Friday, August 21, 2009

अहमदीनेजाद की जीत में घ्हुपी है अमेरिका की हार

दरअसल, ईरान में अहमदीनेजाद की जीत को अमेरिका अपनी हार के रूप में देख रहा है और दुनिया के सामने ईरान का जो संकट दिखाया जा रहा है वह ईरान का आंतरिक संकट नहीं, बल्कि अमेरिका निर्मित है। अहमदीनेजाद की जीत से जहां अमेरिका के लिए संकट बढ़ा है तो भारत के लिए खाड़ी देशों से संबंध साुारने का एक अवसर मिला हैविपक्ष के विरोध प्रदर्शन के बीच 5 अगस्त को संसद में आयोजित भव्य समारोह में महमूद अहमदीनेजाद ने ईरान के राष्ट्रपति पद की शपथ ली। यह उनकी दूसरी पारी है। हालांकि इस मौके पर प्रमुख विपक्षी नेताओं,नरमपंथी सांसदों सहित अहमदीनेजाद के निर्वाचन को चुनौती देने वालों ने समारोह का बहिष्कार किया। ईरान के दोबारा राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने अपने इरादे स्पष्ट करते हुए कहा कि देश की परमाणु नीति में कोई फेरबदल नहीं किया जाएगा और अगर कोई देश ईरान पर हमला करता है तो उसे करारा जवाब दिया जाएगा। इस बीच व्हाइट हाउस के प्रवक्ता राबर्ट गिब्स ने अहमदीनेजाद के दूसरी बार राष्ट्रपति पद की शपथ लेने संबंधी प्रश्न पर कहा कि वो एक निर्वाचित राष्ट्रपति हैं। दूसरी ओर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पूरे घटनाक्रम पर बोलने के दौरान खासी सावधानी बरती है।इसका मुख्य उद्देश्य ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम पर वार्ता का रास्ता खुला रखना माना जा रहा है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगऔर अमेरिका से आशंकित टकराव के मद्देनजर यह अनुमान लगाया जा रहा था कि इस बार सुधारवादी नेता मीर हुसैन मुसावी को जीत हासिल होगी। लेकिन इतिहास ने अपने को फिर से दोहराया और चार साल पहले की ही तरह इस बार भी अहमदीनेजाद ने बाहरी दुनिया के चुनाव विश्लेषकों को गलत साबित कर दिया। एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि शहर के मतदाता भले समर्थन में न हों पर गांव और छोटे कस्बों के मतदाता मजबूती से अहमदीनेजाद के साथ लामबंद रहे। बेरोजगारी और महंगाई की विपरीत स्थितियों के बावजूद उन्होंने तेल के निर्यात से हुई कमाई को जनता के बीच उदारतापूर्वक बांटा। जिसका परिणाम ये हुआ कि दिक्कतों में जूझ रहे लाखों परिवारों को राहत मिली। इसी कारण ईरान की जनता ने राष्ट्रपति अहमदीनेजाद को दोबारा चुनकर दुनिया को यह संदेश दे दिया कि वह अपने देश की नीतियों में विश्वास करती है चाहे वह आंतरिक नीति हो या वैदेशिक। और अगर उन नीतियों में कुछ परिवर्तन भी होगा तो वह अहमदीनेजाद के नेतृत्व में न कि मीर हुसैन मुसावी की अगुवाई में। अब अहमदीनेजाद ईरान के एटमी कार्यक्रमों और पश्चिम एशिया में शांति के विभिन्न प्रयासों पर होने वाली वार्ताओं में और ज्यादा सख्त रवैया अपना सकते हैं। इसके विपरीत यह भी संभावना है कि इस चुनाव में ईरान की विदेश नीतिघरेलू अर्थव्यवस्था और महिला अधिकारों से जुड़े सामाजिक और ाार्मिक सुधारों पर हुई लंबी बहसों के बाद वे अपनी अनुदार नीतियों में कुछ उदारता का भी समावेश कर सकते हैं। ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता आयतुल्ला अली खामनयी ने वहां हुए राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को चेतावनी देते हुए कहा था कि विरोध प्रदर्शन स्वीकार्य नहीं हैं और ये बंद हो जाने चाहिए। उन्होंने इन चुनावों को सही ठहराते हुए राष्ट्रपति अहमदीनेजाद का पूरी तरह समर्थन करते हुए कहा था कि हार जीत का अंतर एक करोड़ दस लाख वोटों का है। इतनी बड़ी संख्या में वोटों की धांधली आखिर कैसे की जा सकती है? उन्होंने लोगों से कहा कि कानून के दायरे में रहें और के चुनावी नतीजे पर जिन्हें शक है, वे अदालत जा सकते हैं। उनका यह भी कहना था कि चुनावों में लोगों की भागीदारी से स्पष्ट होता है कि ईरान की जनता खुशी और सुकून से जीवन गुजार रही है और यही वजह है कि उन्होंने चुनावों में बड़ी तादाद में हिस्सा लिया। खामनयी ने राष्ट्रपति अहमदीनेजाद का समर्थन करते हुए कहा कि वो विदेश नीति और सामाजिक कल्याण के मामले में राष्ट्रपति के नजरिये का सम्मान करते हैें। खामनयी ने अमेरिका और पश्चिमी देशों पर देश में अशांति को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। हाल के वर्षों में ईरान की आतंकी छवि बनाने करने में अमेरिका ने कोई कसर नही छोड़ी है। ऐसा करने की जरूरत अमेरिका को इसीलिए पड़ती है कि उसे अपनी करतूतों पर लीपापोती के लिए और कुछ न करना पड़े। दरअसल, ईरान में मुसावी की हार अमेरिका की पराजय है क्योंकि अमेरिका राजनीतिक स्तर पर यहां वातावरण को बदल रहा था।अपनी समर्थित सरकार लाकर वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर प्रतिबंध लगा देता और इजराइल पर होने वाला संभावित हमला हमेशा के लिए टल जाता यह भी संभव था कि ईरान समर्थक हिजबुल्ला जो लेबनान में रहते हैं, इनकी सहायता फिर ईरान सरकाकी ओर से न हो पाती और इस तरह इजराइल को आसानी से मौका मिल जाता कि वह दक्षिण लेबनान पर अपना कब्जा जमा ले। निश्चित ही अमेरिका अब ईरान पर हमला करने की स्थिति में नही है पर उसकी पूरी कोशिश दबाव की थी कि ईरान परमाणु हथियार न बनाए। ईरान की जनता अहमदीनेजाद को कामयाब बनाकर अपना जवाब दे चुकी है। अब ईरान के नतीजों को मान्यता देने वाला अमेरिका कौन होता है? यह अधिकार उसको किसने दिया कि चुनाव में धांधली का जायजा ले। अमेरिका ने जिस तरह अहमदीनेजाद की कामयाबी को निरस्त किया, उससे ऐसा महसूस होने लगा था मानो बुश प्रशासन की वापसी हो रही है। काहिरा में ओबामा ने ईरान के साथ परमाणु हथियार कार्यक्रम को लेकर चल रहे तनाव पर कहा था कि ईरान शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए परमाणु अप्रसार संधि के प्रतिबंधों को माने। साथ ही साथ अमेरिकराष्ट्रपति ओबाना ने यह भी स्वीकार किया कि 1953 में ईरान की निर्वाचित सरकार का तख्ता पलटने में अमेरिका का हाथ था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि इन प्रदर्शनों के पीछे जो ताकत काम कर रही थी, वह मुसावी की नहीं, बल्कि रफसनजानी की थी। अहमदीनेजाद ने खुले तौर पर निजी कारोबार में फैले भ्रष्टाचार को चुनौती दी थी जिसमें रफसनजानी का लंबा चौड़ा साम्राज्य भी शामिल है। सच यह है कि इन विराो प्रदर्शनों के पीछे बाहरी चीजें विशेषकर पश्चिमी देश और अमेरिका की नीति असर कर रही थी। लेकिन विरोध प्रदर्शनों के इतने लंबे खिंच जाने के पीछे रफसनजानी की अपनी महत्वाकांक्षा भी थी। रफसनजानी हमेशा विवादों में रहे हैं।2005 के चुनाव के दौरान उन्हें पश्चिमी देशों ने उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट किया था, जबकि पहेली यह है कि रफसनजानी 1989 से 1998 के बीच ईरान के राष्ट्रपति रहे लेकिन उनके इस पूरे कार्यकाल के दौरान ईरान और पश्चिम का कभी मेल नहीं हुआ। 2005 में उनकी पराजय क्रिश्चियन अमानपोर के साथ हुए साक्षात्कार के बाद लगभग तय हो चुकी थी। भारत के साथ ईरान के संबंधों का इतिहास हजारों साल पुराना है। इस्लाम के अभ्युदय के पहले से ही दोनोदेशों के बीच आर्थिक, राजनयिक रिश्ते घनिष्ठ रहे हैं। खान-पान हो या पहनावा, भवन निर्माण शैली हो या गीत संगीत, साहित्य हो या सामाजिक ढ़ रहे हैं, वहीं नयी दिल्ली में सरकार सोच विचार की गहराई में डूबी हुई है। शायद वह सर्वोच्च शक्ति से मिलने वाले संकेत की प्रतीक्षा कर रही