पहली बार ऐसा देखने को मिला जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर विश्व भर के नेताओं ने बारह दिनों तक माथापच्ची की, एक मंच पर दिखे, रूठने मनाने का सिलसिला चला,आखिरी वक्त तक संस्पेंस बना रहा। दो डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए ग्रीनहाउस गैसों में कटौती की बात कही गयी पर किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा?
विकसित देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जिस तरह पीछे हटे उससे उनकी नीयत पर शक होना आवश्यक है। किसी सम्मेलन में सहमति पर पहुंचने के लिए इतनी खींचातानी कभी नहीं हुई। अंततः कोपेनहेगन का नतीजा सिफर रहा। इस सम्मेलन की कोई उपलब्धि रही हो या नहीं पर एक बात जरूर सामने आई वह यह कि दुनिया भर के लोग इसे लेकर चिंतित जरूर दिखे। इसने एक अहसास जरूर पैदा किया कि पृथ्वी गंभीर संकट में हैं
बारह दिनों तक चले कोपेनहेगन सम्मेलन के अंतिम दिन तक गतिरोध बना रहा। थक हार कर अंततः वही समझौता पारित कर दिया गया जो अमेरिका ने भारत, चीन, ब्राजील सहित कुछ प्रमुख विकासशील देशों के साथ मिल कर तैयार किया था। २०२० तक ग्लोबल वार्मिंग दो डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रखने पर सहमति बनी है लेकिन इसके लिए कोई स्पष्ट समय सीमा या कानूनी बंदिश नहीं है। समझौते में कार्बन उत्सर्जन कम करने के संबंध में कोई बाध्यकारी लक्ष्य द्घोषित करने का जिक्र नहीं किया गया है। विकसित देश अपने रवैये पर अड़े रहे। कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन पर डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में हुए शिखर सम्मेलन में कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो पाने की वजह से २०१० में मेक्सिको में होने वाले शिखर सम्मेलन पर पूरी दुनिया की नजर लग गयी है। गौरतलब बात यह है कि कोपेनहेगन समझौता में धरती के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की बढ़ोतरी नहीं होने देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन यह तय नहीं हो पाया की इस लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा।
फिलहाल यह कहना कठिन है कि यह समझौता भविष्य में क्या गुल खिलाएगा। लेकिन इसे एक शुरुआत जरूर कहा जा सकता है। इस समझौते को सम्मेलन में सर्व सहमति से स्वीकार नहीं किया गया। लेकिन इस पर आगे विचार करने का मार्ग जरूर प्रशस्त हुआ है। एक चीज और उभरकर सामने आयी वह यह कि दुनिया के सभी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश कम से कम एक मंच पर जरूर इकट्ठा हुए। हालांकि अमेरिका और विकासशील देशों के बीच समझौते में किसी तरह का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है। सम्मेलन में शामिल प्रतिनिधियों ने अमेरिका और कुछ प्रमुख विकासशील देशों के बीच हुए समझौते को स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। लेकिन उन्होंने इस पर विचार व्यक्त करने पर सहमति जताई। इन देशों का मानना है कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य काफी कम है। पर्यावरण से जुड़े लोग इस समझौते को नाकाफी और दिशा विहिन समझौता मान रहे हैं।
कोपेनहेगन में विकासशील एवं निर्धन देश यह चाह रहे थे कि विकसित देश कम से कम चालीस प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने पर सहमत हो जाएं, लेकिन अमेरिका इसके लिए तैयार नहीं हुआ। उसने खुद कार्बन उत्सर्जन में तीन-चार प्रतिशत कमी लाने की हामी भरी और भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देशों को अंतरराष्ट्रीय निगरानी वाले दायरे में लाने की कोशिश की। इस तरह उसने अपनी जिम्मेदारियों से साफ मुंह-मोड़ लिया। भले ही अमेरिका यह कहे कि वह एक संतोषजनक समाधान पर पहुंच चुका है लेकिन जी-७७ विकासशील देशों एवं अन्य निर्धन राष्ट्रों ने जिस तरह इस समझौता को खारिज कर दिया उससे यह समझा जा सकता है कि कोपेनहेगन में कुछ हाथ नहीं लगा। विकसित देश पर्यावरण में आ रहे बदलाव को लेकर चिंता जरूर जता रहे हैं लेकिन बाकी दुनिया की सबसे बड़ी चिंता यह है कि वे सिर्फ चिंता जता रहे हैं। विकसित देश कार्बन उत्सर्जन को कम करने से जिस तरह पीछे हटे उससे उनकी प्रतिबद्धता पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। १९९० से ही अमेरिका पर्यावरण संरक्षण के उपायों से खुद को अलग करता चला आ रहा है। बुश प्रशासन की तरह ओबामा ने भी क्वोटो प्रोटोकॉल से किनारा करने में अपना हित समझा। शायद यही वजह है कि कोपेनहेगन में कोई सर्वमान्य समझौता नहीं हो सका।
पर्यावरण संरक्षण पर गंभीरता दिखाने वाले यूरोपियन देशों ने १९९० के आधार पर २०२० तक ३० प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन में कटौती की पेशकश की बशर्ते अमेरिका भी उनका साथ दे। विकसित देश यह तो मान रहे हैं कि यदि भारत, चीन, ब्राजील सरीखे देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं की तो २०२० तक पर्यावरण का बेहद बुरा हाल हो सकता है, लेकिन वे इन देशों की चिंताओं के अनुरूप कोई कदम नहीं उठाना चाहते। जहां विकसित देशों ने भारत,चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को अंतरराष्ट्रीय निगरानी वाले समझौते में बांधने की कोशिश की वहीं इन चार देशों ने विकसित देशों पर कार्बन उत्सर्जन में प्रभावी कटौती करने का दबाव बनाया है। दोनों पक्ष अपने-अपने हितों को साध रहे हैं इसलिए किसी सहमति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही वजह है कि कोपेनहेगन में आखिरी क्षणों तक गहमागहमी और भ्रम का माहौल बना रहा। शायद यह पहला अवसर है जब किसी सम्मेलन में सहमति पर पहुंचने के लिए इतनी खींचतान हुई और फिर भी नतीजा सिफर रहा! महत्वपूर्ण बात यह है कि जब क्वोटो प्रोटाकॉल की लिखित शर्तों को बड़े देशों ने मानने से इनकार कर दिया, तो कुछ देशों की सहमति पर भला किस तरह अमल होगा। उससे भी बड़ी चिंता यह है कि पृथ्वी के गरमाते चले जाने का कोई समाधान नहीं है। अगर दुनिया को वाकई बचाना है तो ग्रीन हाउस गैसों में २५ से ४० फीसदी तक कटौती करनी पड़ेगी। इस सम्मेलन का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि दुनिया भर के लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ी। इसी झंझावत के बीच भविष्य में कोई समाधान सामने जरूर आएगा।
Thursday, January 7, 2010
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