Friday, December 11, 2009

क्या इरान -अमेरिका करीब आ सकेगे

अमेरिका वर्तमान में इराक और अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसा हुआ है। वह यहां से किसी तरह नाक बचाकर निकलना चाहता है। ऐसे में उसे आज ईरान की जरूरत महसूस हो रही
है। यही वजह है कि एक वर्ष पहले तक ईरान के एटमी ठिकानों को तबाह करने की धमकी देने वाला अमेरिका आज ईरान से दोस्ती का राग अलाप रहा है। ईरान के प्रति अमेरिका की पुरानी दुश्मनी को देखते हुए ईरानी नेतृत्व उस पर विश्वास करने में हिचक रहा है
रान के मामले में अमेरिका क्या सोचता है, अमेरिकी नीतियां क्या हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है। ईरान के एटमी मंसूबों को रूस के समर्थन के मद्देनजर अमेरिका ने अपनी जो कूटनीति तय की, उसमें फ्रांस और जर्मनी का उकसावा भी शामिल है। इजराईल की परमाणु क्षमता ईरान के लिए अस्तित्व की समस्या है। ऐसे में वाशिंगटन में बैठे बूस रिडल जैसे नीति निर्माताओं के बयान ईरानियों को मददगार प्रतीत हो रहे हैं। रिडल का कहना है कि मध्य पूर्व में एटमी मसलों पर दोहरे मापदंड अपना कर शांति हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए जेनेवा हो या वियना, सभी प्रयासों में इजराईल के परमाणु हथियारों को सामने लाने की कोशिश हो रही है। १२ जून को पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी और राष्ट्रपति चुनाव में पराजित मीर हुसैन मुसावी ने जो जोरदार प्रदर्शन किए थे, उसके बाद से ईरान में तेजी से हुए बदलावों को आंकना दिलचस्प है।
अविश्वास और टकराव के लंबे दौर के बाद अमेरिका अब ईरान के साथ दोस्ती चाहता है। बीते ४ नवंबर को अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ कर दिया कि अमेरिका लगातार शक, अविश्वास और टकराव के इस अतीत से आगे जाना चाहता है और परस्पर हितों और सम्मान के आधार पर इस्लामी गणराज्य ईरान के साथ रिश्ता बनाना चाहता है। ओबामा का यह बयान ईरान की मुख्य भाषा फारसी में भी जारी किया गया। ओबामा ने स्पष्ट किया कि अमेरिका ईरान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। उन्होंने ईरान में हुए आतंकी हमलों की भी भर्त्सना की। अपने बयान में शांतिपूर्ण परमाणु शक्ति के रूप में ईरान के अंतरराष्ट्रीय अधिकार का सम्मान करने की बात कही। विश्व समुदाय के अन्य देशों के साथ अपने विश्वास बहाली के प्रयासों के प्रति अपनी इच्छा प्रकट की। ओबामा ने, ईरान के अनुरोध पर ईरानी जनता की चिकित्सीय जरूरतों और अन्य मदद को पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के प्रस्ताव को स्वीकार करने की भी बात कही। उन्होंने माना कि हर राष्ट्र की तरह ईरान अपने दायित्वों को पूरा करता है तो वह उसे समृद्धि की राह पर प्रशस्त करेगा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सकारात्मक संबंध बनाएगा। अब आगे क्या करना है इसका निर्णय ईरान को करना है। ओबामा ने कहा कि फैसला ईरान सरकार को करना है कि वह अतीत के मुद्दे से ही जूझना चाहती है या अपने देश के लिए अवसर, समृद्धि तथा न्याय का एक व्यापक द्वार खोलना चाहती है।
अमेरिका के इस कदम पर तेहरान में व्यापक तौर पर प्रतिक्रिया हुई है। प्रमुख धार्मिक नेता आयतुल्लाह अहमद जन्नती ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हालिया ईरान संबंधी बयान को उद्धरित करते हुए कहा कि दोनों पक्षों के मतभेद आधारभूत प्रकार के हैं और दोनों देशों के बीच एक बड़ा मुद्दा इजराईल और अमेरिका का रवैया है, जो क्षेत्र में तनाव, जनसंहार और अत्याचार जारी रखे हुए हैं। यदि अमेरिका इसी प्रकार इजराईल का समर्थन करता रहा तो तेहरान और वाशिंगटन के संबंध वर्तमान रूप में ही जारी रहेंगे। लेबनान, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक के मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप बंद किए जाने पर बल दिया और कहा कि जनमत की द्घृणा नारों से समाप्त नहीं हो सकती। अमेरिका से विश्व जनमत की द्घृणा का कारण वाशिंगटन के हाथों विश्ववासियों पर अत्याचार और उनके अधिकारों का हनन है।
साथ ही देश के राष्ट्रपति चुनावों को अस्वस्थ दर्शाने के लिए पश्चिमी संचार माध्यमों के जारी दुष्प्रचारों की ओर संकेत करते हुए कहा कि केवल ईरान का चुनाव ही शत्रुओं के निशाने पर नहीं बल्कि उनका उद्देश्य मतभेदों और तनाव को हवा देकर इस्लामी गणतंत्र की व्यवस्था और इस्लामी क्रान्ति का अंत करना था। किंतु जनता की चेतना, एकता, नैतिकता और सच्चाई तथा इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के मार्गदर्शनों से शत्रुओं के सारे षड्यंत्र निष्फल हो गये। अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा का व्यवहार कूटनीतिक नाटक और शब्द-जाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है और वे केवल शांतिप्रेम का दिखावा कर रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति के परिवर्तन के नारे तथा ईरानी नव वर्ष पर उनके बधाई संदेश की ओर संकेत करते हुए कहा कि इससे न केवल यह कि किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है, बल्कि ईरानी जनता के नाम उनके इस बधाई संदेश में भी उन्होंने ईरानी राष्ट्र पर आतंकवाद के समथ्र्ान और परमाणु बम रखने का आरोप लगाया है।धार्मिक नेता खातेमी ने इस बात पर बल दिया कि अमेरिका ने पिछले ५० वषोर्ं से अब तक एक क्षण भी ईरान के विरुद्ध षड्यत्र करना नहीं छोड़ा है। यदि हमने वास्तविक परिवर्तन को देखा तो हमारी धार्मिक शिक्षाएं हमसे कहती हैं कि यदि दूसरा पक्ष वास्तव में संधि करना चाहता है तो तुम भी उसमें रुचि दिखाओ। किंतु यदि हमने यह देखा कि वे केवल मधुर संबंधों का दिखावा कर रहे हैं और उनका व्यवहार धूर्ततापूर्ण है तो अमेरिका के साम्राज्यवादी व्यवहार के संबंध में ईरानी जनता का ३० वर्षों से चला आ रहा साम्राज्य विरोधी रवैया जारी रहेगा। व्हाइट हाउस की विदेश नीतियों में परिवर्तन के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के वचन की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी तक अमेरिकी व्यवहार में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि यद्यपि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ वार्ता की इच्छा प्रकट की है किंतु उन्होंने भी ईरान के बारे में पूर्व बुश सरकार के निराधार दावों को दोहराया है। ईरान के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ आयतुल्लाह हाशमी रफसंजानी ने अपनी प्र्रतिक्रिया में कहा अमेरिका ने लगभग पचास वर्षों से ईरान पर अत्याचार किये हैं किंतु यदि अब वह संधि चाहता है तो अपनी सद्भावना का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने अमेरिकी जनता से कोई मतभेद होने से इन्कार किया। यदि अमेरिकी सरकार हमारे साथ अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार व्यवहार करे तो उससे भी हमारी कोई शत्रुता नहीं रहेगी। पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी ने कहा कि अमेरिका के आतंरिक मामलों से हमारा कोई संबंध नहीं है किंतु यदि अमेरिका ने अन्य राष्ट्रों पर अत्याचार जारी रखा तो हम चुप नहीं रहेंगे।
इस बीच ६ नवंबर को परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी आईएईए ने एक बार फिर बल देकर कहा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूर्ण रूप से शांतिपूर्ण है। आईएईए के महानिदेशक मुहम्मद अलबरादेई ने न्यूयॅार्क में अमेरिका की विदेश नीति परिषद की बैठक में कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ईरान परमाणु शस्त्र बनाने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने इसी प्रकार आशा जताई कि उनका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व ईरान को परमाणु ईंधन देने के बारे में समझौता हो जाएगा। ईरान के विरुद्ध कुछ सैनिक धमकियों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि इजराईल ने ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर आक्रमण का प्रयास किया तो मध्य-पूर्व का क्षेत्र आग के गोले में परिवर्तित हो जाएगा। उन्होंने कहा कि वे बार-बार कह चुके हैं कि ईरान के परमाणु मामले का समाधान कूटनीतिक मागार्ंे से किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि ईरान के प्रस्तावित पैकेज और जेनेवा वार्ता की ओर संकेत करते हुए तेहरान ने विश्वास दिलाने का प्रयास किया है कि उसने सदैव आईएईए के नियमों और कानूनों के अनुसार परमाणु क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया है। ईरान विश्व को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह किसी भी देश पर आक्रमण का इरादा नहीं रखता किंतु इसके साथ ही किसी को भी ईरान के हितों पर आक्रमण करने की अनुमति भी नहीं देगा।
बीसवीं सदी के ईरान की सबसे महत्वपूर्व द्घटना थी ईरान की इस्लामिक क्रांति। शहरों में तेल के पैसों की समृद्धि और गांवों में गरीबी। सत्तर के दशक का सूखा और शाह द्वारा यूरोप के देशों के प्रतिनिधियों को दिए गए भोज जिसमें अकूत पैसा खर्च किया गया था, ने ईरान की गरीब जनता को शाह के खिलाफ भड़काया। इस्लाम में निहित समानता को अपना नारा बनाकर लोगों ने शाह के शासन का विरोध करना आरंभ किया। १९७९ में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए जिनमें हिंसक द्घटनाओं की संख्या बढ़ती गई। शाह के समर्थकों तथा विरोधियों में हिंसक झड़पें हुइर्ं और इसके फलस्वरूप १९७९ में पहलवी वंश का पतन हो गया और आयतुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना। इस्लामिक दुनिया में अपनी स्थित मजबूत की। इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया।
दरअसल, अमेरिका की सोच के पीछे पश्चिम एशिया की बदलती हुई परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है। खाड़ी युद्ध के बाद से लगातार ईरान अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा रहा। और वह इसमें कामयाब भी रहा। अमेरिका ने ईरान पर दबाव बनाने के लिए इराक और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया। लेकिन अमेरिका खुद अपनी ही चाल में फंसता गया। इराक और अफगान युद्ध के बाद अमेरिकियों को जो शमिर्ंदगी उठानी पड़ी वह किसी से छिपी नहीं है। इराक में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद वहां की सत्ता शियाओं के हाथ में आ गयी। ईरान भी एक शिया बहुल देश है।
ऐसे में इराक और ईरान की नजदीकियां बढ़ना स्वाभाविक है। शियाओं के देश इराक का सऊदी तेल भंडार क्षेत्र दमन के करीब आना, सऊदी अरब के लिए चिंता का विषय है। स्थितियां थोड़ी बदलीं तो बहरीन, लेबनान में शियाओं की बहुलता, कुवैत में शिया जनसंख्या आदि कारण भी तेहरान का हौसला बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं। वहीं ईरान के संबंध सीरिया के साथ काफी अच्छे हैं। २००३ में अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन को बेदखल किए जाने के बाद से अमेरिका खुद अपनी ही चाल में उलझ गया। अब ऐसे में अगर उसे पश्चिम एशिया में बने रहना है तो ईरान से दोस्ती तो करनी ही पड़ेगी।

कैसे बहाल हो लोकतंत्र

नेपाल पिछले एक दशक से राजनीतिक अस्थिरता का शिकार है। पूर्व नरेश के सत्ता से हटने के बाद ऐसा लग रहा था कि वहां लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। लेकिन हाल के द्घटनाक्रम से ऐसा महसूस हो रहा है कि वहां की जमीन अभी लोकतंत्र को विकसित करने के लिए तैयार नहीं है। आम जनता की भावनाओं का
प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां बिखराव की शिकार हैं और देश को एक संविआँाान देने में भी असमर्थ नजर आ रही हैं
नेपाल में राजशाही को समाप्त हुए करीब दो साल हो गए। उम्मीद थी लोकतंत्र स्थापित होगा और जनता की सरकार जनता के लिए स्थापित होगी। पर यह हो न सका है। शायद नेपाल दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जहां एक ही समय में दो नेता उप प्रधानमंत्री पद पर हैं। हारे हुए नेताओं से वहां की सरकार चल रही है। दो जगह से चुनाव हारे प्रधानमंत्री माधव नेपाल राज कर रहे हैं। नये संविधान निर्माण के लिए आम चुनाव हुआ था। संविधान निर्माण का काम समय पर पूरा होगा, इस पर शक ही है। शांति प्रक्रिया मजाक बन कर रह गयी है। माओवादी नहीं चाहें तो क्या मजाल कि कोई सड़क पर चले या संसद चला ले। माओवादियों ने सरकार के प्रति विरोध प्रदर्शन के तहत काठमांडू द्घाटी को ठप कर दिया था। सरकार ने माओवादियों से निपटने के लिए सेना और पुलिस बल को हाईअलर्ट कर दिया था।
इन सब के बीच नेपाल में पिछले कई महीनों से जारी गतिरोध के खत्म होने की संभावना बढ़ गयी है। सिंगापुर में पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला और माओवादियों के प्रमुख नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच हुई मुलाकात में इस समस्या को सुलझाने के लिए रोडमैप तैयार कर लिया गया है। एक समझौते के तहत नेपाल के दोनों प्रमुख नेता मौजूदा संकट और गतिरोध खत्म करने के लिए बहुदलीय राजनीति तंत्र बनाने पर एकमत हो गए हैं। इस समझौते के बाद माओवादी नेता प्रचंड ने देश में जल्द ही नई सरकार के अस्तित्व में आ जाने की उम्मीद जाहिर की। उन्होंने बताया कि इसके लिए एक उच्च स्तरीय राजनीतिक तंत्र बनाया जाएगा। इस बात के जरिए उन्होंने राजनीतिक दलों के नए गठजोड़ की संभावना की ओर इशारा किया।सिंगापुर में कोईराला और प्रचंड के बीच करीब ४५ मिनट की बातचीत के दौरान देश के ताजा संकट पर विचार-विमर्श किया गया। कोईराला ने प्रचंड को राष्ट्रपति का अपमान किए बिना संकट का समाधान खोजने के लिए राजी किया। प्रचंड के सहयोगी समीर दहल के मुताबिक कोईराला के प्रस्ताव पर प्रचंड ने स्वीकृति दे दी है।
इसके बाद दोनों नेताओं के बीच सहमति बन गयी है। माओवादी मई में अपनी सरकार गिरने के बाद से नियमित तौर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उन्होंने २२ पार्टियों वाली गठबंधन सरकार को अपदस्थ करने के लिए आंदोलन शुरू किया था। वे राष्ट्रपति रामबरन यादव से माफी मांगने को कह रहे थे। साथ ही देश में असैनिक शासन स्थापित करने की भी मांग कर रहे थे। माओवादियों ने विगत चार माह से संसद की कार्यवाही को भी बाधित कर रखा था। इसकी वजह से मौजूदा वित्तीय वर्ष का बजट अब तक पारित नहीं हो सका था।
प्रधानमंत्री कुमार माधव की ओर से की गई बातचीत की पेशकश ठुकराने के दो दिन बाद ही माओवादी बीच का रास्ता खोजने में जुटे थे। इसकी तलाश में प्रचंड ने सिंगापुर के अस्पताल में भर्ती पूर्व प्रधानमंत्री कोईराला से मुलाकात करने का फैसला कर सबको भौंचक कर दिया था। माओवादियों ने केंद्रीय सचिवालय और अन्य क्षेत्रीय प्रशासनिक कार्यालयों का भी कई दिनों से द्घेराव कर रखा था। देश में सरकारी कामकाज पूरी तरह ठप था और आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। मांगों के पूरा नहीं होने पर उन्होंने देशव्यापी बंद की धमकी भी दे रखी थी। माओवादी राष्ट्रपति रामबरन यादव से नागरिक सर्वोच्चता बहाल करने और मौजूदा गठबंधन सरकार को बर्खास्त करने की मांग पर अड़े थे। साथ ही प्रचंड द्वारा बर्खास्त किए गए सैन्य प्रमुख से भी माओवादी नाराज थे। सूत्रों के मुताबिक कोईराला ने प्रचंड से कहा कि वह राष्ट्रपति का अपमान किए बिना समाधान का समर्थन करें, जिस पर प्रचंड ने सकारात्मक सहमति दी है।
इस बीच नेपाल के सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व कर रही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) का कहना है कि नेपाल के प्रगति करने के लिए भारत का साथ जरूरी है। सीपीएन (एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी) के चेयरमैन झलनाथ खनाल ने अपनी भारत यात्रा के दौरान बीबीसी हिन्दी के साथ हुई एक विशेष बातचीत में ये विचार व्यक्त किए। झलनाथ खनाल ने इस दौरान वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं एबी बर्धन और प्रकाश करात से मुलाकात की। झलनाथ खनाल का कहना था कि नेपाल में कैसी राजनीतिक व्यवस्था होगी, कैसे नेपाल आगे बढ़ेगा, इसका फैसला नेपाल की जनता करेगी। लेकिन भारत एक मित्र राष्ट्र है और नेपाल को लेकर भारत में एक व्यापक सहमति है। नेपाल को अपने संद्घर्ष, विकास में भारत की मदद की जरूरत होगी। माओवादियों के टकराव के रास्ते पर उनका कहना था कि इस संकट से निपटने के लिए माओवादियों को समझदारी दिखानी पड़ेगी। राष्ट्रीय सहमति के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। नेपाल में माओवादियों के आंदोलन के कारण सरकार वहां कुछ खास नहीं कर पा रही है। नेपाल में राजशाही की समाप्ति के बाद संविधान लिपिबद्ध करने का काम अगले साल यानी २०१० तक पूरा होना है। लेकिन संदेह है कि वर्तमान संकट के कारण यह निर्धारित समय पर पूरा हो सकेगा।

शिकंजे में २६/११ का मास्टर माइंड

अमेरिका की संद्घीय जांच एजेंसी द्वारा शिकागो के इंटरनेशनल हवाई अड्डे पर पिछले ३ अक्टूबर को डेविड कॉलमैन हेडली की गिरफ्तारी। उसके पश्चात १८ अक्टूबर को उसके साथी तहव्वुर हुसैन राणा को हिरासत में लिया। गिरफ्तारी के बाद जो तथ्यसामने आये उन्होंने अमेरिका सहित पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया। स्वयं भारत की सुरक्षा एजेंसियों के हाथों से तोते उड़ गये। हैरान करने वाली बात यह थी कि इन दोनों के तार पिछले वर्ष २६/११ के मुंबई हमले से जुड़े थे और हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं थी। छानबीन से साफ हुआ कि हेडली और राणा दोनों पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। हेडली ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों में प्रशिक्षण लिया। वह लश्कर-ए-तैयबा से ताल्लुक रखता था और मुंबई हमलों में उसकी सक्रिय भूमिका रही। हेडली असल में पाकिस्तानी मूल का दाऊद गिलानी है, जिसने दो साल पहले ही अपना नाम बदल लिया था।
अमेरिका का मानना है कि आईएसआई में शामिल कुछ तत्वों के तार हेडली से जुड़े हुए हैं। जबकि भारतीय जांच एजेंसियों का शक है कि लश्कर-ए-तैयबा के ये दोनों सदस्य मुंबई हमलों में शरीक होंगे। भारत को उम्मीद है कि उनके मुंबई हमलों में शामिल होने के बारे में जल्द ही पता लगा लिया जाएगा। हेडली के मामले में भारत और अमेरिका लगातार संपर्क में हैं। यह माना जा रहा है कि एक पाकिस्तानी नागरिक का जकी लश्कर के संचालक जकी उर रहमान लखवी और एफबीआई द्वारा हिरासत में लिए गए इन दोनों लोगों से संपर्क था। इस पाकिस्तानी नागरिक की पहचान गुप्त रखी गई है जिसके बारे में माना जा रहा है कि मुंबई हमले के समय वह पाकिस्तान में था। हेडली मामले के मद्देनजर भारत चाहता है कि अमेरिका आतंकवाद खासकर भारत की ओर केंद्रित आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान पर और अधिक ध्यान दे। इस बीच अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा आतंकी कमांडर बनने वाले पाकिस्तानी सेना के पूर्व अधिकारी इलियास कश्मीरी को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया है।
एफबीआई ने भारत और डेनमार्क में आतंकी हमलों की कथित योजना बनाने के आरोप में पाकिस्तान में जन्मे अमेरिकी नागरिक हेडली और पाक में जन्मे कनाडाई नागरिक राणा को गिरफ्तार किया। भारतीय अधिकारियों का मानना है कि दोनों ने भारत की कई बार यात्रा की और प्रतीत होता है कि ये टोह लेने के लिए विभिन्न स्थानों पर कई बार आये। जानकारों के मुताबिक अमेरिका को पाकिस्तान से यह आश्वासन मिला है कि वह आतंकवाद के सभी स्वरूपों को नष्ट करेगा लेकिन यह निश्चित नहीं है कि क्या इसमें भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकवादी भी शामिल हैं। इस बीच भारत ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की स्थिति तथा इन दोनों देशों के बारे में अमेरिका की नीति पर विचार-विमर्श किया। सूत्रों के मुताबिक भारत के अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्घटनाक्रमों से हित जुड़े हुए हैं। क्योंकि आतंकवाद वहीं से पनपता है।
इस बीच अमेरिका में पकड़े गए लश्कर के आतंकी डेविड कोलमैन हेडली से संबंध रखने के आरोप में पाकिस्तानी सेना के पांच अधिकारियों को भी गिरफ्तार किया गया है। इनमें से कुछ वर्तमान और कुछ निवर्तमान अधिकारी हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार पाकिस्तानी एजेंसियों ने हेडली से संबंध रखने के आरोप में कई लोगों को गिरफ्तार किया है। इनमें से सेना से जुड़े अधिकांश अधिकारी हैं। इस बीच कनाडा मीडिया ने राणा के परिवार का पता लगा लिया है। उसका परिवार ओटावा के एक उपनगरीय इलाके में रहता है। शिकागो के अखबार मेल एंड ग्लोब के मुताबिक कनाडा के उसके द्घर में उसके पिता, भाई और भाभी रहते हैं। वह शिकागो में अपनी पत्नी समराज अख्तर राणा और दो बेटियों और एक बेटा के साथ रहता था। कनाडा की सुरक्षा खुफिया सेवा से जुड़े एक अधिकारी डेविड हैरिस के अनुसार इस बात की आशंका है कि राणा ने अपने इमिग्र्रेशन कारोबार का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों और कनाडा में आतंकवादियों को प्रवेश दिलाने के लिए किया। इस बीच, शिकागो की अदालत ने राणा की जमानत याचिका पर सुनवाई २ दिसंबर तक के लिए टाल दी है।
गौरतलब है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए प्रमुख लियोन पनेटा ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन से डेविड हेडली और तहव्वुर राणा की गतिविधियों के बारे में विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने भारत को ऐसे उपकरण मुहैया कराने का वादा किया है जिसके जरिए किसी भी टेलिफोन बातचीत का, चाहे वह कितनी भी पुरानी हो, पता लगाया जा सकता है। वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच हुई शिखर बैठक के दौरान आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई को और पुख्ता बनाने के लिए एक सहमति के ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी हुए। इससे दोनों देशों की एजेंसियों के बीच ठोस सहयोग का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इस बीच लियोन पनेटा ने वादा किया है कि कुछ दिनों में ही वे हेडली और राणा की गतिविधियों के बारे में सनसनीखेज जानकारी मुहैया कराएंगे।

बनते नए रिश्ते

चीन अमेरिका की मजबूरी है और भारत अमेरिका की पंसद। दरअसल, अमेरिका जानता है कि चीन कारोबारी दृष्टिकोण से काफी फायदेमंद है। इसलिए ओबामा चीन और भारत के साथ संतुलन बनाने में जुटे हैं। ओबामा ने भारत और अमेरिका संबंधों को निरंतर द्घनिष्टतर बनाने की वकालत की है
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के वक्त ओबामा प्रशासन और भारत के बीच जो गर्मजोशी देखी गयी वह स्वाभाविक है। आर्थिक मंदी के बाद अब दोनों देशों की मुख्य चिंता
आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने की है। चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए भारत के साथ आर्थिक साझेदारी अमेरिका के हित में है। क्योंकि अभी तक अमेरिका ऐतिहासिक महामंदी की गिरफ्त से उबर नहीं पाया है। वहीं भारत के चिंतित होने की वजह ओबामा की चीन यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच बढ़ती सामरिक और कूटनीतिक नजदीकी थी। हाल के वर्षों में कूटनीतिक संबंधों की बुनियाद आर्थिक रिश्ते पर रखी जा रही है। इस बढ़ती नजदीकी से उम्मीद है कि अमेरिका आतंकवाद समेत भारत की राजनीतिक चिंताओं को लेकर सकारात्मक रुख दिखाएगा। उम्मीद है २१ वीं सदी में भारत-अमेरिका संबंध रिश्तों की नई परिभाषा लिखेंगे।
इस मुश्किल भरी २१ वीं सदी में वैश्विक चुनौतियों से निपटने और अपने अवाम की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिहाज से भारत-अमेरिका साझीदारी महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा में भारत और अमेरिका के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये। जो आतंकवाद को खत्म करने और उससे निपटने के लिए सहयोग बढ़ाने से संबंधित है। वैश्विक सुरक्षा को बढ़ावा देने और आतंकवाद से निपटने के समझौते के अलावा दोनों देशों के बीच शिक्षा, विकास स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने, द्विपक्षीय व्यापार, कूषि और हरित क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए समझौते किये गये। भारतीय प्रधानमंत्री ओबामा प्रशासन में अमेरिका यात्रा पर आने वाले पहले राजकीय अतिथि रहे। दोनों देशों ने परमाणु अप्रसार, मिसाइल नियंत्रण और परमाणु हथियार मुक्त विश्व के निर्माण के लिए साथ मिलकर काम करने के प्रति वचनबद्धता दोहराई। साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से जुड़ी वार्ताओं में भी प्रगति की। दोनों देशो में आतंकवाद और अन्य अंतरराष्ट्रीय संकटों से लड़ने के लिए साथ मिलकर काम करने की बात हुई। ओबामा ने भारतको एक उभरती और जिम्मेदार विश्व शक्ति बताते हुए विश्वास जताया कि भारत और अमेरिका के संबंध और मजबूत होंगे।ओबामा ने माना कि अमेरिका के विकास में भारत की भूमिका अहम होगी। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि वर्तमान में अमेरिका जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनका समाधान करने में भारत अहम भूमिका निभाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा उनके देश के युवाओं को भारत में रोजगार के बेहतर अवसर प्राप्त होंगे। आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए दोनों देशों के कैबिनेट स्तर के प्रतिनिधि सालाना बैठक करेंगे। यह बैठक बारी-बारी से अमेरिका और भारत में होगी। दोनों देश समूह विशेष आर्थिक नीतियों के बारे में लगातार एक दूसरे से संपर्क बनाए रखेंगे। गौरतलब है कि अमेरिका ने एक ऐसा ही समझौता चीन के साथ पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल में किया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उम्मीद जताई है कि यह समझौता दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने में मददगार होगा। उन्होंने आशा जताई कि उच्च स्तर की तकनीकी के हस्तांतरण से उद्योगपतियों को भारतीय बाजार में निवेश करने का बेहतर मौका मिलेगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत और अमेरिका को आतंकवाद के मुद्दे पर स्वाभाविक सहयोगी बताते हुए कहा कि दोनों देश आतंकवाद के खिलाफ सहयोग बढ़ाते हुए खुफिया जानकारी साझा करेंगे। भारत को पहली बार परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकारते हुए कहा, 'हम जैसा विश्व देखना चाहते हैं, भारत उसका अभिन्न हिस्सा है। दोनों देशों के बीच आर्थिक, तकनीक-विज्ञान, और पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने, परमाणु करार को पूर्ण रूप से लागू करने पर सहमति बनी है। मनमोहन सिंह के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए ओबामा ने अगले वर्ष भारत की यात्रा पर आने के लिए अपनी सहमति दे दी है। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के योगदान की सराहना की और कहा समृद्ध और शांत एशिया के निर्माण में भारत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।
इससे पहले व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम में ओबामा दम्पती ने प्रधानमंत्री मनमोहन का भव्य स्वागत किया। स्वागत समारोह पहले व्हाइट हाउस के दक्षिणी लॉन में आयोजित किया जाना था, लेकिन बारिश के कारण इसे ईस्ट रूम में आयोजित किया गया। समारोह के बाद दोनों नेता ओवल हाउस में बातचीत करने चले गये। प्रधानमंत्री के सम्मान में ओबामा की तरफ से राजकीय भोज आयोजित किया गया। राष्ट्रपति ओबामा के कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने सबसे बड़ी पार्टी की मेजबानी की।
राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान को उसकी सरजमीं से संचालित आतंकी संगठनों से प्रभावी तरीके से निपटने का संदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि अफगानिस्तान सहित पूरे विश्व से आतंकवाद को नेस्तनाबूद किया जाना चाहिए, यहां काफी हिंसा और आतंकवाद देखा गया है। मुंबई जैसे हमलों को रोकने के लिए खुफिया सहयोग बढ़ाने के लिए सक्रियता से सहयोग करना चाहिए। संवाददाता सम्मेलन में राष्ट्रपति ओबामा ने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार को लागू करने पर अपनी पूरी प्रतिबद्धता दोहराई। मनमोहन सिंह ने उम्मीद जताई कि मुझे पूरा विश्वास है कि यह प्रक्रिया बिना किसी और देरी के पूरी होगी। हालांकि पाकिस्तान के खिलाफ भारत के दो टूक बयान के बावजूद अमेरिका ने आक्रामक रुख नहीं अपनाया। ओबामा ने इस मसले पर कूटनीति का परिचय दिया।
मनमोहन सिंह का इस बार का दौरा बराबरी का रहा। बराक ओबामा का हिन्दी में स्वागत करना इसका सबूत है। यह दौरा कुछ पाने और कुछ खोने के लिए नहीं था। असैन्य परमाणु करार को लागू करने, पाकिस्तान में आतंकवाद से मुकाबला करने और जलवायु परिवर्तन जैसे मसले पर असहमति के बावजूद बातचीत का रुख सकारात्मक रहा है। करीब चार साल पहले परमाणु ऊर्जा समझौता बुश के कार्यकाल में हुआ था। लेकिन ओबामा के प्रशासन में प्रसंस्कूत परमाणु ईंधन की आपूर्ति में अड़चन के कारण मसला ठंडे बस्ते में था। इस मुलाकात से उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी। इस दौरे की सबसे बड़ी उपलब्धि भारत और अमेरिका सीईओ फोरम का पुनर्गठन है। नए फोरम से, जिसकी अगुवाई रतन टाटा और डेविड कोटो करेंगे, ज्यादा कारोबारी पहल की उम्मीद की जा सकती है।
ओबामा ने भारत के उन द्घावों पर सिर्फ मरहम लगाने का काम किया, जो अचानक ही पिछले हफ्ते उनकी चीन यात्रा के दौरान उभर आए थे। यदि चीन और भारत के बारे में ओबामा द्वारा कही गई बातों की बारीकी से समीक्षा की जाए तो यह बात साफ हो जाएगी कि चीन अमेरिका की मजबूरी है और भारत अमेरिका की पंसद। दरअसल, अमेरिका जानता है कि चीन कारोबारी दृष्टिकोण से काफी फायदेमंद है। इसलिए ओबामा चीन और भारत के साथ संतुलन बनाने में जुटे हैं। ओबामा ने भारत और अमेरिका संबंधों को निरंतर द्घनिष्टतर बनाने की वकालत की है। दोनों पक्षों ने शिक्षा, कूषि, सुरक्षा, पर्यावरण, व्यापार आदि क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए छोटे-मोटे कई समझौते किए हैं। लेकिन अभी भी कई ऐसी तकनीक हैं, जिन्हें अमेरिका भारत को देने में संकोच करता है। अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने पर अपनी राय स्पष्ट नहीं की है। भले ही इस यात्रा को कितना ही सफल क्यों न माना जाए पर अभी यह शुरुआत मात्र है। लेकिन इस यात्रा से एक बात स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में मनमोहन सिंह की यह अमेरिका यात्रा मील का पत्थर साबित होगी।