Tuesday, June 22, 2010

झुकने को तैयार नहीं ईरान

भले ही अमेरिका के दबाव में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने ईरान पर प्रतिबंध लगा दिया हो लेकिन ईरान अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं। ईरान पर बीते नौ जून को चौथे दौर का प्रतिबंध लगाया गया। राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा लगाये गए नए प्रतिबंधों को मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा ये इस्तेमाल किया हुआ रूमाल है जो कूड़ेदान में फेंक दिया जाना चाहिए। वहीं अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने परमाणु मुद्दे पर ईरान के साथ बातचीत के दरवाजे खुले होने की बात कहकर अपनी कमजोरी को उजागर कर दिया। गौरतलब है कि यह वर्ष २००६ के बाद से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करने के लिए लगाए गए प्रतिबंधों की चौथी और आखिरी किस्त है। सवाल उठता है कि इसके बाद अमेरिका क्या करेगा?
पांच महीनों की माथापच्ची के बाद आखिरकार ईरान पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने विगत नौ जून को बहुप्रतीक्षित चौथे दौर का प्रतिबंध लगाया। संबंधित प्रस्ताव को १२-२ से पारित कर दिया गया। १५ सदस्यों की सुरक्षा परिषद में अमेरिका और बिट्रेन सहित १२ देशों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट किये जबकि ब्राजील और तुर्की ने इसका विरोध किया। वहीं लेबनान गैर हाजिर रहा। अमेरिका को इस प्रस्ताव को तैयार करने में बिट्रेन और फ्रांस ने भी मदद की। जबकि चीन और रूस पहले प्रतिबंधों का विरोध कर रहे थे लेकिन उन्होंने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आरोप है कि ईरान परमाणु हथियार बना रहा है। लेकिन ईरान का दावा है कि उसका यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है।
ताजा प्रतिबंधों में ईरान की परमाणु गतिविधियों को अवरुद्ध करने, मालवाहक जहाजों को जब्त करने और तेहरान को युद्ध टैंक और हेलिकॉप्टर के निर्यात पर रोक लगाई गई हैं। प्रस्ताव के मसौदे के मुताबिक ईरान के परमाणु या मिसाइल कार्यक्रम के साथ संबंध होने की स्थिति में विदेशों में कारोबार कर रहे ईरानी बैंकों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जा सकते हैं। सेंट्रल बैंक सहित ईरान के सभी बैंकों के साथ लेनदेन पर भी कड़ी नजर रखी जाएगी। ईरान के हथियार खरीदने पर लगाए गए प्रतिबंधों को भी विस्तार दिया गया है।सैन्य, व्यापारिक और वित्तीय संबंधों को प्रतिबंधित करने से ईरान की सरकार से ज्यादा वहां की जनता को परेशानी होगी, जिसका असर दीर्द्घकालिक रूप से पड़ेगा। भारत ने इन प्रतिबंधों को यह कहते हुए बेमानी बताया कि इससे शासन की बजाय आम आदमी पर बुरा असर पडे़ेगा। प्रतिबंध लगने के बाद ईरानी बैंकों, नागरिकों और संदिग्ध कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। प्रस्ताव पारित होने के बाद यूएन में अमेरिकी प्रतिनिधि सुसन राइस भले ही यह कह रहे हों कि प्रतिबंध ईरानी नागरिकों के खिलाफ नहीं है बल्कि वहां के शासन की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लक्ष्य करके लगाए गए हैं। लेकिन इसका सबसे बुरा प्रभाव तो वहां की आम जनता को ही होगा।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान के खिलाफ लगाए गए अब तक के सबसे कड़े प्रतिबंध को अंतराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिबद्धता बताया। लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि तेहरान के लिए राजनयिक विकल्प अब भी खुले हुए हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री ने भी र्ईरान के साथ बातचीत की बात कही। जबकि चीन ने इस प्रतिबंध को ईरान के सामने बातचीत के रास्ते पर वापस लाने के लिए बताया। जबकि संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी संस्था अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी में तैनात ईरान के राजदूत अली असगर सुल्तानेह ने स्पष्ट कहा है कि ईरान अपना यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम बंद नहीं करेगा।
सुरक्षा परिषद द्वारा ईरान के खिलाफ विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम के कारण प्रतिंबध लगाए जाने के बाद उसने विरोधी कदम उठाने की धमकी दी है। अमेरिका, इजराइल, पाकिस्तान जैसे गैरजिम्मेदार देशों के परमाणु हथियारों को स्वीकार कर सकता है, उन्हें संरक्षण दे सकता है। वह ईरान के पीछे पड़कर दुनिया में शांति की संभावनाओं को धूमिल करने में लगा है। इराक के बाद अब अमेरिका ईरान को निशाना बनाकर पश्चिम एशिया में अपनी स्थिति को मजबूत करना चाहता है। लेकिन जानकारों के मुताबिक ईरान कई मायनों में इराक से बेहतर स्थिति में है। वह अमेरिका की सारी चालों का समझता है। यही वजह है कि ईरान की क्रांति के बाद से अमेरिका और ईरान के बीच कटूता बढ़ती रही है। अमेरिका सहित पश्चिमी देश लगातार ईरान पर दबाव बना रहे हैं। लेकिन ईरान अपने भौगोलिक स्थिति के कारण किसी हाल में झुकने को तैयार नहीं।

निशाने पर नीतीश

बिहार में विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। राजनीतिक गतिविधियों का बढ़ना लाजमी है। लेकिन सभी पार्टियों के निशाने पर जनता दल यूनाइटेड के नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। हालांकि भाजपा सरकार में शामिल है लेकिन उसे अपनी चिंता अधिक सता रही है। इसका सबसे बड़ा कारण जदयू का बढ़ता वोट प्रतिशत है। भाजपा के साथ रहते हुए नीतीश कुमार ने कुछ ऐसे फैसले लिये हैं, जिन्हें आसानी से भाजपाई पचा नहीं पा रहे हैं। भाजपा को सबसे अधिक परेशानी मुसलमानों के पक्ष में लिये गये फैसलों से हुई है। इन सब से इतर भाजपा की स्थिति दिन पर दिन प्रदेश में खराब होती गई। इतिहास पर नजर डालें तो राजद-कांग्रेस का गंठबंधन भी कुछ इसी तरह का था। राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस लगभग विलीन हो गई और राजद के रहमोकरम पर चलती रही। इस बात का अंदाजा भाजपा के नेताओं को लग गया है। लेकिन आगे क्या होगा इसका आकलन करना गलत होगा। क्योंकि गठबंधन रहेगा या नहीं, नीतीश कुमार या भाजपा क्या फैसला लेती है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा।
अपनी साख जनता के बीच बचाये रखने के लिए भाजपा ने पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से शंखनाद की जो योजना बनाई उसने जदयू-भाजपा गठबंधन में दरार डालने का काम किया। भाजपा जाने-अनजाने ऐसा कर बैठी जिससे राज्य में उसकी सहयोगी पार्टी को भाजपा के सम्मान में दिया जाने वाला भोज रद्द करना पड़ा। दरअसल, सारा विवाद उस विज्ञापन को लेकर हुआ जिसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हाथ में हाथ डाले दिखलाया गया। विज्ञापन छपने के बाद से ही सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन पर संकट के बादल मंडराने लगे। ऐसे में जब चुनाव सिर पर है नीतीश किसी हालत में नरेन्द्र मोदी या भाजपा के साथ दिखना नहीं चाहते। वहीं भाजपा नीतीश कुमार की छाया से बाहर निकलने की बेचैनी में है। साफ है जो हो रहा है वह विशुद्ध राजनीति है। बिहार में अल्पसंख्यकों का वोट काफी महत्व रखता है। नीतीश हर हाल में इस वोट बैंक को अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहते। नीतीश किसी भी प्रकार से नरेन्द्र मोदी या भाजपा के साथ नहीं दिखना चाहते हैं। भाजपा इस बात को भलीभांति समझती है कि वह अल्पसंख्यक के वोट पाने में कामयाब नहीं हो सकती। ऐसे में बिहार में पार्टी ने हिन्दू हृदय सम्राट कहे जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री को खड़ा कर अपने पुराने एजेंडे पर लौटने का संकेत देने की कोशिश की है। स्थानीय अखबारों में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का महिमामंडन और मोदी के साथ उन्हें दिखाने वाले विज्ञापनों से आग बबूला मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कानूनी कार्रवाई तक की धमकी दे डाली। विज्ञापन में नरेन्द्र मोदी का जमकर गुणगान किया गया था। विज्ञापन के माध्यम से इस बात पर जोर दिया गया कि गुजरात की तर्ज पर प्रदेश में खूब विकास हुआ। कुल मिलाकर बिहार के चुनाव में स्थानीय मुद्दों को भूला कर भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की छवि को भुनाने की कोशिश की। जानकारों के मुताबिक इसके पीछे भाजपा की सोची-समझी चाल थी। बिहार के विकास का सारा श्रेय कहीं नीतीश कुमार और जदयू को न जाए इसलिए मोदी को सामने लाकर भाजपा ने अपनी छवि को भुनाने का काम किया। साथ ही उसने नीतीश कुमार के विकास पुरुष की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया। अब तक राज्य में नीतीश के सुझावों पर चलने वाली भाजपा ने इस बार दो-दो हाथ करने का मन बना लिया है।
नीतीश कुमार की नाराजगी की दूसरी वजह भी है जो बिहार के स्वाभिमान से जुड़ी है। नरेन्द्र मोदी ने इन विज्ञापनों के जरिए यह बताने का प्रयास किया कि अगर गुजरात नहीं होता तो बिहार की जनता पूरी तरह बाढ़ में डूब जाती। नरेन्द्र मोदी के इस विज्ञापन से भारतीय परंपरा का अपमान हुआ है। विज्ञापन में कहा गया कि संकट की द्घड़ी में गुजरात हमेशा बिहार के साथ खड़ा रहा। २००८ में आई बाढ़ के दौरान भी गुजरात ने बिहार को सर्वाधिक मदद की। अपने विज्ञापन के माध्यम से भाजपा ने बिहार की नौ करोड़ जनता को यह बताने की कोशिश की कि बिहार को भाजपा शासित राज्य गुजरात ने मदद देकर बहुत बड़ा उपकार किया। अब बिहार के लोगों को अपना कर्ज उतारने की बारी है। यानी बिहार की जनता गुजरात के इस उपकार के बदले प्रदेश में भाजपा को वोट दे। शायद मोदी यह भूल गए कि गुजरात की खुशहाली में बिहारी मजदूरों का भी योगदान है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा सहयोगी दल भाजपा के प्रमुख नेता एवं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर खुला और तीखा प्रहार करने के बाद इस बात के साफ संकेत नजर आ रहे हैं कि दोनों दलों में दरार पड़ चुकी है और इस साल अक्टूबर में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां अलग-अलग रास्ते पर चल सकती हैं।
जानकारों के मुताबिक अगर नीतीश कुमार भाजपा से नाता तोड़ते हैं तो उन्हें इसका दोहरा लाभ मिल सकता है। पहला बिहार के स्वाभिमान के नाम पर नौ करोड़ बिहारियों के हीरो बन सकते हैं। दूसरा भाजपा से नाता टूटने पर अब तक भटक रहे अल्पसंख्यकों का वोट उनकी झोली में आसानी से गिर सकता है। इस बीच जदयू के अल्पसंख्यक नेता भी बिहार के मुख्यमंत्री पर भाजपा का साथ छोड़ने और राज्य विधानसभा का आगामी चुनाव अकेले लड़ने का दबाव बना रहे हैं। मोदी की छवि सांप्रदायिक है जबकि नीतीश की धर्मनिरपेक्ष। जदयू नेता मोनाजिर हसन का कहना है कि उन्होंने सुनिश्चित साजिश के तहत पूरे राज्य में मोदी के इश्तेहार छपवाए हैं। यह नीतीश कुमार को सत्ता से बेदखल करने की साजिश है। विज्ञापन में मोदी और नीतीश को साथ-साथ दिखाकर उनकी धर्मनिरपेक्ष छवि को तार-तार करने की कोशिश की गई है।

Wednesday, April 21, 2010

पढ़ाई का हक

आखिरकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना साकार होता नजर आया। राष्ट्रपिता ने ऐसे भारत की परिकल्पना की थी, जिसमें कोई अशिक्षित न हो। बीते एक अप्रैल को शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाला ऐतिहासिक कानून देश भर में लागू हो गया। इससे सीधे तौर पर लगभग एक करोड़ बच्चों को फायदा पहुंचेगा। 'सूचना का अधिकार' और 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी' के बाद 'शिक्षा का अधिकार कानून' लागू करना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। यकीनन यह कानून शिक्षा की दिशा की उन्नति में एक मील का पत्थर साबित होगा। यह कानून कितना अहम है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजाद भारत में पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री ने कानून को लेकर देश को संबोधित किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून के लागू होने पर देश को बधाई देते हुए इसकी सफलता के लिए हरसंभव प्रयास करने का आह्‌वान किया।
इस कानून से स्कूल छोड़ चुके लगभग ९२ लाख बच्चे प्राथमिक शिक्षा पा सकेंगे। संविधान के ८६वें संशोधन के जरिये ०६ से १४ आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए 'शिक्षा' मौलिक अधिकार में शामिल हो गया। संविधान संशोधन के जरिये संविधान में २००२ में एक उपबंध जोड़ा गया। बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-२००९ की वजह से यह संभव हुआ। इसके साथ ही मूल अधिकारों की फेहरिस्त में शिक्षा का अधिकार भी शामिल हो गया। कानून हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार देता है। निजी शैक्षणिक संस्थानों को २५ फीसदी सीटें कमजोर तबके के बच्चों के लिए आरक्षित रखना होगा। वित्त आयोग ने इस कानून को लागू करने के लिए राज्यों को २५,००० करोड़ रुपया उपलब्ध कराया है। वहीं सरकार के मुताबिक इस कानून को लागू करने के लिए अगले पांच साल में १ ़७१ लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही एक सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या यह कानून देशभर में ईमानदारी से लागू हो पायेगा? चुनौती शिक्षा की पहुंच, समता और गुणवत्ता की भी है। विधेयक में कहा गया है कि इसके कानून बनने की तारीख के तीन साल के भीतर ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि प्रत्येक बच्चे के आसपास स्कूल हो सके। वैसे इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर बच्चा स्कूल जाने ही लगेगा? फीस के अलावा भी कई प्रकार के खर्च होते हैं। अधिकांश भूमिहीन, गरीब और वंचित के लिए यह संभव नहीं है कि वे इन खर्चों का बोझ उठा सकें। ऐसे हालात में वे अपने बच्चे को स्कूल से दूर ही रखना पसंद करते हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि ढांचागत सुविधाओं के विस्तार और शिक्षकों की गुणवत्ता सुनिश्चित होने से सरकारी स्कूलों की बदहाली पर विराम लग सकेगा। सरकारी और निजी सभी स्कूलों के लिए नियामक व्यवस्था के शुरुआती सुझाव को सर्वसम्मति नहीं बनने पर छोड़ दिया गया। दोनों ही खेमों में इस प्रावधान को लेकर बेचैनी थी। निजी स्कूलों का मानना था कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में दखल होगा। मौजूदा विधेयक में इससे अलग राय व्यक्त की गई है। इसमें आठ साल तक की प्रारंभिक शिक्षा की अनिवार्यता का दायित्व सरकार के कंधों पर रखा गया है। इसका मतलब यह है कि यदि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी और उसे ही दंडित भी किया जाना चाहिए। सवाल यह है कि इसकी निगरानी कौन करेगा? इसे लेकर कई और सवाल उठने लगे हैं। क्या इतनी देर से इस विधेयक के पारित होने के बाद हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार हो पायेगा? क्या भारत के माथे पर लगा अशिक्षा का कलंक पूरी तरह से मिट सकेगा? इस कानून को लेकर विरोध के स्वर भी उठने शुरू हो गये हैं। निजी स्कूल इस साल तो इस कानून की गिरफ्त से बच गये, लेकिन अगले साल क्या वे इसे पूरी ईमानदारी से लागू करेंगे? पब्लिक स्कूलों ने अभी से इसमें अड़ंगे लगाने शुरू कर दिये हैं। कुछ निजी स्कूलों ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसके विरोध में याचिका भी दायर कर दी है। वैसे सरकारी स्कूलों की हालत क्या है यह किसी से छिपी नहीं है। जब तक शिक्षा के बीच गहरी हुुई खायी को नहीं पाटा जाएगा तब तक यह कानून बेमानी सा ही रहेगा। सरकार अपनी कथनी और करनी से इस कानून को कितना सार्थक बना पाएगी, यह तो समय ही बताएगा।

सत्ता पर लाल हमला

केंद्रीय गृहमंत्री पी .चिदंबरम लालगढ़ में माओवादियों के खिलाफ पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का मनोबल बढ़ा रहे थे वहीं माओवादी सरकार के ग्रीन हंट को 'लाल' करने की योजना को अमलीजामा पहनाने की तैयारी को अंजाम देने में लगे थे। लालगढ़ में अभी गृहमंत्री का दौरा खत्म भी नहीं हो पाया था कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के पास तालमेतला जंगलों में सीआरपीएफ के जवानों को द्घात लगाकर मार डाला। नक्सलियों ने इसे ऑपरेशन ग्रीन हंट की जवाबी कार्रवाई बताया। जाहिर सी बात है नक्सलियों में इस समय आपरेशन ग्रीन हंट की बौखलाहट साफ तौर से देखी जा सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल जो इस निर्मम हत्या के बाद उठ रहा है वह यह कि आखिरकार सूचना तंत्र से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी? खुफिया विभाग को इस कांड की भनक तक क्यों नहीं लग पायी? सरकार की नीति कारगर क्यों नहीं हो पायी? द्घने जंगलों में हजारों की तादाद में नक्सलियों ने मार्च किया, इसका पता लगाने में सरकार क्यों सफल नहीं हो पाई? बिना किसी पुख्ता जानकारी और सूचना के जवानों को नक्सलियों के खिलाफ क्यों झोंक दिया गया?
गृहमंत्री इसे अपनी रणनीतिक चूक बता रहे हैं। दंतेवाड़ा में रिजर्व पुलिस बल के गश्ती दश्त पर हमला सीधे तौर पर राज-व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में द्घात लगाकर इससे पहले भी हमला होते रहे हैं। लेकिन जिस तरह का हमला पिछले ६ अप्रैल को हुआ वह माफी के लायक नहीं है। अब ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि नक्सली देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं। सरकार को उनके खिलाफ सख्त मुहिम चलाने की आवश्यकता है। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ की लगभग पूरी बटालियन नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गयी। जिस पैमाने पर गश्ती दल पर हमला हुआ उससे जो एक बात निकलकर समाने आती है वह यह है कि नक्सलियों ने पूरी रणनीति के तहत इस कार्रवाई को अंजाम दिया।पिछले कुछ अरसे से केंद्र सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों में ऑपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। नक्सलियों को अपने अस्तित्व बचाने की चिंता होने लगी। नक्सलियों के पांव उखड़ने लगे थे। ऐसे में बौखलाहट का होना लाजिमी है। जैसे-जैसे सरकार ने अभियान तेज किया, माओवादियों के हमले भी बढ़ते गये। इस खूनी खेल के बीच सियासी खेल भी तेज हो गया है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच सही तालमेल नहीं बन पाना और सियासी बयानबाजियों ने भी माओवादियों का मनोबल बढ़ाया। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की भेंट चढ़े जवानों की जान का जाना यह दिखाता है कि वहां चीजें सामान्य नहीं हैं। राज्य पुलिस बल और सीआरपीएफ में तालमेल की भारी कमी है। दोनों के बीच संवादहीनता की कमी है। किसी भी ऑपरेशन की सफलता उसके रणनीति पर निर्भर करती है। प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक करीब हजार लोगों ने द्घात लगाकर जवानों पर हमला किया। निश्चित तौर पर इसके लिए कई दिनों से प्रयास किया जा रहा होगा। गांव के खुफिया तंत्र को इसकी जानकारी भी रही होगी। सरकारी खुफिया विभागों को इसकी भनक तक नहीं लग पायी। इससे नक्सलियों के खिलाफ खुफिया तंत्र के दावे की सच्चाई तार-तार हो गयी। सरकार दिल्ली में बैठकर रणनीति बनाती है लेकिन अमली जामा पहनाने में वह अब तक नाकाम रही है।आपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत जून २००९ से दक्षिण-पश्चिम बस्तर में दंतेवाड़ा तथा बीजापुर जिलों से की गई। धीरे-धीरे इसका विस्तार अन्य इलाकों में हुआ। एक तरफ नक्सली समस्या से निपटने की पुख्ता रणनीति तो दूसरी ओर उन कारकों को दूर करने की कोशिश , जो नक्सलियों के लिये क्षेत्र को उर्वरा बना रहे हैं। इलाके में तैनात की गई सेना ग्रामीणों का दिल जीतने की कोशिश कर रही है। ग्रामीणों में यह विश्वास पैदा करने की भी कोशिश चल रही है कि सेना उन्हें मार गिराने के लिए नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए लगाई गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों? जनता नक्सलियों को अपना रक्षक क्यों मानने लगी। निश्चित रूप से इसके लिये सरकारी मशीनरी ही दोषी है।
सरकार योजनायें तो बनाती हैं लेकिन अफसरों एवं नेताओं तक ही सिमट कर रह जाती हैं। जाहिर सी बात है कि सरकारी एवं सामंती शोषण के बीच जब नक्सलियों की ओर से सहानुभूति दिखती है तो यहां के ग्रामीण उनके मुरीद हो जाते हैं। वे नक्सलियों की भूमिका और उद्देश्य पर गौर नहीं करते। इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखते कि वे जिसका सहयोग कर रहे हैं, वही सही है या गलत। उन्हें तो बस शोषण से बचने की एक किरण दिखाई पड़ती है और इस किरण के जरिये वह अंधेरी गलियारों में जिन्दगी की रोशनी ढूंढने लगते हैं।

रिश्ते सुधारने की जुगत

विगत कुछ वर्ष में अमेरिका से बढ़ती भारत की नजदीकियां और गोर्शकोव सौदे को लेकर भारत रूस के बीच तनातनी के चलते भारत और रूस के बीच दूरियां बढ़ी हैं। इस दौरान भारत ने हथियारों की आपूर्ति के लिए यूरोप, इजरायल और अमेरिका की ओर अपना रुख किया तो रूस की नाराजगी और भी परवान चढ़ी। लेकिन प्रधानमंत्री के रूस दौरे के दौरान दोनों देशों ने सामरिक क्षेत्र में आपसी सहयोग के महत्व को पहचाना। वैसे भी रूस सामरिक दृष्टि और हथियारों की आपूर्ति के मामले में हमेशा से भारत का विश्वसनीय सहयोगी रहा है। बीती बारह मार्च को भारत-रूस ने अपने मैत्री संबंधों को नए आयाम प्रदान किए। दोनों देशों ने नागरिक परमाणु समझौतों सहित कुल १९ करारों पर हस्ताक्षर किए। समझौते के तहत रूस, भारत में बारह परमाणु प्लांट बनाएगा, इसमें से छह कुंडनकुलम और छह पश्चिम बंगाल के हरिपुर में बनाए जाएंगे। इन महत्वपूर्ण करारों से उच्च एवं दुर्लभ तकनीक को लेकर दोनों देशों के बीच कई दशक पुराने दोस्ताना संबंधों में फिर एक नए युग की शुरुआत हुई। भारत-रूस नागरिक परमाणु समझौते के तहत परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग का प्रावधान शामिल है। समझौते के तहत भारत में रूसी डिजायन के न्यूक्लियर पॉवर प्लांट लगाए जाएंगे। नाभिकीय करार में रूस ने भारत को वो सारी रियायतें मुहैया कराईं जो अमेरिका उसे नहीं दे सका।एडमिरल गोर्शकोव के मोल-भाव को लेकर दो साल पहले तनावपूर्ण हुए भारत-रूस के सामरिक संबंध २० हजार करोड़ के रक्षा समझौतों के बाद फिर पटरी पर लौट आए हेैं। रूस के प्रधानमंत्री व्लादिमीर पुतिन की मौजूदगी में हुए करीब चार बिलियन अमेरिकी डॉलर के असैन्य परमाणु समझौते के तहत भारत में रूस १२ परमाणु संयंत्र बनाएगा। करीब २० हजार करोड़ रुपये के इन समझौतों के तहत भारत विमानवाहक पोत एडमिरल गोर्शकोव की खरीद के लिए २.३४ बिलियन अमेरिकी डॉलर के भुगतान पर सहमत हो गया। पहले इस पोत की खरीद के लिए मात्र ९७४ मिलियन डॉलर का भुगतान होना था, लेकिन कई दौर के मोल-भाव के बाद आखिरकार यह सौदा अपने अंजाम को पहुंचा।गौरतलब है कि भारत को यह पोत २०१३ से पहले नहीं मिल सकेगा। रूस के साथ हमारे संबंध हमारी विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक संबंधों के लिहाज से काफी मायने रखते हैं। अन्य समझौतों में ओएनजीसी और रूस के गेजप्रोम के बीच हाइड्रोकार्बन के क्षेत्र में समझौता, इसरो और रूस की फेडरल स्पेस एजेंसी के बीच भी सहमति पत्र पर दस्तखत और उर्वरक के क्षेत्र में दो तथा हीरे के क्षेत्र में पांच समझौतों पर दस्तखत शामिल हैं। हीरा क्षेत्र में सहयोग के लिए रूस की फर्म अल रोजा से एग्रीमेंट हुआ। १.५ अरब डॉलर की लागत से २९ मिग-२९ फाइटर प्लेन खरीदने की डील भी हुई। यह विमान २०१२ से मिलने शुरू होंगे। इसके साथ ही सैन्य परिवहन विमान एमटीए के लिए संयुक्त उद्यम लगाने पर भी सहमति बनी। इसके अलावा आतंकवाद को लेकर भी दोनों देशों के नेता काफी गंभीर दिखे। अफगानिस्तान पर चर्चा के दौरान दोनों देश आपसी सलाह-मशवरा का दायरा बढ़ाने पर सहमत हुए। आतंकवाद से निबटने के लिए भी दोनों देश सहयोग बढ़ाएंगे। पुतिन ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी गुटों को पूरी दुनिया के लिए खतरा बताया। उन्होंने कहा वह आतंकवादी गुटों के बारे में भारत की चिंताओं को समझते हैं कि अफगानिस्तान बॉर्डर के पास होने के कारण भारत की सुरक्षा प्रभावित हो रही है। पुतिन ने स्वीकार किया कि रूस की चिंताएं भी भारत जैसी ही हैं। अफगानिस्तान और आतंकवाद पर आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए भारत और रूस ने सहमति जताई है।

नीयत पर सवाल

अगर आतंकवाद की बात की जाए तो यह हाल के दिनों में दुनियाभर के लिए चिंता का विषय रहा है। दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है। ९/११ की द्घटना को शायद ही अमेरिका कभी भूल पाए। यह वही द्घटना थी जिसने यह साबित कर दिया कि आतंकवादियों का काला साया अमेरिका जैसे देश पर भी है। ९/११ के बाद अमेरिका ने आतंकवादियों के खिलाफ जो अभियान चलाया उसने देखते ही देखते अफगानिस्तान में तालिबानी हुकुमत को नेस्तनाबूत कर दिया गया। आज भी वहां आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई जारी है। जहां अमेरिका का आतंकवाद के खिलाफ यह एक सख्त चेहरा रहा है, वही दूसरी ओर भारत की औद्योगिक राजधानी मुंबई में हुए २९/११ के हमले के प्रमुख अभियुक्त को वह अपने यहां शरण दिये हुए है। उसे बचाने के लिए अमेरिका हरसंभव प्रयास में लगा है। एक ही समस्या दो तरह से नहीं देखी जा सकती। एक तरफ जहां अमेरिका ९/११ के आतंकवादियों के खिलाफ जंग छेड़े हुए है वहीं दूसरी ओर भारत पर हमला करने वाले आतंकियों को शरण देकर अमेरिका अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद को प्रोत्साहन देने का काम कर रहा है।
डेविड कोलमैन हेडली को लेकर भारत के प्रति अमेरिकी रुख की हकीकत सामने आ गयी। सरकार भले ही अमेरिका के साथ मधुर संबंधों की दुहाई दे, लेकिन अमेरिका ने पिछले दिनों साफ कर दिया कि उसकी नजर में भारत की औकात क्या है? भारत के गृह मंत्री और गृह सचिव भले ही यह मान रहे हों कि अमेरिकी आतंकवादी डेविड हेडली द्वारा अमेरिका में गुनाह कबूला जाना भारत के लिए झटका नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि हेडली ने ऐसा करके न केवल अपनी जान बचाई है, बल्कि अमेरिका का असली चेहरा उजागर होने से भी बचा लिया। सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका की नीयत शुरू से ही साफ नहीं थी।
यह सब एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ। दरअसल हेडली ने गुनाह कबूल कर सरकारी गवाह बनने का प्रयास किया जिसमें वह कामयाब रहा।लेकिन कई सवाल भी हैं, जो अमेरिकी भूमिका को कटद्घरे में खड़ा करते हैं। दरअसल हेडली डबल एजेंट था और ऐसे में अमेरिका को अपनी पोल खुलने का खतरा पैदा हो गया था। अगर हेडली भारत को सौंप दिया जाता, तो यह सच्चाई पूरी दुनिया के सामने आ जाती कि वह लश्कर के लिए काम करने के अलावा अमेरिकी खुफिया एजेंसी का भी एजेंट था। ऐसा होने पर अमेरिका बेनकाब हो जाता। ऐसे में अमेरिका ने हेडली को गवाह बनाकर अपनी इज्जत और उसकी जान दोनों ही बचा ली।अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने डेविड हेडली को शिकागो से अक्टूबर २००९ में गिरफ्तार किया था। खुफिया ऐजेंसी उस पर एक वर्ष से भी ज्यादा समय से नजर रख रही थी। उसके और लश्कर-ए-तैयबा के बीच जारी हुई ई-मेल पहले ही पकड़ी जा चुकी थीं। लेकिन, उसने भारतीय एजेंसियों को इसकी सूचना नहीं दी।ऐसे में अब भारत चाहे जितनी कोशिश कर ले, हेडली को भारत लाकर मुकदमा चलाना एक सपना ही होगा। अमेरिकी कानूनी दांव-पेंच लगाकर हेडली को अप्रत्यक्ष रूप से सहायता कर रही है। हेडली ने शुरुआत में आरोपों से इनकार किया था लेकिन बाद में उन्हें मान लिया जिसके चलते वह सजा ए मौत या भारत, पाकिस्तान, डेनमार्क प्रत्यर्पण से बच गया। भारत के आग्रह पर अमेरिका पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह स्पष्ट नहीं है लेकिन कहीं न कहीं अमेरिका की नियत में खोट जरूर दिख रहा है।

ब्रिटेन में चुनावी बिगुल

ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स की सभी ६५० सीटों के लिए ६ मई को आम चुनाव होगा। हाल में हुए एक सर्वेक्षण से उत्साहित सत्तारूढ़ लेबर पार्टी जहां अपनी लगातार चौथी जीत के लिए बेकरार हैं, वहीं कंजरवेटिव पार्टी १३ साल बाद अपनी खोयी राजनैतिक जमीन फिर से वापस पाने की कोशिश करेगी। इन दो पार्टियों के अलावा मैदान में तीसरी पार्टी है लिबरल डेमोक्रेट, यह पार्टी दोनों प्रमुख दलों से फायदा उठाने की कोशिश करेगी। त्रिशंकु संसद की स्थिति में सौदेबाजी करने के लिए लिबरल डेमोक्रेट ज्यादा राजनीतिक वजन बढ़ाने की कोशिश करेगी। हाल ही में हुए जनमत सर्वेक्षण में ब्रिटेन में होने वाले चुनावों में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने और संसद में त्रिशंकु स्थिति बनने की संभावना व्यक्त की गई है। अगर ऐसा हुआ तो यह वर्ष १९७० के मध्य के बाद से ब्रिटेन में पहली बार होगा। ब्रिटेन के समाचार पत्रों मेल टुडे और पीपुल्स में प्रकाशित जनमत सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट के अनुसार मुख्य विपक्षी दल कंजरवेटिव पार्टी प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन की लेबर पार्टी के मुकाबले नौ प्रतिशत अंक लेकर आगे है। एक अन्य सर्वेक्षण में भी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स में त्रिशंकु स्थिति के संकेत मिले हैं। समीक्षकों का मानना है कि कंजरवेटिव पार्टी को नौ अंकों की बढ़त मिलना यह दर्शाता है कि उसे बहुमत मिल सकता है। बीपीआई एक्स पोल में डेविड केमरुन की कंजरवेटिव पार्टी को ३९ प्रतिशत, लेबर पार्टी को ३० प्रतिशत और लिबरल डेमोक्रेट्स को १८ प्रतिशत अंक मिले हैं।
इराक युद्ध और आतंक विरोधी कानून के बावजूद ब्रिटिश मुसलमानों का झुकाव लेबर पार्टी की ओर बना हुआ है। सर्वे के मुताबिक लगभग ५७ प्रतिशत मुस्लिम सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के पक्ष में हैं। हालाकि ५३ प्रतिशत मुसलमानों का मानना है कि पिछले दशक में धार्मिक आजादी पर कई तरह की रोक लगी हैं। वहीं ४० प्रतिशत ईसाई प्रमुख विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी का समर्थन कर रहे हैं। इस बीच प्रमुख पार्टियां एशियाई लोगों के मत को अपने पक्ष में करने के लिए योजना बनाने में जुट गयी हैं। आगामी संसदीय चुनाव को देखते हुए कई सांसद संसद में अश्वेत और एशियाई मूल के सदस्यों की संख्या को बढ़ाने के लिए अभियान चला रहे हैं। ब्रिटेन की संसद के कुल सदस्यों में से केवल १५ अश्वेत हैं, जबकि देश की सामान्य आबादी के अनुपात के अनुसार अल्पसंख्यकों की जनसंख्या के हिसाब से ५८ सदस्य अश्वेत या एशियाई मूल के होने चाहिएं। लेबर पार्टी का मानना है कि प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन ने न सिर्फ आर्थिक मंदी से ब्रिटेन को निकाला है, बल्कि विश्व का भी प्रतिनिधित्व किया। लेकिन इस सब के बावजूद ब्राउन को अपनी ही पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। ब्रिटेन की गार्डन ब्राउन सरकार के दो पूर्व मंत्रियों ने मांग की है कि चुनावों में ब्राउन लेबर पार्टी का नेतृत्व करें या नहीं इस बारे में गुप्त मतदान होना चाहिए। उधर प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी बयान में कहा गया है कि पूरा मंत्रिमंडल प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के साथ है। ज्याफ हून और पैट्रिशिया हेविट ने संसद को लिखे पत्र में कहा है कि नेतृत्व के मुद्दे पर जारी अनिश्चितता पार्टी को चुनाव में अपना पक्ष मजबूती से रखने से रोक रही है और इसका फैसला सिर्फ गुप्त मतदान से हो सकता है। लेबर पार्टी के चेयरमैन टोनी लायड ने कहा है कि नेतृत्व को चुनौती कोई संकट नहीं है और यह चुनौती जल्द दम तोड़ देगी। ब्राउन के आलोचकों का कहना है कि उनकी छवि को आर्थिक संकट और अफगानिस्तान में ब्रिटिश सैनिकों की मौतों के चलते काफी नुकसान पहुंचा है। ब्रिटेन चुनाव में इन सब से अलग जो नया देखने को मिलेगा, वह रहेगा अमेरिका के चुनाव प्रचार का सफल तरीका। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का असर साफ देखा जा सकता है। प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की पत्नियां भी चुनावी मैदान में हैं। प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के सामने हैं प्रमुख विपक्षी पार्टी कंजरवेटिव के डेविड कैमरन। लेकिन इनकी चुनावी कमान सारा ब्राउन और सामंथा कैमरन के हाथों में होगी। सारा ब्राउन अपने पति की टीम में पब्लिक रिलेशन संभालने में अहम भूमिका निभा रही हैं। दूसरी तरफ डेविड कैमरन ने भी चुनावी अभियान में अपनी स्टाइलिश पत्नी सैम को शामिल कर लिया। वैसे सारा और सैम में समानताएं भी हैं और अंतर भी। सैम बहुत ही उच्च, संभ्रांत द्घराने से हैं, जबकि सारा मिडिल क्लास फैमिली से हैं। बहरहाल इन दोनों की बदौलत चुनावी दंगल काफी दिलचस्प होने वाला है।