे हैं। मित्रता से दोनों को लाभ होगा। संबंधों में खटास, कटुता और शत्रुता से दोनों को नुकसान होगा। चीन इतना शक्तिशाली नहीं है और भारत इतना कमजोर नहीं है कि चीन भारत के अस्तित्व को समाप्त कर दे। सवाल सीमा पर अतिक्रमण का नहीं, एशिया में शांति का है।

जापान में बदलाव की बयार

हाल ही में जापान में हुए चुनाव में जनता ने लगातार पचपन वर्ष से सत्ता पर काबिज लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा कर प्रमुख विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को बागडोर सौंपी है जिसका नेतृत्व हातोयामा कर रहे हैं। हातोयामा को वामपंथी-मध्यमार्गी समझा जाता है। लेकिन उनका आगे का सफर इतना आसान भी नहीं होगा। आर्थिक मोर्चे पर संकट का सामना कर रहे जापान को तूफान से बचाकर ले जाना नए प्रआँाानमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी

जापान में संपन्न हुए आम चुनाव में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान यानी डीपीजे ने ३०८ सीटों पर जीत दर्ज कराई है। इस चुनाव में जनता ने लगभग पांच दशक तक सत्ता में बनी रहने वाली लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाया है। अपनी जीत पर डीपीजे के नेता और प्रधानमंत्री पद के दावेदार हातोयामा ने जनता को धन्यवाद देते हुए इसे 'सत्ता में बदलाव के लिए मतदान' करार दिया। इस चुनाव में सत्तारूढ़ दल के कई बड़े नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि चुनाव से पहले एलडीपी ने जनता से वायदा किया था कि वह खर्चों पर अंकुश लगाकर और द्घरेलू आय को बढ़ाकर जापान को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनाएंगे। परन्तु इस द्घोषणा का जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

हातोयामा की जीत और सत्ता परिवर्तन का असर टोक्यो के शेयर बाजारों पर भी देखने को मिला। शेयर बाजार भारी बढ़त के साथ खुले। १९५५ से अब तक एक दक्षिणपंथी अनुदार व्यापारिक वर्ग की हितैषी पार्टी पर लगातार भरोसा करते आये जापानियों ने ऐतिहासिक फैसला करते हुए देश की सत्ता वामपंथियों- मध्यमार्गियों के हाथों में सौंपने का निर्णय किया। जापानियों ने आर्थिक संकट के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को पहली बार सत्ता सौंपने का निर्णय लिया।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार जापान इतने गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसे में युकिनो हातोयामा की डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान ठोस विकल्प के रूप में वहां के मतदाताओं को दिखी, जिसने जनकल्याण कार्यों के लिए खर्च बढ़ाने, न्यूनतम वेतन में वृद्धि करने, जापान को अमेरिका का पिछलग्गू न बनाने के वायदे किए थे। डीपीजे ने अमेरिका से संबंध बनाए रखते हुए चीन सहित सारे पड़ोसियों से रिश्तों को बेहतर बनाने पर बल दिया था। मात्र १३ वर्ष पूर्व डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान की आधारशिला रखकर हातोयामा ने जापान की जनता के सामने एक ठोस वामपंथी-मध्यमार्गी विकल्प प्रस्तुत किया। हातोयामा, अपने दादा इशिरो हातोयामा के बाद अपने परिवार के दूसरे सदस्य होंगे, जो जापान के प्रधानमंत्री का पद संभालेंगे। उनके पिता जापान के विदेश मंत्री रह चुके हैं। विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले इस देश का प्रधानमंत्री पद संभालना होतोयामा के लिए बड़ी चुनौती होगी। यूकिनो ने १९९३ में सत्तारूढ़ एलडीपी से नाता तोड़कर नयी पार्टी बनाई और स्वयं पार्टी अध्यक्ष बने।

अमेरिका से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त ६२ वर्षीय हातोयामा इस माह के मध्य में वर्तमान प्रधानमंत्री तारो आसो का स्थान लेंगे। ३० अगस्त को संपंन्न हुए चुनाव में ४८० सदस्यीय निचले सदन में हातोयामा की पार्टी को मिली ३०८ सीटें के मुकाबले में सत्तारुढ़ एलडीपी को मात्र ११९ सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालांकि पूर्ण बहुमत के लिए अभी भी हातोयामा को कुछ और सीटों की जरूरत पड़ेगी।

इस चुनाव में वैसे तो कई तथ्य चौंकाने वाले रहे। इनमें ५४ महिलाओं ने भी जीत हासिल की। इतनी अधिक संख्या में जीत के बाद भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र ९ फीसदी ही है। जबकि यह ११ फीसदी होना चाहिए था।
उधार चुनाव में अपनी हार स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री आसो ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। सत्तारूढ़ एलडीपी अपने ५५ साल के इतिहास में महज दो बार ही सत्ता से बाहर हुई है। पहली बार जापान की कमान संभालने वाली डीपीजे को स्थापना के बाद पहली बार इतना बड़ा जनादेश मिला है। नए प्रधानमंत्री हातोयामा के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने वाला बजट पेश करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। बजट पेश करने के लिए उनके पास महज १०० दिन ही बचे हैं।

जापान के चुनाव के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसके नतीजे बहुत चौंकाने वाले हैं। एक लम्बे अर्से से महसूस किया जा रहा था कि वहां के मतदाताओं का सत्तारूढ़ दल से मोहभंग हो चुका है। एलडीपी जापान की आम जनता की बदलाव की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रही थी। सरकार ने न तो महंगाई पर काबू पाया और न ही आर्थिक मंदी की चुनौती का सामना करने के लिए कोई रणनीति बनाई। जापान की शिक्षा प्रणाली, डाकद्घर, बैंकिंग और वित्तीय संस्थाएं पुरानी पड़ने लगी थीं। जिसके परिणामस्वरूप हाल के वर्षों में जापान की अंतरराष्ट्रीय बाजार पर पकड़ काफी हद तक कमजोर हो गई थी।

उसके उत्पाद बेहद महंगे समझे जाने लगे थे और गुणवत्ता के आधार पर इनकी मांग बनी नहीं रह सकी। इस झंझावत के बीच जापानी उद्योगों की प्रतियोगिता की क्षमता कम होने लगी। जापान में जिस रफ्तार से बेरोजगारी बढ़ी उससे दोगुनी रफ्तार से असंतोष बढ़ा। बहरहाल जापान के प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता ग्रहण करने जा रहे हातोयामा कुछ वर्षों पूर्व तक पुरानी पारंपरिक सत्ताधारी पार्टी के ही सदस्य थे। ऐसे में दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, यह कि हातोयामा का उन मूल्यों, सिद्धांतों या विचारों से कोई बुनियादी मतभेद नहीं है जो एलडीपी के हैं और दूसरा, भ्रष्टाचार का मुद्दा।

गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान ने जो आर्थिक प्रगति की उसमें अमेरिका के संरक्षण और सहयोग की भी भागीदारी रही। जापान को अपनी सुरक्षा के लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ा। साथ ही उसके उत्पादों को आसानी से अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में जगह मिल गई।

जापानी जनमानस ने उग्र राष्ट्रवाद और नस्लवाद को कभी पूरी तरह से खारिज नहीं किया। भले ही परिवर्तन के लिए जापान एक बार फिर से तैयार हुआ है लेकिन जापान के हालिया चुनाव को किसी क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखना जल्दबाजी होगी। दरअसल जापान में राजनीति हो या समाज अथवा अर्थव्यवस्था, किसी भी क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन या कोई नयी शुरुआत करना बेहद कठिन काम है। शायद अत्याधुनिक समझी जाने वाली जापानी कारपोरेट कल्चर के मजबूत होने की यही एक वजह है। हां एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि जापान ने भी अमेरिकी राह पकड़ ली है।

अमेरिका के नागरिकों ने भी वैश्विक आर्थिक संकट की चुनौती से निपटने में वहां के दक्षिणपंथी रिपब्लिकनों को नाकामयाब पाया था और सत्ता की बागडोर बराक ओबामा को सौंपी थी जो उदार डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं तथा जिन्होंने आर्थिक संकट से उबरने का कल्पनाशील रास्ता जनता के सामने प्रस्तुत किया। ऐसे में गहराते आर्थिक संकट के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को पहली बार सत्ता सौंपने का निर्णय जापानवासियों ने किया है।

अब यह निश्चित हो चुका है कि एक अमीर परिवार से आए हातोयामा जापान के प्रधानमंत्री होंगे। ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि जिस जापान के साथ भारत के पारंपरिक रिश्ते हैं, उसके लिए भी यह परिवर्तन सुखद होगा। इस बीच चुनाव में डीपीजे की शानदार जीत पर पूर्व रक्षा मंत्री फूमियो को पराजित करने वाले एरिको ने कहा है कि वे मतदाताओं के साथ धोखेबाजी नहीं करेंगे।

Friday, September 11, 2009

अमेरिका और पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों के बीच संबंध ठीक वैसा ही है जैसा शिकारी और कस्तूरी मृग के दरम्यान होता है। शिकारी कस्तूरी पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। अमेरिका भी पश्चिम के अरब देशों के साथ मधुर संबंध रखना चाहता है पर सिर्फ तेल के लिए। ऐसे में स्वार्थ की बुनियाद पर खड़े किये जा रहे रिश्ते कितने दीर्द्घकालिक, मधुर और प्रगाढ़ होंगे इसका जवाब न तो अमेरिका के पास है और ना ही मुस्लिम राष्ट्रों के पास
अफगानिस्तान और इराक अब अमेरिका के लिए नासूर बन चुके हैं। आखिरकार युद्ध से तंग आकर अमेरिका के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एडमिरल माइक मुलेन ने अमेरिका की मुसलमानों के प्रति नीति पर फिर से विचार करने और उसमें लचीलापन लाने की वकालत की है। एडमिरल माइक के अनुसार अमेरिका मुस्लिम जगत में दोस्त बनाने और विश्वसनीयता कायम करने में इसलिए मुश्किलों का सामना कर रहा है क्योंकि उसने रिश्ते कायम करने के लिए उतने प्रयास नहीं किए जितने किये जाने चाहिए थे। अमेरिका ने कई बार अपने वादे भी नहीं निभाए। एडमिरल माइक ने खुलकर मुस्लिम जगत में अमेरिका और उसकी सेनाओं के प्रति विश्वास के अभाव, मुश्किलों और इसके कारणों पर भी चर्चा की है। मुलेन के मुताबिक पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में विश्वास कायम करने के लिये अमेरिका को बहुत लंबा सफर तय करना पड़ेगा। उनके मुताबिक मुस्लिम समुदाय बहुत ही गूढ़ दुनिया है, जिसे हम पूरी तरह से नहीं समझते और कई बार पूरी तरह से समझने की कोशिश भी नहीं करते।

अमेरिका पिछले एक दशक से अफगानिस्तान में तालिबान से दो-दो हाथ कर रहा है। वहां अद्घोषित यु़द्ध चल रहा है। अरबों डॉलर स्वाहा हो चुके हैं। लेकिन अमेरिका, अफगानिस्तान में भविष्य में कभी सफल हो पायेगा, ऐसी कोई संभावना न तो अमेरिका को ही नजर आती है और न ही विश्व समुदाय को। अमेरिका की परेशानी सिर्फ अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं है। कमोबेश यही हालात इराक में भी बने हुए हैं।

यकीनन अब धीरे-धीरे अमेरिका की समझ में ये बातें आने लगी हैं कि हर मसले का फैसला जंग से नहीं हो सकता। पिछले दो सौ साल के अमेरिकी इतिहास में अमेरिका को यद्धों के कई कड़वे अनुभव हुए हैं। वियतनाम युद्ध में मिली अमेरिकी पराजय किसी से छिपी नहीं है, जहां तीस हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसके बावजूद अमेरिका को वहां से जंग का फैसला किये बिना ही उल्टे पांव वापिस लौटना पड़ा था। अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए अमेरिकी प्रशासन ने अपनी नीतियों में बदलाव के संकेत दिये हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने काहिरा में अपनी नीति की द्घोषणा करते हुए अमेरिका और मुस्लिम जगत के रिश्तों में नई शुरुआत का बिगुल फूंका। काहिरा विश्वविद्यायल में अपने अहम भाषण में ओबामा ने कहा था कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच तनाव दिखाई देता है। इस तनाव की जड़ें इतिहास में हैं और मौजूदा नीतिगत बहस से कहीं परे हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच नई शुरुआत होना जरूरी है जो आपसी हित और सम्मान पर आधारित हो। ओबामा ने अमेरिका और इस्लाम के बीच टकराव को गैर जरूरी माना। अपने काहिरा भाषण से ओबामा ने दुनिया भर के एक अरब से भी ज्यादा मुसलमानों के बीच अमेरिका की छवि को बेहतर बनाने की कोशिश करने का प्रयास किया। गौरतलब है कि जिन वजहों से अमेरिकी की छवि को धक्का लगा था उनमें अमेरिकी कैदखाने में मुसलमानों के साथ होने वाला बुरा बर्ताव भी शामिल था।

बुश प्रशासन की विरासत को आगे बढ़ाने वाले अमेरिका के नये अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अमेरिकी नीतियों में बदलाव लाने का प्रयास करने की पहल की है। शायद यही कारण है कि फिलिस्तीन, मिस्र, जॉर्डन, इराक, इंडोनेशिया और फिलीपींस के इस्लामवादी आंदोलन भी ओबामा के चुनाव से अति उत्साहित हुए। राष्ट्रपति बनने के बाद ओबामा के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस धारणा को खत्म करने की है कि अमेरिका इस्लाम का दुश्मन है। बेशक अमेरिका के निशाने पर न तो इस्लाम है और न ही मुसलमान। लेकिन फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के काम ऐसे रहे, जिन्होंने यह धारणा पैदा की मानो अमेरिका इस्लाम के खिलाफ युद्धरत हो। ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल की यातानाओं ने मुसलमानों में अमेरिका के प्रति नफरत पैदा की है। ओबामा जब तक इन कारणों को दूर नहीं करेंगे तब तक इस्लामी आतंकवादी इसका फायदा उठाते रहेंगे और अमेरिका की तस्वीर भी दुनिया के मुसलमानों की नजर में नहीं बदलेगी।

मध्यपूर्व में नई अमेरिकी नीति की दिशा में ओबामा का भाषण एक अच्छी शुरुआत माना जा सकता है। ओबामा के मुताबिक फिलिस्तीन को हिंसा छोड़नी होगी और यह स्वीकार करना होगा कि इजराइल को अस्तित्व में बने रहने का हक है। उन्होंने पश्चिमी तट पर यहूदी बस्तियों का निर्माण रोकने की भी बात कही। ईरान के संबंध में अपना विचार व्यक्त करते हुए ओबामा ने माना कि ईरान को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु शक्ति का अधिकार होना चाहिए, लेकिन उसे परमाणु अप्रसार संधि के प्रति वचनबद्ध होना पडेग़ा।

अफगानिस्तान के बारे में ओबामा ने साफ तौर पर माना कि यह अमेरिका के हित में नहीं है कि वहां अपने सैन्य ठिकाने बनाए रखे जायें। दरअसल, इराक में लड़ाई के चलते अमेरिका और मुस्लिम दुनिया के बीच बहुत मतभेद पैदा हुए हैं। लेकिन अब अमेरिकियों को अहसास हो गया है कि कूटनीति और बातचीत के जरिये ही इन मुद्दों को सुलझाया जा सकता है। इराक के लोगों को अभी भी यकीन नहीं है कि ओबामा प्रशासन शीद्घ्र देश से अमेरिकी सेनाओं को हटा लेगा। ओबामा की द्घोषणाओं से यह आश्वासन जरूर मिलता है कि मध्यपूर्व देशों के तेल पर अमेरिकी निर्भरता कम हो जाएगी और इराकी नेताओं से इस संबंध में बातचीत की जायेगी। इस बात ने सऊदी अरब के नेताओं और फारस की अन्य सरकारों को भ्रमित कर दिया है।

लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि आम मुसलमान ओबामा को कैसे देखते हैं। विश्व के ज्यादातर मुसलमानों का मानना है कि ओबामा के विचार तो उत्तम हैं, लेकिन क्या इतिहास को देखते हुये यह यकीन किया जा सकता है कि अमेरिका उन्हें अमल में लायेगा? काहिरा विश्वविद्यालय में उनके भाषण के अनेक विश्लेषण किए गये हैं। कई विश्लेषकों का यह मानना है कि वो इतिहास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे हैं जो भूतकाल की गलतफहमियों को दूर करके एक नये भविष्य का सूत्रपात करना चाहते हैं। आज की ग्लोबल दुनिया में कोई सोच भी नहीं सकता कि मध्ययुग में चली ईसाईयत और इस्लाम के बीच खूनी लड़ाइयों के निशान आज भी बाकी हैं। शीतयुद्ध के खात्मे के बाद अमेरिका को चुनौती देने वाला सोवियत कुनबा बिखर गया। लेकिन एक नयी विचारधारा ने जन्म लिया और वह रही 'सभ्यताओं के संद्घर्ष' की विचारधारा।

आज फिलिस्तीनी अपनी बस्तियों में नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उनका यह मानना है कि उनके दुखों का कारण सिर्फ अमेरिका है, जो इजराइल को आंख बंद कर समर्थन करता है। फिलिस्तीनियों के साथ लगातार हो रहे अन्याय के कारण सभी मुस्लिम देशों में अमेरिका के प्रति गुस्सा है। इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में खुला हस्तक्षेप करके मुसलमानों के दिलों में भड़क रही गुस्से की आग में द्घी डालने का काम किया है।
अमेरिका ने यह झूठा प्रचार करके कि सद्दाम हुसैन व्यापक जनसंहार के हथियार बना रहे हैं, इराक पर हजारों टन बम बरसाये। एक पुरानी और वैभवशाली सभ्यता को उजाड़ डाला। इराक से हथियार तो बरामद नहीं हुए, बल्कि इराकी नागरिकों में बदला लेने की भावना ने उन्हें चरमपंथी जरूर बना दिया। इसी तरह अफगानिस्तान में दिसंबर १९७९ में सोवियत संद्घ के खिलाफ अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा किया।

आज उन्हीं तालिबान के खिलाफ अमेरिका अफगानिस्तान में अभियान चला रहा है। बुश प्रशासन के कथित आतंकवाद विरोधी वैश्विक युद्धों के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि और ज्यादा खराब हो गयी है। इन देशों में अमेरिका को आज शक की निगाहों से देखा जा रहा है। पश्चिम एशिया शांति वार्ता फिर पटरी पर लाने और ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए अमेरिका मुस्लिम देशों का समर्थन जुटाने की कवायद में लगा है। बुश प्रशासन के आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि खराब हुई है। पश्चिम एशिया शांतिवार्ता को पटरी पर लाने और ईरान की महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए ओबामा मुस्लिम जगत के साथ अपने रिश्तों को सुधारना चाहते हैं। विश्लेषकों की मानें तो अमेरिकी राष्ट्रपति इन्हीं कारणों से पश्चिम एशिया के मुसलमानों का दिल जीतना चाहते हैं क्योंकि इस इलाके में कई ऐसे विवाद हैं जिनसे निपटना ओबामा सरकार के लिए एक चुनौती है।

अमेरिकी विदेश संबंध परिषद के सीनियर फैलो एलिय ने कहा है कि ओबामा को अरब जनता का विश्वास जीतने की कोशिश करना चाहिए ताकि वहां की सरकारों के साथ मिलकर अमेरिका को काम करने में सहूलियत हो।
बहरहाल, अमेरिका भले ही मुस्लिम देशों और मुसलमानों के साथ रिश्ते सुधारने की बात करता हो लेकिन सच यह है ९/११ के बाद मुसलमानों के प्रति अमेरिकी नीति में काफी बदलाव आया है। ९/११ के बाद अमेरिका और मुसलमानों के बीच जो खाई बनी है उसे भविष्य में पाटा जा सकता है ऐसा कहना सच को मुंह चिढ़ाना होगा। क्योंकि न तो अमेरिका मुसलमानों पर भरोसा करने को तैयार है और न ही मुसलमान अमेरिका पर। भले ही ओबामा दुनिया भर के मुसलमानों को एक दर्जन से अधिक भाषाओं में रमजान का बधाई संदेश दें लेकिन असल खेल तो तेल का है जिसे हासिल करने में अमेरिका अब तक नाकामयाब रहा है और शायद मुस्लिम राष्ट्रों की बदनसीबी का कारण भी उनके यहां तेल का होना ही है।

Saturday, September 5, 2009

अतीत के रंगीन पन्ने

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम बेनजीर भुट्ठों एक बार फिर सुर्खियों में हैं। क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान के जीवनीकार क्रिस्टोफर सैंडफोर्ड ने यह दावा करके कि इमरान और बेनजीर के बीच प्रेम प्रसंग था बेनजीर की मौत के बाद उन पर कीचड़ उछाला है।पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो और अपने समय के मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान दोनों पाकिस्तान में अपनी सियासी पहलकदमियों से हमेशा चर्चा में रहे। इन दिनों दोनों नाम एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा का विषय बने हुए हैं। लेकिन इस बार यह चर्चा निजी जिंदगी की कुछ खास बातों के बेपर्दा होने के कारण हो रही है। हाल ही में प्रकाशित इमरान खान की एक नई जीवनी के लेखक ने दावा किया है कि क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने खान के पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम बेनजीर भुट्टो से बेहद करीबी रिश्ते थे। जिन दिनों वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे उस समय दोनों के बीच रोमांस था।
इमरान खान के जीवनीकार क्रिस्टोफर सैंडफोर्ड ने लिखा है कि भुट्टो इमरान खान की दीवानी थी। दोनों में इतने करीबी संबंध थे कि उनके बीच यौन संबंध की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। सैंडफोर्ड ने अपनी किताब में लिखा है कि इमरान खान के द्घरवालों ने उनकी, भुट्टो के साथ शादी करने की भरपूर कोशिश की पर कुछ कारणों से ऐसा मुमकिन नहीं हो सका। पाकिस्तान के इन दो बड़े सितारों के बीच ऐसा माना जाता रहा है कि हमेशा मतभेद रहे। ये मतभेद राजनीतिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर रहे हैं। राजनीति में तो इमरान खान बेनजीर भुट्टो के द्घोर विरोधी रहे। इस सबके बावजूद सैंडफोर्ड ने दावा किया है कि उन्हें खान की जीवनी लिखने के सिलसिले में एक सूत्र से जानकारी मिली कि वर्ष १९७५ में २१ वर्षीय बेनजीर भुट्टो लेडी मार्गरेटहॉल में राजनीतिशास्त्र की छात्रा थीं और इसी दौरान वो खान की ओर आकर्षित हुई थी। गौरतलब है कि सैंडफोर्ड ने इमरान खान की जीवनी लिखने के लिए जरूरी जानकारी जुटाने के लिए न सिर्फ इमरान खान की पूर्व पत्नी जेसिमा बल्कि कई और लोगों से मुलाकात की है। इस किताब में यह बतलाया गया है कि बेनजीर इमरान से प्रभावित थीं और संभवतः उन्होंने ही इमरान को पहली बार शेर-ए-पंजाब कहा था। एक अखबार ने साक्षात्कार के हवाले से लिखा है कि यह बात साफ है कि एक या दो महीने तक यह जोड़ा काफी नजदीक रहा। जब भी वे किसी सार्वजनिक जगह पर होते थे तो हंसते-शर्माते दिखते थे। हालांकि इमरान खान ने अपनी इस जीवनी को अनधिकृत करार देते हुए कहा है कि उनके भुट्टो से कभी यौन संबंध नहीं रहे। उन्होंने ये भी बताया कि उन्होंने सैंडफोर्ड को साक्षात्कार जरूर दिया था, मगर बेनजीर से उनके करीबी रिश्तों और दोनों की शादी की कोशिश की बात लेखक की सिर्फ कोरी कल्पना है।
इस बीच पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने अपनी पूर्व अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो और क्रिकेटर इमरान खान के बीच प्रेम संबंध के बारे में सैंडफोर्ड के दावे को विक्षोभकारी और दुर्भावनापूर्ण करार देते हुए खारिज कर दिया है। ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त वाजिद शम्सुल हसन ने एक बयान जारी कर कहा है कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान बेनजीर भुट्टो का इमरान खान के साथ कोई लेना-देना नहीं था। हसन पिछले कई वर्षों से भुट्टो परिवार से जुड़े रहे हैं और उन्होंने इन दावों को निराधार बताया है। १९६० से भुट्टो परिवार से जुड़े वाजिद हसन ने कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के कभी किसी के साथ प्रेम संबंध नहीं रहे और आसिफ अली जरदारी से उनकी शादी दोनों परिवारों की रजामंदी से हुई थी। उनका मानना है कि यह कुछ और नहीं, बल्कि इमरान को लोकप्रिय बनाने का सस्ता तरीका है।
पच्चीस नवम्बर १९५२ को जन्मे इमरान खान ने लगभग दो दशकों तक क्रिकेट की दुनिया पर राज किया। नब्बे के दशक में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। अप्रैल १९९६ में इमरान खान ने तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी गठित की। १६ मई १९९५ को इमरान ने जेसिमा गोल्डस्मिथ से विवाह रचाया। जेसिमा ने बाद में इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। लेकिन यह शादी स्थायी साबित नहीं हुई। २२ जून २००४ को इमरान ने जेसिमा से तलाक ले लिया जिसका कारण जेसिमा का पाकिस्तान में नहीं रहना बताया गया। इमरान खान को किक्रेट और राजनीति के अलावा समाजसेवा के लिए भी जाना जाता है। इमरान के प्रेम प्रसंग भी काफी चर्चा का विषय रहे। लंदन में लेडी लिजा कैम्पबेल और कलाकार एम्मा साजेंट के साथ रोमांस को लेकर बदनामी मिली। इमरान खान देश के अन्दर एक हल्के राजनीतिज्ञ और बाहर सेलिब्रिटी रहे। पाकिस्तान के अखबार इमरान खान को एक बिगाड़ने वाला राजनेता कहते हैैं। यानी इमरान एक बीमार व्यक्ति हैं जो राजनीति में पूरी तरह से विफल हैं। इमरान में राजनीतिक परिपक्वता और भोलेपन की कमी है।

बारूद के ढेर पर लोकतंत्र



डर किसे कहते हैं और असुरक्षा का माहौल क्या होता है, यह इस चुनाव के वक्त अफगानिस्तान में विदेशी पत्रकारों को हुआ। ये चीज तब और गहरी हो गई जब राष्ट्रपति हामिद करजई के ठिकाने पर हमला हुआ। नौ सालों तक अपनी पूरी ताकत झोकने के बाद भी अमेरिका से वहां के लोग नाराज है। चुनाव बाद कोई चमत्कार हो जाएगा इसी उम्मीद की बेमानी हैअफगानिस्तान का नाम सुनते ही आतंकवाद और तालिबान की याद जाती है। आज अफगानिस्तान, अशांति और आतंकवाद का पर्याय माना जाता है। फिलहाल यहां नाटो की सेनाएं तैनात हैं और देश में हामिद करजई के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार है। लेकिन जानकारों के मुताबिक सरकार का रिमोट अमेरिका के हाथों में है। लगातार संद्घर्ष, अशिक्षा, द्घोर गरीबी और दुनिया में सबसे कम जीवन दर ने अफगानों को कठोर बना दिया है। अफगानिस्तान की सरजमीं और वहां के लोगों ने जितने युद्ध देखे उतने शायद ही किसी अन्य मुल्क या जाति ने देखे होंगे। बीते २० अगस्त को वहां हुए चुनाव कई मायने में निर्णायक है। एक तरफ जहां इन चुनावों से देश को लोकतांत्रिक सरकार मिलने का रास्ता साफ हुआ है, वहीं दूसरी ओर तालिबानियों के हौसले भी पस्त हुए है। दक्षिण एशिया में यह चुनाव शांति के नये युग की शुरुआत कर सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में अफगानिस्तान पर पूरे विश्व की नजरें होंगी।
हिंसा, भय और संगीन के साये में २० अगस्त को अफगानिस्तान में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव संपन्न हुआ। तालिबान विद्रोहियों ने मतदान के दौरान काबुल सहित देश के कई अन्य हिस्सों में रॉकेट से हमले किए। १९ अगस्त की रात और २० अगस्त की सुबह कई जगहों पर विस्फोट की खबरें आईं। काबुल में सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे। इस चुनाव में एक करोड़ ७० लाख मतदाताओं के ६९६९ मतदान केन्द्र बनाये गये थे। मतदाताओं की सुरक्षा के लिए अफगान और विदेशी सुरक्षाकर्मी तैनात थे। इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने सरकार के उस फैसले की कड़ी आलोचना की जिसमें मीडिया पर मतदान के दिन हिंसक द्घटनाओं की जानकारी देने पर प्रतिबंध लगाया गया था। दरअसल अफगानिस्तान का चुनाव अमेरिका और तालिबान के बीच नाक की लड़ाई बन गया था। एक तरफ जहां ओबामा प्रशासन अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित कर अपनी वाहवाही बिटोरना चाह रहा था, वहीं तालिबान इसका विरोध कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाह रहे थे। इस बीच राष्ट्रपति चुनाव से दो दिन पहले काबुल में अभेद्य माने जाने वाले राष्ट्रपति आवास और राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में १७ अगस्त को रातभर कई रॉकेट दागे गए। हालांकि दोनों ही स्थानों से किसी के द्घायल होने की सूचना नहीं है। देश के उत्तरी जोवजान प्रांत में एक बंदूकधारी ने प्रांतीय पार्षद उम्मीवार की गोली मारकर हत्या कर दी। राष्ट्रपति करजई ने इन हमलों पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, 'ऐसे हमले अफगानिस्तान के लोगों को वोट डालने से नहीं रोक पाएंगे।'
चुनाव के बाद राष्ट्रपति पद के विजेता को लेकर अटकलें तेज होती जा रही हैं। राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार जहां अपनी रैलियों में जुट रही भीड़ आदि के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं, वहीं सर्वे एजेंसियां यह जानने के लिए ओपिनियन पोल का सहारा ले रही हैं। ओपिनियन पोल के अनुसार राष्ट्रपति हामिद करजई अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला-अब्दुल्ला से आगे तो हैं फिर भी निर्णायक जनाधार किसी के पास नहीं है। अगर किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो ऐसी स्थिति में दोबारा चुनाव की नौबत आ सकती है। स्थानीय मीडिया के कुछ सर्वेक्षणों में निवर्तमान राष्ट्रपति हामिद करजई की बढ़त को दिखाया गया है। करजई की दावेदारी अपने गृह प्रांत और तालिबान के गढ़ कंधार में मजबूत मानी जा रही है। इन इलाकों में उनके भाई और कंधार के काउंसिल चीफ अहमद वाली करजई ने वहां उनकी ओर से चुनाव प्रचार किया। दूसरी ओर अब्दुल्ला को उनके ही गढ़ उत्तर क्षेत्र में एक सभा के दौरान अनियंत्रित भीड़ का सामना करना पड़ा।
इस बीच तालिबान ने चुनाव में बाधा डालने की धमकी के साथ अफगान नागरिकों से चुनाव के बहिष्कार की अपील की। तालिबान समर्थित एक वेबसाइट पर जारी बयान में तालिबानी लड़ाकों से चुनावों से पहले सड़कों पर बाधा खड़ी करने और मतदाताओं को मतदान केन्द्रों पर न जाने देने की बात कही। तालिबान के अनुसार अफगानिस्तान में चुनाव में मतदान करने का अर्थ होगा अमेरिकी गुलामी स्वीकार करना । और ऐसा करके लोग अमेरिका की मदद करेंगे। हालांकि अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी अधिकारियों को इस बात का यकीन है कि चुनाव बाद सरकार का बनना तय है। इससे तालिबानों की हार भी सुनिश्चित हो जाएगी। साथ ही साथ अफगानिस्तान में तालिबान की हैसियत भी खत्म हो जाएगी। उनके पास सीमित विकल्प रह जाएंगे-देश छोड़ो या फिर बदल जाओ!
अमेरिकी सहायता प्राप्त इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए ओपिनियन पोल के अनुसार २० अगस्त की चुनावी जंग में करजई ४४ फीसदी मतों के साथ सबसे ऊपर होंगे जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला -अब्दुल्ला २६ फीसदी मतों के साथ दूसरे स्थान पर। दस फीसदी मतों के साथ पूर्व योजना मंत्री रमजान बशरदोस्त इस सूची में तीसरे स्थान पर हैं। जबकि पूर्व वित्त मंत्री अशरफ धानी छह फीसदी मतों के साथ चौथे स्थान पर। ओपिनियन पोल से जुड़े अधिकारियों के अनुसार राजनीतिक भविष्य की नब्ज पकड़ने के लिए इंस्टीट्यूट ने १६ से २६ जुलाई के बीच लगभग २,४०० अफगानी नागरिकों से उनकी इच्छा जानना चाही।
पश्चिमी शहर हेरात में हामिद करजई ने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि अगर वह दोबारा सत्ता में आते हैं तो उनकी प्राथमिकता अलगाववादी गुटों खासकर तालिबान से बातचीत कर वापस उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा। जनता का यह भी मानना है कि तालिबान की धमकियों का उन पर खास असर नहीं पड़ा। चुनाव से जुड़े अधिकारियों ने यह बताया है कि करीब १० प्रतिशत पोलिंग बूथों को सुरक्षा की स्थिति के जायजे के बाद खत्म कर दिया गया था। मुख्य रूप से दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान में तालिबानियों का नियंत्रण है, जहां देश के अधिकांश पश्तून निवास करते हैं। हामिद करजई भी इसी कबीले से जुड़े हैं। चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मतदान हो, इसके लिए स्थानीय नेता तालिबान के साथ युद्ध विराम की द्घोषणा कर चुके थे। इसकी जानकारी करजई के भाई अहमद वली करजई ने दी। हालांकि तालिबान नेताओं ने इस तरह के किसी समझौते को नकार दिया है। तालिबानी प्रवक्ता कारी यूसुफ अहमदी ने एपीबीपी से टेलिफोन पर हुई बातचीत में कहा है कि इस तरह की झूठी बात का कोई आधार नहीं है। ऐसा कोई भी शांति समझौता नहीं है।भारत की नजरों में अफगानिस्तान में होने वाले चुनाव काफी महत्व रखते हैं। भारत और अफगानिस्तान आतंकवाद का विरोध करते हैं और दोनों देश वहां चुनाव बाद लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। हाल ही में विदेशमंत्री एस ़ एम ़ कृष्णा ने भारत यात्रा पर आए अफगानिस्तान के विदेशमंत्री स्पायरा से मुलाकात कर आंतक को खत्म करने की बात कही। एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर कहा कि आतंकवाद दक्षिण एशिया की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। दोनों देश दक्षिणी एशिया को एक शांतिपूर्ण एवं समृद्ध क्षेत्र बनाने के लिए आतंक विरोधी क्षेत्र में सहयोग मजबूत करेगे। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत विश्व शांति की जीत होगी। ऐसे में अफगानिस्तान मे मजबूत होता लोकतंत्र तालिबान की शक्ति पर करारा प्रहार होगा। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत तालिबान के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकती है।