Friday, December 11, 2009

क्या इरान -अमेरिका करीब आ सकेगे

अमेरिका वर्तमान में इराक और अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसा हुआ है। वह यहां से किसी तरह नाक बचाकर निकलना चाहता है। ऐसे में उसे आज ईरान की जरूरत महसूस हो रही
है। यही वजह है कि एक वर्ष पहले तक ईरान के एटमी ठिकानों को तबाह करने की धमकी देने वाला अमेरिका आज ईरान से दोस्ती का राग अलाप रहा है। ईरान के प्रति अमेरिका की पुरानी दुश्मनी को देखते हुए ईरानी नेतृत्व उस पर विश्वास करने में हिचक रहा है
रान के मामले में अमेरिका क्या सोचता है, अमेरिकी नीतियां क्या हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है। ईरान के एटमी मंसूबों को रूस के समर्थन के मद्देनजर अमेरिका ने अपनी जो कूटनीति तय की, उसमें फ्रांस और जर्मनी का उकसावा भी शामिल है। इजराईल की परमाणु क्षमता ईरान के लिए अस्तित्व की समस्या है। ऐसे में वाशिंगटन में बैठे बूस रिडल जैसे नीति निर्माताओं के बयान ईरानियों को मददगार प्रतीत हो रहे हैं। रिडल का कहना है कि मध्य पूर्व में एटमी मसलों पर दोहरे मापदंड अपना कर शांति हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए जेनेवा हो या वियना, सभी प्रयासों में इजराईल के परमाणु हथियारों को सामने लाने की कोशिश हो रही है। १२ जून को पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी और राष्ट्रपति चुनाव में पराजित मीर हुसैन मुसावी ने जो जोरदार प्रदर्शन किए थे, उसके बाद से ईरान में तेजी से हुए बदलावों को आंकना दिलचस्प है।
अविश्वास और टकराव के लंबे दौर के बाद अमेरिका अब ईरान के साथ दोस्ती चाहता है। बीते ४ नवंबर को अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ कर दिया कि अमेरिका लगातार शक, अविश्वास और टकराव के इस अतीत से आगे जाना चाहता है और परस्पर हितों और सम्मान के आधार पर इस्लामी गणराज्य ईरान के साथ रिश्ता बनाना चाहता है। ओबामा का यह बयान ईरान की मुख्य भाषा फारसी में भी जारी किया गया। ओबामा ने स्पष्ट किया कि अमेरिका ईरान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। उन्होंने ईरान में हुए आतंकी हमलों की भी भर्त्सना की। अपने बयान में शांतिपूर्ण परमाणु शक्ति के रूप में ईरान के अंतरराष्ट्रीय अधिकार का सम्मान करने की बात कही। विश्व समुदाय के अन्य देशों के साथ अपने विश्वास बहाली के प्रयासों के प्रति अपनी इच्छा प्रकट की। ओबामा ने, ईरान के अनुरोध पर ईरानी जनता की चिकित्सीय जरूरतों और अन्य मदद को पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के प्रस्ताव को स्वीकार करने की भी बात कही। उन्होंने माना कि हर राष्ट्र की तरह ईरान अपने दायित्वों को पूरा करता है तो वह उसे समृद्धि की राह पर प्रशस्त करेगा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सकारात्मक संबंध बनाएगा। अब आगे क्या करना है इसका निर्णय ईरान को करना है। ओबामा ने कहा कि फैसला ईरान सरकार को करना है कि वह अतीत के मुद्दे से ही जूझना चाहती है या अपने देश के लिए अवसर, समृद्धि तथा न्याय का एक व्यापक द्वार खोलना चाहती है।
अमेरिका के इस कदम पर तेहरान में व्यापक तौर पर प्रतिक्रिया हुई है। प्रमुख धार्मिक नेता आयतुल्लाह अहमद जन्नती ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हालिया ईरान संबंधी बयान को उद्धरित करते हुए कहा कि दोनों पक्षों के मतभेद आधारभूत प्रकार के हैं और दोनों देशों के बीच एक बड़ा मुद्दा इजराईल और अमेरिका का रवैया है, जो क्षेत्र में तनाव, जनसंहार और अत्याचार जारी रखे हुए हैं। यदि अमेरिका इसी प्रकार इजराईल का समर्थन करता रहा तो तेहरान और वाशिंगटन के संबंध वर्तमान रूप में ही जारी रहेंगे। लेबनान, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक के मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप बंद किए जाने पर बल दिया और कहा कि जनमत की द्घृणा नारों से समाप्त नहीं हो सकती। अमेरिका से विश्व जनमत की द्घृणा का कारण वाशिंगटन के हाथों विश्ववासियों पर अत्याचार और उनके अधिकारों का हनन है।
साथ ही देश के राष्ट्रपति चुनावों को अस्वस्थ दर्शाने के लिए पश्चिमी संचार माध्यमों के जारी दुष्प्रचारों की ओर संकेत करते हुए कहा कि केवल ईरान का चुनाव ही शत्रुओं के निशाने पर नहीं बल्कि उनका उद्देश्य मतभेदों और तनाव को हवा देकर इस्लामी गणतंत्र की व्यवस्था और इस्लामी क्रान्ति का अंत करना था। किंतु जनता की चेतना, एकता, नैतिकता और सच्चाई तथा इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के मार्गदर्शनों से शत्रुओं के सारे षड्यंत्र निष्फल हो गये। अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा का व्यवहार कूटनीतिक नाटक और शब्द-जाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है और वे केवल शांतिप्रेम का दिखावा कर रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति के परिवर्तन के नारे तथा ईरानी नव वर्ष पर उनके बधाई संदेश की ओर संकेत करते हुए कहा कि इससे न केवल यह कि किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है, बल्कि ईरानी जनता के नाम उनके इस बधाई संदेश में भी उन्होंने ईरानी राष्ट्र पर आतंकवाद के समथ्र्ान और परमाणु बम रखने का आरोप लगाया है।धार्मिक नेता खातेमी ने इस बात पर बल दिया कि अमेरिका ने पिछले ५० वषोर्ं से अब तक एक क्षण भी ईरान के विरुद्ध षड्यत्र करना नहीं छोड़ा है। यदि हमने वास्तविक परिवर्तन को देखा तो हमारी धार्मिक शिक्षाएं हमसे कहती हैं कि यदि दूसरा पक्ष वास्तव में संधि करना चाहता है तो तुम भी उसमें रुचि दिखाओ। किंतु यदि हमने यह देखा कि वे केवल मधुर संबंधों का दिखावा कर रहे हैं और उनका व्यवहार धूर्ततापूर्ण है तो अमेरिका के साम्राज्यवादी व्यवहार के संबंध में ईरानी जनता का ३० वर्षों से चला आ रहा साम्राज्य विरोधी रवैया जारी रहेगा। व्हाइट हाउस की विदेश नीतियों में परिवर्तन के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के वचन की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी तक अमेरिकी व्यवहार में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि यद्यपि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ वार्ता की इच्छा प्रकट की है किंतु उन्होंने भी ईरान के बारे में पूर्व बुश सरकार के निराधार दावों को दोहराया है। ईरान के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ आयतुल्लाह हाशमी रफसंजानी ने अपनी प्र्रतिक्रिया में कहा अमेरिका ने लगभग पचास वर्षों से ईरान पर अत्याचार किये हैं किंतु यदि अब वह संधि चाहता है तो अपनी सद्भावना का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने अमेरिकी जनता से कोई मतभेद होने से इन्कार किया। यदि अमेरिकी सरकार हमारे साथ अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार व्यवहार करे तो उससे भी हमारी कोई शत्रुता नहीं रहेगी। पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी ने कहा कि अमेरिका के आतंरिक मामलों से हमारा कोई संबंध नहीं है किंतु यदि अमेरिका ने अन्य राष्ट्रों पर अत्याचार जारी रखा तो हम चुप नहीं रहेंगे।
इस बीच ६ नवंबर को परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी आईएईए ने एक बार फिर बल देकर कहा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूर्ण रूप से शांतिपूर्ण है। आईएईए के महानिदेशक मुहम्मद अलबरादेई ने न्यूयॅार्क में अमेरिका की विदेश नीति परिषद की बैठक में कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ईरान परमाणु शस्त्र बनाने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने इसी प्रकार आशा जताई कि उनका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व ईरान को परमाणु ईंधन देने के बारे में समझौता हो जाएगा। ईरान के विरुद्ध कुछ सैनिक धमकियों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि इजराईल ने ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर आक्रमण का प्रयास किया तो मध्य-पूर्व का क्षेत्र आग के गोले में परिवर्तित हो जाएगा। उन्होंने कहा कि वे बार-बार कह चुके हैं कि ईरान के परमाणु मामले का समाधान कूटनीतिक मागार्ंे से किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि ईरान के प्रस्तावित पैकेज और जेनेवा वार्ता की ओर संकेत करते हुए तेहरान ने विश्वास दिलाने का प्रयास किया है कि उसने सदैव आईएईए के नियमों और कानूनों के अनुसार परमाणु क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया है। ईरान विश्व को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह किसी भी देश पर आक्रमण का इरादा नहीं रखता किंतु इसके साथ ही किसी को भी ईरान के हितों पर आक्रमण करने की अनुमति भी नहीं देगा।
बीसवीं सदी के ईरान की सबसे महत्वपूर्व द्घटना थी ईरान की इस्लामिक क्रांति। शहरों में तेल के पैसों की समृद्धि और गांवों में गरीबी। सत्तर के दशक का सूखा और शाह द्वारा यूरोप के देशों के प्रतिनिधियों को दिए गए भोज जिसमें अकूत पैसा खर्च किया गया था, ने ईरान की गरीब जनता को शाह के खिलाफ भड़काया। इस्लाम में निहित समानता को अपना नारा बनाकर लोगों ने शाह के शासन का विरोध करना आरंभ किया। १९७९ में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए जिनमें हिंसक द्घटनाओं की संख्या बढ़ती गई। शाह के समर्थकों तथा विरोधियों में हिंसक झड़पें हुइर्ं और इसके फलस्वरूप १९७९ में पहलवी वंश का पतन हो गया और आयतुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना। इस्लामिक दुनिया में अपनी स्थित मजबूत की। इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया।
दरअसल, अमेरिका की सोच के पीछे पश्चिम एशिया की बदलती हुई परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है। खाड़ी युद्ध के बाद से लगातार ईरान अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा रहा। और वह इसमें कामयाब भी रहा। अमेरिका ने ईरान पर दबाव बनाने के लिए इराक और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया। लेकिन अमेरिका खुद अपनी ही चाल में फंसता गया। इराक और अफगान युद्ध के बाद अमेरिकियों को जो शमिर्ंदगी उठानी पड़ी वह किसी से छिपी नहीं है। इराक में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद वहां की सत्ता शियाओं के हाथ में आ गयी। ईरान भी एक शिया बहुल देश है।
ऐसे में इराक और ईरान की नजदीकियां बढ़ना स्वाभाविक है। शियाओं के देश इराक का सऊदी तेल भंडार क्षेत्र दमन के करीब आना, सऊदी अरब के लिए चिंता का विषय है। स्थितियां थोड़ी बदलीं तो बहरीन, लेबनान में शियाओं की बहुलता, कुवैत में शिया जनसंख्या आदि कारण भी तेहरान का हौसला बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं। वहीं ईरान के संबंध सीरिया के साथ काफी अच्छे हैं। २००३ में अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन को बेदखल किए जाने के बाद से अमेरिका खुद अपनी ही चाल में उलझ गया। अब ऐसे में अगर उसे पश्चिम एशिया में बने रहना है तो ईरान से दोस्ती तो करनी ही पड़ेगी।

कैसे बहाल हो लोकतंत्र

नेपाल पिछले एक दशक से राजनीतिक अस्थिरता का शिकार है। पूर्व नरेश के सत्ता से हटने के बाद ऐसा लग रहा था कि वहां लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होंगी। लेकिन हाल के द्घटनाक्रम से ऐसा महसूस हो रहा है कि वहां की जमीन अभी लोकतंत्र को विकसित करने के लिए तैयार नहीं है। आम जनता की भावनाओं का
प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां बिखराव की शिकार हैं और देश को एक संविआँाान देने में भी असमर्थ नजर आ रही हैं
नेपाल में राजशाही को समाप्त हुए करीब दो साल हो गए। उम्मीद थी लोकतंत्र स्थापित होगा और जनता की सरकार जनता के लिए स्थापित होगी। पर यह हो न सका है। शायद नेपाल दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जहां एक ही समय में दो नेता उप प्रधानमंत्री पद पर हैं। हारे हुए नेताओं से वहां की सरकार चल रही है। दो जगह से चुनाव हारे प्रधानमंत्री माधव नेपाल राज कर रहे हैं। नये संविधान निर्माण के लिए आम चुनाव हुआ था। संविधान निर्माण का काम समय पर पूरा होगा, इस पर शक ही है। शांति प्रक्रिया मजाक बन कर रह गयी है। माओवादी नहीं चाहें तो क्या मजाल कि कोई सड़क पर चले या संसद चला ले। माओवादियों ने सरकार के प्रति विरोध प्रदर्शन के तहत काठमांडू द्घाटी को ठप कर दिया था। सरकार ने माओवादियों से निपटने के लिए सेना और पुलिस बल को हाईअलर्ट कर दिया था।
इन सब के बीच नेपाल में पिछले कई महीनों से जारी गतिरोध के खत्म होने की संभावना बढ़ गयी है। सिंगापुर में पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला और माओवादियों के प्रमुख नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के बीच हुई मुलाकात में इस समस्या को सुलझाने के लिए रोडमैप तैयार कर लिया गया है। एक समझौते के तहत नेपाल के दोनों प्रमुख नेता मौजूदा संकट और गतिरोध खत्म करने के लिए बहुदलीय राजनीति तंत्र बनाने पर एकमत हो गए हैं। इस समझौते के बाद माओवादी नेता प्रचंड ने देश में जल्द ही नई सरकार के अस्तित्व में आ जाने की उम्मीद जाहिर की। उन्होंने बताया कि इसके लिए एक उच्च स्तरीय राजनीतिक तंत्र बनाया जाएगा। इस बात के जरिए उन्होंने राजनीतिक दलों के नए गठजोड़ की संभावना की ओर इशारा किया।सिंगापुर में कोईराला और प्रचंड के बीच करीब ४५ मिनट की बातचीत के दौरान देश के ताजा संकट पर विचार-विमर्श किया गया। कोईराला ने प्रचंड को राष्ट्रपति का अपमान किए बिना संकट का समाधान खोजने के लिए राजी किया। प्रचंड के सहयोगी समीर दहल के मुताबिक कोईराला के प्रस्ताव पर प्रचंड ने स्वीकृति दे दी है।
इसके बाद दोनों नेताओं के बीच सहमति बन गयी है। माओवादी मई में अपनी सरकार गिरने के बाद से नियमित तौर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उन्होंने २२ पार्टियों वाली गठबंधन सरकार को अपदस्थ करने के लिए आंदोलन शुरू किया था। वे राष्ट्रपति रामबरन यादव से माफी मांगने को कह रहे थे। साथ ही देश में असैनिक शासन स्थापित करने की भी मांग कर रहे थे। माओवादियों ने विगत चार माह से संसद की कार्यवाही को भी बाधित कर रखा था। इसकी वजह से मौजूदा वित्तीय वर्ष का बजट अब तक पारित नहीं हो सका था।
प्रधानमंत्री कुमार माधव की ओर से की गई बातचीत की पेशकश ठुकराने के दो दिन बाद ही माओवादी बीच का रास्ता खोजने में जुटे थे। इसकी तलाश में प्रचंड ने सिंगापुर के अस्पताल में भर्ती पूर्व प्रधानमंत्री कोईराला से मुलाकात करने का फैसला कर सबको भौंचक कर दिया था। माओवादियों ने केंद्रीय सचिवालय और अन्य क्षेत्रीय प्रशासनिक कार्यालयों का भी कई दिनों से द्घेराव कर रखा था। देश में सरकारी कामकाज पूरी तरह ठप था और आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। मांगों के पूरा नहीं होने पर उन्होंने देशव्यापी बंद की धमकी भी दे रखी थी। माओवादी राष्ट्रपति रामबरन यादव से नागरिक सर्वोच्चता बहाल करने और मौजूदा गठबंधन सरकार को बर्खास्त करने की मांग पर अड़े थे। साथ ही प्रचंड द्वारा बर्खास्त किए गए सैन्य प्रमुख से भी माओवादी नाराज थे। सूत्रों के मुताबिक कोईराला ने प्रचंड से कहा कि वह राष्ट्रपति का अपमान किए बिना समाधान का समर्थन करें, जिस पर प्रचंड ने सकारात्मक सहमति दी है।
इस बीच नेपाल के सत्ताधारी गठबंधन का नेतृत्व कर रही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूएमएल) का कहना है कि नेपाल के प्रगति करने के लिए भारत का साथ जरूरी है। सीपीएन (एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी) के चेयरमैन झलनाथ खनाल ने अपनी भारत यात्रा के दौरान बीबीसी हिन्दी के साथ हुई एक विशेष बातचीत में ये विचार व्यक्त किए। झलनाथ खनाल ने इस दौरान वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं एबी बर्धन और प्रकाश करात से मुलाकात की। झलनाथ खनाल का कहना था कि नेपाल में कैसी राजनीतिक व्यवस्था होगी, कैसे नेपाल आगे बढ़ेगा, इसका फैसला नेपाल की जनता करेगी। लेकिन भारत एक मित्र राष्ट्र है और नेपाल को लेकर भारत में एक व्यापक सहमति है। नेपाल को अपने संद्घर्ष, विकास में भारत की मदद की जरूरत होगी। माओवादियों के टकराव के रास्ते पर उनका कहना था कि इस संकट से निपटने के लिए माओवादियों को समझदारी दिखानी पड़ेगी। राष्ट्रीय सहमति के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। नेपाल में माओवादियों के आंदोलन के कारण सरकार वहां कुछ खास नहीं कर पा रही है। नेपाल में राजशाही की समाप्ति के बाद संविधान लिपिबद्ध करने का काम अगले साल यानी २०१० तक पूरा होना है। लेकिन संदेह है कि वर्तमान संकट के कारण यह निर्धारित समय पर पूरा हो सकेगा।

शिकंजे में २६/११ का मास्टर माइंड

अमेरिका की संद्घीय जांच एजेंसी द्वारा शिकागो के इंटरनेशनल हवाई अड्डे पर पिछले ३ अक्टूबर को डेविड कॉलमैन हेडली की गिरफ्तारी। उसके पश्चात १८ अक्टूबर को उसके साथी तहव्वुर हुसैन राणा को हिरासत में लिया। गिरफ्तारी के बाद जो तथ्यसामने आये उन्होंने अमेरिका सहित पूरे विश्व को आश्चर्य में डाल दिया। स्वयं भारत की सुरक्षा एजेंसियों के हाथों से तोते उड़ गये। हैरान करने वाली बात यह थी कि इन दोनों के तार पिछले वर्ष २६/११ के मुंबई हमले से जुड़े थे और हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक तक नहीं थी। छानबीन से साफ हुआ कि हेडली और राणा दोनों पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक हैं। हेडली ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी शिविरों में प्रशिक्षण लिया। वह लश्कर-ए-तैयबा से ताल्लुक रखता था और मुंबई हमलों में उसकी सक्रिय भूमिका रही। हेडली असल में पाकिस्तानी मूल का दाऊद गिलानी है, जिसने दो साल पहले ही अपना नाम बदल लिया था।
अमेरिका का मानना है कि आईएसआई में शामिल कुछ तत्वों के तार हेडली से जुड़े हुए हैं। जबकि भारतीय जांच एजेंसियों का शक है कि लश्कर-ए-तैयबा के ये दोनों सदस्य मुंबई हमलों में शरीक होंगे। भारत को उम्मीद है कि उनके मुंबई हमलों में शामिल होने के बारे में जल्द ही पता लगा लिया जाएगा। हेडली के मामले में भारत और अमेरिका लगातार संपर्क में हैं। यह माना जा रहा है कि एक पाकिस्तानी नागरिक का जकी लश्कर के संचालक जकी उर रहमान लखवी और एफबीआई द्वारा हिरासत में लिए गए इन दोनों लोगों से संपर्क था। इस पाकिस्तानी नागरिक की पहचान गुप्त रखी गई है जिसके बारे में माना जा रहा है कि मुंबई हमले के समय वह पाकिस्तान में था। हेडली मामले के मद्देनजर भारत चाहता है कि अमेरिका आतंकवाद खासकर भारत की ओर केंद्रित आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान पर और अधिक ध्यान दे। इस बीच अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा आतंकी कमांडर बनने वाले पाकिस्तानी सेना के पूर्व अधिकारी इलियास कश्मीरी को पाकिस्तान में गिरफ्तार किया गया है।
एफबीआई ने भारत और डेनमार्क में आतंकी हमलों की कथित योजना बनाने के आरोप में पाकिस्तान में जन्मे अमेरिकी नागरिक हेडली और पाक में जन्मे कनाडाई नागरिक राणा को गिरफ्तार किया। भारतीय अधिकारियों का मानना है कि दोनों ने भारत की कई बार यात्रा की और प्रतीत होता है कि ये टोह लेने के लिए विभिन्न स्थानों पर कई बार आये। जानकारों के मुताबिक अमेरिका को पाकिस्तान से यह आश्वासन मिला है कि वह आतंकवाद के सभी स्वरूपों को नष्ट करेगा लेकिन यह निश्चित नहीं है कि क्या इसमें भारत के खिलाफ काम करने वाले आतंकवादी भी शामिल हैं। इस बीच भारत ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की स्थिति तथा इन दोनों देशों के बारे में अमेरिका की नीति पर विचार-विमर्श किया। सूत्रों के मुताबिक भारत के अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्घटनाक्रमों से हित जुड़े हुए हैं। क्योंकि आतंकवाद वहीं से पनपता है।
इस बीच अमेरिका में पकड़े गए लश्कर के आतंकी डेविड कोलमैन हेडली से संबंध रखने के आरोप में पाकिस्तानी सेना के पांच अधिकारियों को भी गिरफ्तार किया गया है। इनमें से कुछ वर्तमान और कुछ निवर्तमान अधिकारी हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार पाकिस्तानी एजेंसियों ने हेडली से संबंध रखने के आरोप में कई लोगों को गिरफ्तार किया है। इनमें से सेना से जुड़े अधिकांश अधिकारी हैं। इस बीच कनाडा मीडिया ने राणा के परिवार का पता लगा लिया है। उसका परिवार ओटावा के एक उपनगरीय इलाके में रहता है। शिकागो के अखबार मेल एंड ग्लोब के मुताबिक कनाडा के उसके द्घर में उसके पिता, भाई और भाभी रहते हैं। वह शिकागो में अपनी पत्नी समराज अख्तर राणा और दो बेटियों और एक बेटा के साथ रहता था। कनाडा की सुरक्षा खुफिया सेवा से जुड़े एक अधिकारी डेविड हैरिस के अनुसार इस बात की आशंका है कि राणा ने अपने इमिग्र्रेशन कारोबार का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों और कनाडा में आतंकवादियों को प्रवेश दिलाने के लिए किया। इस बीच, शिकागो की अदालत ने राणा की जमानत याचिका पर सुनवाई २ दिसंबर तक के लिए टाल दी है।
गौरतलब है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए प्रमुख लियोन पनेटा ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन से डेविड हेडली और तहव्वुर राणा की गतिविधियों के बारे में विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने भारत को ऐसे उपकरण मुहैया कराने का वादा किया है जिसके जरिए किसी भी टेलिफोन बातचीत का, चाहे वह कितनी भी पुरानी हो, पता लगाया जा सकता है। वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच हुई शिखर बैठक के दौरान आतंकवाद के खिलाफ साझा लड़ाई को और पुख्ता बनाने के लिए एक सहमति के ज्ञापन पर हस्ताक्षर भी हुए। इससे दोनों देशों की एजेंसियों के बीच ठोस सहयोग का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इस बीच लियोन पनेटा ने वादा किया है कि कुछ दिनों में ही वे हेडली और राणा की गतिविधियों के बारे में सनसनीखेज जानकारी मुहैया कराएंगे।

बनते नए रिश्ते

चीन अमेरिका की मजबूरी है और भारत अमेरिका की पंसद। दरअसल, अमेरिका जानता है कि चीन कारोबारी दृष्टिकोण से काफी फायदेमंद है। इसलिए ओबामा चीन और भारत के साथ संतुलन बनाने में जुटे हैं। ओबामा ने भारत और अमेरिका संबंधों को निरंतर द्घनिष्टतर बनाने की वकालत की है
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा के वक्त ओबामा प्रशासन और भारत के बीच जो गर्मजोशी देखी गयी वह स्वाभाविक है। आर्थिक मंदी के बाद अब दोनों देशों की मुख्य चिंता
आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने की है। चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए भारत के साथ आर्थिक साझेदारी अमेरिका के हित में है। क्योंकि अभी तक अमेरिका ऐतिहासिक महामंदी की गिरफ्त से उबर नहीं पाया है। वहीं भारत के चिंतित होने की वजह ओबामा की चीन यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच बढ़ती सामरिक और कूटनीतिक नजदीकी थी। हाल के वर्षों में कूटनीतिक संबंधों की बुनियाद आर्थिक रिश्ते पर रखी जा रही है। इस बढ़ती नजदीकी से उम्मीद है कि अमेरिका आतंकवाद समेत भारत की राजनीतिक चिंताओं को लेकर सकारात्मक रुख दिखाएगा। उम्मीद है २१ वीं सदी में भारत-अमेरिका संबंध रिश्तों की नई परिभाषा लिखेंगे।
इस मुश्किल भरी २१ वीं सदी में वैश्विक चुनौतियों से निपटने और अपने अवाम की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिहाज से भारत-अमेरिका साझीदारी महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा में भारत और अमेरिका के बीच छह समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये। जो आतंकवाद को खत्म करने और उससे निपटने के लिए सहयोग बढ़ाने से संबंधित है। वैश्विक सुरक्षा को बढ़ावा देने और आतंकवाद से निपटने के समझौते के अलावा दोनों देशों के बीच शिक्षा, विकास स्वास्थ्य के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने, द्विपक्षीय व्यापार, कूषि और हरित क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने के लिए समझौते किये गये। भारतीय प्रधानमंत्री ओबामा प्रशासन में अमेरिका यात्रा पर आने वाले पहले राजकीय अतिथि रहे। दोनों देशों ने परमाणु अप्रसार, मिसाइल नियंत्रण और परमाणु हथियार मुक्त विश्व के निर्माण के लिए साथ मिलकर काम करने के प्रति वचनबद्धता दोहराई। साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से जुड़ी वार्ताओं में भी प्रगति की। दोनों देशो में आतंकवाद और अन्य अंतरराष्ट्रीय संकटों से लड़ने के लिए साथ मिलकर काम करने की बात हुई। ओबामा ने भारतको एक उभरती और जिम्मेदार विश्व शक्ति बताते हुए विश्वास जताया कि भारत और अमेरिका के संबंध और मजबूत होंगे।ओबामा ने माना कि अमेरिका के विकास में भारत की भूमिका अहम होगी। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि वर्तमान में अमेरिका जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनका समाधान करने में भारत अहम भूमिका निभाएगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा उनके देश के युवाओं को भारत में रोजगार के बेहतर अवसर प्राप्त होंगे। आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए दोनों देशों के कैबिनेट स्तर के प्रतिनिधि सालाना बैठक करेंगे। यह बैठक बारी-बारी से अमेरिका और भारत में होगी। दोनों देश समूह विशेष आर्थिक नीतियों के बारे में लगातार एक दूसरे से संपर्क बनाए रखेंगे। गौरतलब है कि अमेरिका ने एक ऐसा ही समझौता चीन के साथ पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के कार्यकाल में किया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उम्मीद जताई है कि यह समझौता दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को मजबूत बनाने में मददगार होगा। उन्होंने आशा जताई कि उच्च स्तर की तकनीकी के हस्तांतरण से उद्योगपतियों को भारतीय बाजार में निवेश करने का बेहतर मौका मिलेगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत और अमेरिका को आतंकवाद के मुद्दे पर स्वाभाविक सहयोगी बताते हुए कहा कि दोनों देश आतंकवाद के खिलाफ सहयोग बढ़ाते हुए खुफिया जानकारी साझा करेंगे। भारत को पहली बार परमाणु शक्ति के रूप में स्वीकारते हुए कहा, 'हम जैसा विश्व देखना चाहते हैं, भारत उसका अभिन्न हिस्सा है। दोनों देशों के बीच आर्थिक, तकनीक-विज्ञान, और पर्यावरण के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने, परमाणु करार को पूर्ण रूप से लागू करने पर सहमति बनी है। मनमोहन सिंह के आमंत्रण को स्वीकार करते हुए ओबामा ने अगले वर्ष भारत की यात्रा पर आने के लिए अपनी सहमति दे दी है। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के योगदान की सराहना की और कहा समृद्ध और शांत एशिया के निर्माण में भारत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।
इससे पहले व्हाइट हाउस के ईस्ट रूम में ओबामा दम्पती ने प्रधानमंत्री मनमोहन का भव्य स्वागत किया। स्वागत समारोह पहले व्हाइट हाउस के दक्षिणी लॉन में आयोजित किया जाना था, लेकिन बारिश के कारण इसे ईस्ट रूम में आयोजित किया गया। समारोह के बाद दोनों नेता ओवल हाउस में बातचीत करने चले गये। प्रधानमंत्री के सम्मान में ओबामा की तरफ से राजकीय भोज आयोजित किया गया। राष्ट्रपति ओबामा के कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने सबसे बड़ी पार्टी की मेजबानी की।
राष्ट्रपति ओबामा ने पाकिस्तान को उसकी सरजमीं से संचालित आतंकी संगठनों से प्रभावी तरीके से निपटने का संदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि अफगानिस्तान सहित पूरे विश्व से आतंकवाद को नेस्तनाबूद किया जाना चाहिए, यहां काफी हिंसा और आतंकवाद देखा गया है। मुंबई जैसे हमलों को रोकने के लिए खुफिया सहयोग बढ़ाने के लिए सक्रियता से सहयोग करना चाहिए। संवाददाता सम्मेलन में राष्ट्रपति ओबामा ने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार को लागू करने पर अपनी पूरी प्रतिबद्धता दोहराई। मनमोहन सिंह ने उम्मीद जताई कि मुझे पूरा विश्वास है कि यह प्रक्रिया बिना किसी और देरी के पूरी होगी। हालांकि पाकिस्तान के खिलाफ भारत के दो टूक बयान के बावजूद अमेरिका ने आक्रामक रुख नहीं अपनाया। ओबामा ने इस मसले पर कूटनीति का परिचय दिया।
मनमोहन सिंह का इस बार का दौरा बराबरी का रहा। बराक ओबामा का हिन्दी में स्वागत करना इसका सबूत है। यह दौरा कुछ पाने और कुछ खोने के लिए नहीं था। असैन्य परमाणु करार को लागू करने, पाकिस्तान में आतंकवाद से मुकाबला करने और जलवायु परिवर्तन जैसे मसले पर असहमति के बावजूद बातचीत का रुख सकारात्मक रहा है। करीब चार साल पहले परमाणु ऊर्जा समझौता बुश के कार्यकाल में हुआ था। लेकिन ओबामा के प्रशासन में प्रसंस्कूत परमाणु ईंधन की आपूर्ति में अड़चन के कारण मसला ठंडे बस्ते में था। इस मुलाकात से उम्मीद की जा सकती है कि जल्द ही सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी। इस दौरे की सबसे बड़ी उपलब्धि भारत और अमेरिका सीईओ फोरम का पुनर्गठन है। नए फोरम से, जिसकी अगुवाई रतन टाटा और डेविड कोटो करेंगे, ज्यादा कारोबारी पहल की उम्मीद की जा सकती है।
ओबामा ने भारत के उन द्घावों पर सिर्फ मरहम लगाने का काम किया, जो अचानक ही पिछले हफ्ते उनकी चीन यात्रा के दौरान उभर आए थे। यदि चीन और भारत के बारे में ओबामा द्वारा कही गई बातों की बारीकी से समीक्षा की जाए तो यह बात साफ हो जाएगी कि चीन अमेरिका की मजबूरी है और भारत अमेरिका की पंसद। दरअसल, अमेरिका जानता है कि चीन कारोबारी दृष्टिकोण से काफी फायदेमंद है। इसलिए ओबामा चीन और भारत के साथ संतुलन बनाने में जुटे हैं। ओबामा ने भारत और अमेरिका संबंधों को निरंतर द्घनिष्टतर बनाने की वकालत की है। दोनों पक्षों ने शिक्षा, कूषि, सुरक्षा, पर्यावरण, व्यापार आदि क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने के लिए छोटे-मोटे कई समझौते किए हैं। लेकिन अभी भी कई ऐसी तकनीक हैं, जिन्हें अमेरिका भारत को देने में संकोच करता है। अमेरिका ने सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने पर अपनी राय स्पष्ट नहीं की है। भले ही इस यात्रा को कितना ही सफल क्यों न माना जाए पर अभी यह शुरुआत मात्र है। लेकिन इस यात्रा से एक बात स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में मनमोहन सिंह की यह अमेरिका यात्रा मील का पत्थर साबित होगी।

Tuesday, November 10, 2009

मालदीप पर मंडराता खतरा

मालदीव उन देशों में से है जिन पर ग्लोबल वार्मिग का खतरा कुछ अलहदा ढंग से मंडरा रहा है। बढ़ते समुद्री जलस्तर से इस देश के पूरी तरह समुद्र में समाधि ले लेने की संभावना है। सैंकड़ों छोटे-छोटे द्वीपों से मिलकर बने इस देश के करीब पचास द्वीप अभी ही समुद्र में समाने की ओर अग्रसर हैं। अपनी इसी समस्या को दुनिया के सामने पेश करने के लिए मालदीव ने अनूठा तरीका अपनाया। ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को रेखांकित करने के लिए १७ अक्टूबर को मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ने अपनी कैबिनेट की बैठक पानी के भीतर की। इस समस्या से निपटने के मालदीव सरकार के अनूठे प्रयोग के बाद अब एक और अनूठी योजना भी बनायी है। सरकार कुछ निर्जन द्वीप धनी देशों को बेचने या पट्टे पर देने की योजना पर विचार कर रही है। अगर यह योजना लागू हो जाती है तो इससे सबसे ज्यादा खतरा भारत के लिए पैदा हो जाएगा।
सैकड़ों टापुओं वाले देश मालदीव का ९० फीसदी इलाका समुद्र तल से महज एक मीटर की ऊंचाई पर है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौजूदा दौर में सबसे ज्यादा खतरा इस देश को ही है। इन्हीं अंदेशों को देखते हुए यहां के राष्ट्रपति डॉ ़ मोहम्मद नशीद ने दुनियाभर के लोगों का ध्यान अपने ओर आकृष्ट करने के लिए समुद्र के अंदर बैठक की। यह भी कि दुनिया भर के देश कार्बन उत्सर्जन की मात्रा सीमित करें। इससे पहले मार्च २००९ में मालदीव सरकार ने अपने मुल्क को कार्बन-न्यूट्रल बनाने की द्घोषणा की थी। शायद यह दुनिया भर के इतिहास में अपनी तरह की पहली द्घटना है। इसमें कोई शक नहीं कि मालदीव का यह नायाब कदम दुनिया भर के लिए मिसाल ही नहीं चुनौती भी है। चुनौती इस मायने में कि क्या दुनिया का कोई खेमा, कोई देश, कोई टापू इसदेश की पीड़ा को समझने के लिए तैयार है, क्या कोई इसके साथ खड़ा होना चाहता है। जाहिर है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो आने वाले सालों में अकेले मालदीव ही नहीं दुनिया भर के कई देशों के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्व लग जाएगा।
कई खूबसूरत शहर जल समाधि ले लेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक साल २१०० तक समुंद्र तल की ऊंचाई में कम से कम आधा मीटर की वृद्धि होगी। ऐसे में विश्व की ६० करोड़ आबादी जो तटीय इलाकों या निचले जमीनी इलाकों में रहती है, उसका क्या होगा। आज मालदीव खतरे में है तो कल ग्रीनलैण्ड होगा। आने वाले दौर में ऑस्ट्रेलिया पर भी खतरा मंडराएगा। फिर सीमित संसाधनों में संतुलन बिगड़ेगा।दुनिया का तापमान कम करने के लिए कार्बन कटौती की मांग बार-बार उठती रही है। हाल ही में बैंकाक में जलवायु परिवर्तन पर बैठक हुई। इस बैठक में भारत समेत दुनिया के ३६ विकासशील देशों ने औद्योगिक देशों के सामने मांग रखी है कि वे २०२० तक अपने कार्बन उत्सर्जन में १९९० की तुलना में ४० फीसदी की कमी लाएं। लेकिन औद्योगिक विकसित देशों ने इस मांग को सिरे से नकार दिया। क्वोटो प्रोटोकाल को लेकर अमेरिका शुरू से ही अड़ंगा लगाता रहा है।
मालदीव के लगभग १२०० द्वीप समुद्र तल से लगभग सर्वाधिक सात फीट ऊपर हैं। इनमें से दो तिहाई द्वीप समुद्र तल से सिर्फ चार फीट ऊपर हैं। भारत की यात्रा पर आए यहां के राष्ट्रपति डॉ ़मोहम्मद नशीद ने कहा कि मालदीप को बचाने के लिए काफी धन की आवश्यकता है। भारत मदद कर रहा है। लेकिन हमें और धन की आवश्यकता है। कुछ धनी देश हमें धन देने का प्रस्ताव दे भी रहे है। धन के बदले हमें कुछ बेचना होगा। हम पर्यटन के जरिए धन जुटाने के और प्रयास करेंगे। जरूरी हुआ तो अपनी कुछ स्टे्रटेजिक संपदा (द्वीप) भी बेच सकते हैं।
हिन्द महासागर में आबाद मालदीव का रणनीतिक महत्व है। विशेष रूप से भारत के लिए । चीन पहले ही भारत की द्घेराबंदी करने में जुटा है। वह लंबे समय से मालदीव के किसी द्वीप पर अपना सैन्य अड्डा बनाने की जुगत में लगा है। हालांकि राष्ट्रपति नशीद ने इसकी संभावना से इन्कार किया है। सऊदी अरब और इजराइल भी मालदीव के संपर्क में हैं। अगर चीन द्वीप खरीदने में सक्षम हो जाता है और वहां अपना बेस बना लेता है तो भारत की सुरक्षा के लिए खतरा होगा। द्वीपों को अगर इजराइल या अमेरिका खरीदता है तो वह भी भारत के हित में नहीं होगा।

Friday, October 23, 2009

सुर को सम्मान

मन्ना डे ने हिन्दी फिल्म संगीत को अपने वैविध्यपूर्ण सुर से समृद्ध किया है। क्लासिकल, कव्वाली से लेकर कॉमेडी और रोमांटिक गानों में उनका कोई जोड़ नहीं है। इस वर्ष उन्हें फिल्म जगत के सबसे बड़े दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। मन्ना डे की गायकी दिल और रूह को छूने वाली होती है। वे अपने ढंग के ऐसे गायक हैं जिनकी नकल संभव नहीं
ऐ मेरे प्यारे वतन' 'ए भाई जरा देख के चलो', 'कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'लागा चुनरी में दाग' 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' 'तू प्यार का सागर है' जैसे सदाबहार नगमें गा चुके ९० वर्षीय मशहूर गायक मन्ना डे को भारतीय सिनेमा में जीवन पर्यन्त शानदार योगदान के लिए वर्ष २००७ का दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया जाएगा। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल उन्हें यह पुरस्कार २१ अक्टूबर को एक समारोह में प्रदान करेंगी।
पांच दशकों से अधिक की लंबी प्रतीक्षा के बाद ही सही उनकी गायकी को भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजने का फैसला लिया गया है। मोहम्मद रफी ने मन्ना डे के लिए कहा था कि लोग मेरे गाने सुनते हैं और मैं सिर्फ मन्ना डे के। ९० बसंत देखने के बाद भी दमखम वैसा ही कायम है। आज भी गाते हैं और रोज रियाज करते हैं। १८ दिसंबर १९५३ में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारसन से शादी की। मन्ना डे आज के हो- हल्ले वाले संगीत से दुखी हैं। आज गाने का स्वर देखकर मन खिन्न हो जाता है। आज के गाने को देखकर लगता है कि कोई भी गा सकता है।
मौत का उन्हें डर नहीं है। कहते हैं मरना तो पड़ेगा ही, किंतु अतृप्त होकर नहीं तृप्त होकर जाना चाहता हूं। इस जीवन से खुश हूं। जितना प्यार, सम्मान और यश मुझे मिला, उसे सपने में भी नहीं सोचा था। मन्ना डे का पूरा नाम प्रबोध चंद्र डे है। उनका जन्म एक मई १९१९ को बंगाल में हुआ। यहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। १९४२ में मुंबई का रुख किया और कृष्णा चंद्र डे और सचिन देव बर्मन के साथ काम करना शुरू किया। यहीं से उनके करियर की शुरुआत मानी जाती है।
मन्ना डे की खासियत यह रही कि उनके गाये गानों में हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत हमेशा उपस्थित रहा। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की दीक्षा भी ली। मन्ना डे ने १९४० में फिल्म 'राम राज्य' में अभिनय भी किया और गाना भी गाया। इसके बाद फिल्म 'तमन्ना' से उन्होंने पार्श्वगायन में पूरी तरह से कदम रख दिया। इस गाने में कृष्ण चंद्र डे का संगीत था और यह गाना उस जमाने के हिट गानों में शुमार किया गया। मन्ना डे ने लगभग ३५०० गानों को अपनी आवाज से सजाया। उन्होंने कई गाने किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मुकेश कुमार के साथ भी गाए। वे हिन्दी और बंगाली फिल्मों के महान गायकों में से एक हैं। इससे पहले १९७१ में मन्ना डे को पद्म श्री और वर्ष २००५ में पद्म विभूषण से अलंकृत किया जा चुका है।
पचास के दशक तक मन्ना डे एक मंझे हुए पार्श्व गायक के तौर पर स्थापित हो चुके थे। उन्होंने 'आवारा', 'दो बीद्घा जमीन' 'हमदर्द' 'परिणीता' 'चित्रांगदा' 'बूट पालिश' और 'श्री ४२०' जैसी फिल्मों के लिए पार्श्व गायन किया। आमतौर पर राजकपूर की फिल्मों में मुकेश अपनी आवाज देते थे, लेकिन कुछ गीतों के लिए राजकपूर ने मन्ना डे की आवाज पर भरोसा दिखाया। 'श्री ४२०' का मुड़-मुड़ के न देख प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यू डरता है दिल 'मेरा नाम जोकर' का ए भाई जरा देख के चलो और 'बॉबी' फिल्म का 'ना मांगू सोना चांदी' ऐसे ही कुछ गीत रहे। मन्ना डे की आवाज हर दौर में श्रोताओं ने पंसद की। उन्होंने 'शोले' 'लावारिस' 'सत्यम शिवम सुंदरम' 'यादों की बारात' 'क्रांति' 'कर्ज' 'सौदागर' 'हिन्दुस्तान की कसम' 'बुड्ढा मिल गया' जैसी तमाम फिल्मों के गीतों को अपने सुरों से सजाया। उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार भीमसेन जोशी के साथ गाकर अपनी सुर साधना का परिचय दिया।
गानों में प्रामाणिकता लाने के लिए मन्ना डे ने प्रयोग भी खूब किए। 'नदिया चले चले रे धारा' में अलाप के लिए कल्याणजी भाई ने बंगाल के लोक गायकों को बुलावा दिया। गोवा के मिजाज को समझते हुए मन्ना डे कुछ दिनों तक उस शैली को समझते रहे, जिसमें उन्हें 'ना मांगू सोना चांदी' जैसा गीत गाना था। 'इक चतुर नार' के लिए भी वह पूरे दक्षिण भारतीय मिजाज में थे। बंगाल के लोक संगीत में तो उनकी आवाज में और भी सोना बिखरा पड़ा है। शैलेंद्र ने 'तीसरी कसम' बनाई तो लोक गायकी की छटा बिखेरता 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे' गीत मन्ना डे से गवाया और उन्होंने इसे सहजता और खूबसूरती से गाया भी।
फिल्मी कव्वालियों पर कोई भी चर्चा मन्ना डे के बिना अधूरी है। 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'ये इश्क इश्क' और बहुत सी कव्वालियां इसके सबूत हैं। एक तरफ शास्त्रीय संगीत में 'सुर ना सजे' जैसा संजीदा गीत, तो दूसरी और 'ए भाई जरा देख के चलो।' यह करिश्मा मन्ना डे ही कर सकते हैं। उनकी गायकी को गंभीर और महज शास्त्रीयता तक देखने वाले अगर उनके रोमांटिक गीतों की बानगी को समझ लें तो फिर उनसे भूल न होगी। लताजी के साथ उनके बेहद खूबसूरत युगल गीत हैं।
अक्सर कहा जाता है कि मन्ना डे की प्रतिभा का फिल्म जगत पूरा उपयोग नहीं कर पाया। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर में मन्ना डे की अपनी खास जगह रही है। वह लीक पर नहीं चले। केसी डे और उस्ताद अब्दुल रहमान खान जैसे संगीत मर्मज्ञों का सान्निध्य जिसे मिला हो, उसे मन्ना डे बनना ही था। बेशक किसी गीत को फिल्म में लाने में कई पहलुओं का ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए आवाज में तरुणाई पाने की तलाश में शायद रफी और मुकेश को ज्यादा अवसर मिल गए हों, पर इससे फिल्म संगीत में मन्ना डे का महत्व कम नहीं हो जाता है। उनके कुछ अविस्मरणीय गीत ऐसे भी हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि अगर मन्ना दा नहीं होते, तो फिर संगीतकार उन गीतों की धुन शायद बदल देते।
फिल्म संगीत का वह स्वर्णिम दौर श्रोताओं को कई तरानों की याद दिलाता है जिसे हम आज तक नहीं भूल पाये हैं। यह गीत आज भी लोगों को रोमांचित करता है। 'चढ़ गयो पापी बछुआ' 'तुम गगन के चंद्रमा हो' 'नैन मिले चैन कहां' 'ये रात भीगी भीगी' 'प्यार हुआ इकरार हुआ' 'सुर न सजे' 'पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई' ऐसे ही कई तराने हैं। यह उनकी गायकी का विशाल गगन है कि उन्होंने शास्त्रीयता, कव्वाली, भजन या फिर बंगाल की सुंदर लोकधुनों पर तैयार गीतों को इस कदर गाया कि लोग झूमते रह गए।
मन्ना डे ने संभवतः सबसे ज्यादा थीम सांग गाए हैं। मसलन ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'सफर' में अत्यधिक करूणा है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है। कैंसर के मरीज राजेश खन्ना से शर्मिला टैगोर प्यार करती है। रोना-गाना चलता रहता है। अंत में नायक मर जाता है। इस फिल्म में कई मधुर गीत हैं जो काफी लोकप्रिय भी हुए। मगर इस फिल्म के थीम सांग के लिए ऋषिकेश ने 'मन्ना डे' की मदद ली। इस फिल्म का थीम सांग-'नदिया चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा ़ ़ ़तुझको चलना होगा' मन्ना डे ने ही गाया। इसी विषय पर एक और फिल्म थी 'आनंद'। उसमें भी नायक राजेश खन्ना थे और कैंसरग्रस्त भी। वह फिल्म भी ऋषिकेश दा की है। उसमें कई कर्णप्रिय गीत मुकेश के स्वर में हैं। लेकिन थीम सांग उन्होंने ही गया है। गीत है 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी तो हंसाए, कभी ये रूलाए।
मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार' का गीत 'कस्मे वादे प्यार वफा सब बाते हैं, बातों का क्या।' को सूफियाना अंदाज में मन्ना डे ही दे सकते थे। इसी तरह महबूब खान की क्लासिक फिल्म 'मदर इंडिया' का गीत- 'चुनरिया कटती जाए रे, उमरिया द्घटती जाए रे' को उन्होंने अपनी विशिष्ट आवाज से दार्शनिक टच दिया है। आत्मा को मथती मन्ना डे की आवाज ने निराशा को वह सूफियाना अंदाज दिया है कि वह गीत सुनकर आज भी लोगों के बढ़ते कदम ठिठक जाते हैं। ग्रेट शो मैन राजकपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'ए भाई जरा देख के चलो' को कौन भूल सकता है। इस गीत में जीवन-दर्शन है। संवाद शैली में यह गीत है। मन्ना डे की विलक्षण गायन-क्षमता बेमिसाल नमूना है। अरसा हुआ मन्ना डे ने मुंबई को हमेशा के लिए छोड़ दिया। अपने पुराने शहर कोलकाता में रहते हैं। शायद हमें या हिन्दी फिल्मों को मन्ना डे जैसे गायक की जरूरत नहीं रही, क्योंकि हम चलताऊ गाने सुनने के आदी हो गए हैं।

ओबामा को नोबेल

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के नाम नोबेल शांति पुरस्कार का एलान वाकई चौंकाने वाला है। न सिर्फ इसलिए कि पिछले एक दशक में वह तीसरे अमेरिकी राजनेता हैं, जिन्हें यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला है, इसलिए भी कि सम्मान के लिए
नामांकन की तारीख खत्म होने के ग्यारह दिन पहले ही वे राष्ट्रपति बने थे। नोबेल पुरस्कार समिति ने ओबामा के पक्ष में चाहे जितने भी कसीदें गढ़े हों, लेकिन एक बार फिर यह सर्वोच्च सम्मान विवादों के द्घेरे में आ गया है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि पुरस्कार समिति ने भविष्य में निवेश किया है। इसे एक संयोग कहें या फिर विडंबना कि ओबामा को ऐसे समय नोबेल पुरस्कार मिला जब उन्होंने शांति के दूत कहे जाने वाले प्रसिद्ध धर्मगुरु दलाई लामा से मिलने से इन्कार कर दिया।
ओबामा को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और लोगों के बीच सहयोग को मजबूती देने के उनके असाधारण प्रयासों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति हैं। दुनिया भर में शांति कायम करने के प्रयास, मुस्लिम देशों के बीच अमेरिका की छवि अच्छी बनाने और परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर वे हमेशा सुर्खियों में रहे। राष्ट्रपति ओबामा ने इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार जीतने पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा 'मैं नहीं समझता कि मैं दुनिया की काया पलटने वाले उन अनेक व्यक्तियों के साथ शामिल होने के काबिल हूं।' ओबामा तीसरे ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिनको उनके कार्यकाल के दौरान इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इससे पहले १९०६ में थियोडोर रोजवेल्ट को, १९१९ में वुडरो विल्सन को यह सम्मान प्रदान किया गया था।
ओबामा की वैश्विक कूटनीति का मुख्य केंद्र मुस्लिम जगत की ओर हाथ बढ़ाना रहा, जो अफगानिस्तान और इराक में युद्ध के चलते लंबे समय से अमेरिका को अपना दुश्मन मानता है। ओबामा ने अमेरिकी युद्धनीति की आलोचना की। पश्चिम एशिया के लिए विशेष दूत की नियुक्ति के बाद इजराइल और फिलीस्तीनी नेताओं को एक मंच पर लेकर आए। उन्होंने जून में काहिरा में मुस्लिम जगत के साथ संबंधों पर प्रमुख भाषण दिया। चौवालीस वर्षीय ओबामा ने ईरान और म्यांमार जैसे देशों के साथ भी बातचीत के दरवाजे खोले जिन पर बीते कई वषोर्ं से आर्थिक प्रतिबंध लागू हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा के माध्यम से ओबामा ने विश्व से परमाणु शस्त्रों की कटौती के लिए भी अपील की। यूरोप के लिए रक्षा नीति पर उन्हें रूस से भी समर्थन मिला।
राष्ट्रपति ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की द्घोषणा पर अमेरिकी बेशक गर्व व्यक्त कर रहे हैं लेकिन अगर देश में हुई प्रतिक्रिया को किसी एक शब्द में समेटा जा सकता है तो वह है 'आश्चर्य'। स्वयं अमेरिका में इस फैसले पर आश्चर्य है। मीडिया में वह राष्ट्रीय उत्साह नहीं देखा जा रहा है जो अमेरिकी दिखाने में मशहूर हैं। आश्चर्य में अविश्वास और संशय ही देखने को मिल रहा है। सीएनएन के मॉडरेटर जॉन मान ने पुरस्कार की द्घोषणा पर कहा कि एक व्यक्ति जो सिर्फ नौ महीने से इस उच्च पद पर है, दो देशों में युद्ध लड़ रहा है उसे शांति के लिए दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल रहा है।
पुरस्कार मिलने पर आम लोगों को भी हैरानी हुई है। लेकिन इससे भी हैरत में डालने वाली बात यह है कि उनके गृहनगर में ही लोगों को इस पर विश्वास नहीं हो रहा। अखबारों द्वारा कराये गये जनमत सर्वेक्षण से यह बात सामने आयी है कि ७० प्रतिशत लोगों का यह मानना है कि बराक इसके हकदार नहीं हैं। राष्ट्रपति ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने पर रिपब्लिकनों ने संशय, संदेह और गुस्से के साथ प्रतिक्रिया दी हैं। रिपब्लिकन नेशनल कमेटी के चेयरमैन माइकल स्टीले ने इसे 'दुर्भाग्यपूर्ण' करार दिया और आरोप लगाया कि ओबामा का दर्जा सेलिब्रिटी का है। उन्होंने किसी वास्तविक उपलब्धि के चलते यह सम्मान हासिल नहीं किया है। स्टीले ने अपने बयान में कहा अमेरिकी के साथ-साथ पूरी दुनिया के लोग यह वास्तविक सवाल उठा रहे हैं कि आखिर ओबामा ने किया क्या है?
विश्व शांति के लिए १९९४ में जब प्रमुख फिलिस्तीनी नेता यासिर आराफात को नोबेल पुरस्कार मिला था तो उसका मखौल स्वयं अमेरिकी मीडिया ने उड़ाया था। लिखा जा रहा था, क्या इस बार पुरस्कार के लिए 'हत्यारा' होना शर्त थी। अब जबकि बराक ओबामा को यह सम्मान दिया गया है तो क्या पूछा जा सकता है कि क्या इस बार सिर्फ 'बातें' काफी थीं। गौरतलब है कि ओबामा ने २० जनवरी २००९ को अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ ली। नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन की अंतिम तिथि एक फरवरी २००९ थी। यानी ग्यारह दिन के उनके कार्यकाल पर उन्हें विश्व में अमन स्थापित करने का सम्मान दे दिया गया। ओबामा के वे प्रयास जो किसी को दिखे तक नहीं नोबेल कमेटी को 'असाधारण' और 'अद्वितीय' लगे। सम्मान की द्घोषणा वाले दिन तक ही वे नौ माह की किस शांति के अग्रदूत थे?
ओबामा को नोबेल पुरस्कार मिलने पर विश्वभर में मिली जुली प्रतिक्रिया सामने आयी।
ईरान के राष्ट्रपति के सलाहकार अली अकबर ने उम्मीद जताई कि इस पुरस्कार से बराक ओबामा को पूरी दुनिया में न्याय स्थापित करने के रास्ते पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। हम इससे कतई खिन्न नहीं हैं। हम समझते हैं यह पुरस्कार लेने के बाद ओबामा दुनिया से अन्याय हटाने की दिशा में कुछ व्यावहारिक प्रयास शुरू करेंगे। वहीं अफगानिस्तान में तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह ने कहा है कि ओबामा ने अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया है। हम ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की भर्त्सना करते हैं। हम उस संगठन की भी भर्त्सना करते हैं, जो ओबामा को शांति पुरस्कार दे रहा है।
बहरहाल, महानता कभी निर्दोष नहीं होती, और शायद नोबेल पुरस्कार भी इससे अछूते नहीं रह सकता। लेकिन जिस सम्मान को पाने की हसरत अनेक लोग पालते हों, उसे इतना पारदर्शी और विवादरहित तो होना ही चाहिए कि उसकी खुद की साख दांव पर न लगे। ऐसा नहीं है कि इस पुरस्कार पर पहली बार कोई प्रश्नचिह्न लगा है। इससे पहले कई बार इस पर उंगली उठी है लेकिन इस वर्ष शांति के नोबेल को लेकर अशांति फैल गयी है। बेशक, ओबामा के इरादे नेक हों, वह दुनिया को परमाणु शस्त्र विहीन बनाने का दम भरते हों, लेकिन उन्हें अपने आचरण से इसे साबित करना चाहिए। ओबामा यथास्थिति को तोड़कर समस्याओं का समाधान चाहते हैं।
परमाणु निरस्त्रीकरण पर उनकी नीयत ज्यादा सुरक्षित विश्व बनाने की है इसमें कोई शक नहीं। ओबामा सच्चे अर्थों में मार्टिन लूथर किंग के अनुयायी हैं जो सौहार्द और संवाद के सहारे समस्याएं सुलझाना चाहते हैं। कुटिलता और स्वार्थ से भरे अंतरराष्ट्रीय राजनय में उनका यह रवैया खुली हवा के झौके की तरह है। यकीनन वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने अमेरिका की पश्चिम एशिया नीति को बहुत हद तक बदलने का जोखिम उठाया है।

Thursday, October 8, 2009

सत्ता में फिर से वापसी

जब-जब जर्मनी से किसी बड़े परिवर्तन की आहट सुनाई देती है यूरोप सशंकित हो उठता है। ऐसे में सारी दुनिया की निगाहें उसपर लग जाती हैं। हाल ही में जर्मनी में संपन्न चुनाव में ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। यूरोप की सबसे बड़ी

अर्थव्यवस्था वाले देश जर्मनी के आम चुनाव में चांसलर एंजेला मॉर्केल ने पूर्ववर्ती सत्तारूढ. गठबंधन में शामिल रहे अपने प्रतिद्वंद्वी दल को धूल चटाते हुए लगातार दूसरी बार न सिर्फ शानदार जीत दर्ज की है बल्कि अपने पसंदीदा दल के साथ गठबंधन बनाने के लिए भी जनमत हासिल कर लिया है।

२७ सितंबर के चुनाव परिणामों ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिला मानी जाने वाली ५५ वर्षीय मॉर्केल को आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अपने पसंदीदा दल फ्री डेमोक्रेट यानी एफडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने का मौका दे दिया। देश की पूर्ववर्ती गठबंधन में शामिल रही देश के सबसे बड़ी मध्यमार्गी वामपंथी पार्टी सोशल डेमोक्रेट को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा है।

पिछले चार सालों से सोशल डेमोक्रेट्स के साथ गठबंधन को दरकिनार कर मॅार्केल द फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी यानी एफडीपी के सहयोग से चार साल का दूसरा कार्यकाल हासिल करने में सफल रहीं। मॅार्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) तथा उसकी सहयोगी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) ने २३९ सीटें हासिल कर ली हैं। एफडीपी ने चुनावों में ९३ सीटें हासिल की हैं। इस प्रकार सीडीयू को ३३२ सीटों का बहुमत मिला है। सीडीयू ने १४६ सीटें, वाम दलों ने ७६ सीटें और अन्य ने ६८ सीटें जीतीं। सीडीयू के पिछली सरकार में मॅार्केल के साथ अच्छे संबंध नहीं थे। जीत के बाद मॅार्केल ने कहा मेरे लिए खुशी की बात है कि हमें एक बार फिर सरकार बनाने का मौका मिला।

हम सचमुच जश्न मना सकते हैं लेकिन आगे हमारे लिए कठिन रास्ता है। जर्मनी में संसदीय चुनाव प्रक्रिया में जिस तरह अनिश्चिता देखी गई उतनी ही निश्ंिचतता से जनता ने नई सरकार चुनी।
जीत के बाद मॅार्केल ने कहा कि वह नई सरकार के गठन के लिए वेस्टरवेस्ले से निर्णायक बातचीत करेंगी। कर में कटौती के मुद्दे पर अंतिम फैसला होते ही उम्मीद है कि नई सरकार गठित हो जायेगी। गौरतलब है कि एफडीपी १६ साल में बाद वापस न सिर्फ सत्ता में आई है, बल्कि नए गठबंधन में उसका प्रभाव भी बढ़ा है। निचले सदन में पार्टी ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए रिकार्ड मत हासिल किए हैं।

चुनाव परिणामों की द्घोषणा के तुंरत बाद हार स्वीकार करते हुए एसपीडी के चांसलर पद के उम्मीदवार फ्रांक वान्टर श्याइनमायर ने संसदीय दल के नेता के रूप में काम करने की बात कही। पार्टी नेतृत्व उन्हें इस पद के लिए प्रस्तावित कर रहा है, वे पेटर का स्थान ले रहे हैं जो सक्रिय राजनीति से विदा लेने वाले हैं। एसपीडी के अंदर गणतंत्र के इतिहास की सबसे बुरी हार के बाद जिम्मेदारी की बहस छिड़ गई है। पार्टी प्रमुख क्युंटेफेरिंग ने पद छोड़ने के संकेत दिए हैं। पार्टी उपाध्यक्ष आंडेजा नाहलेस का कहना है कि अब पहले की तरह नहीं चल सकता, एसपीडी को जीर्णोद्धार की जरूरत है।

जर्मनी के आम चुनाव के नतीजों पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खूब चर्चा रही। खासकर सियासी परिदृश्य में बदलाव और नई सरकार की वित्तीय और आर्थिक नीति को लेकर दुनियाभर के अखबारों ने टिप्पणी की। सारी दुनिया की निगाहें जर्मनी के आम चुनाव पर लगी थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नख-दंत विहीन हो जाने और दो टुकड़ों में बंट जाने के बावजूद जर्मनी ने खुद को बहुत कायदे से संभाला। मौका मिलते ही दोनों टुकड़े फिर एकजुट हुए और आज वह यूरोप की सबसे बड़ी और दुनिया की पांचवें नंबर की आर्थिक ताकत है।

अंजेला मॅार्केल ३६ साल की उम्र तक जिंदगी की जद्दोजहद में इतनी मशगूल रहीं कि उन्होंने राजनीति के बारे में सोचा ही नहीं था। लेकिन जैसे ही १९८९ में बर्लिन की दीवार टूटी और दोनों तरफ के लोग एक हुए, मॅार्केल ने भी अपनी राजनीतिक आंखें खोलीं। पिछले २० वर्षों से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। चार साल पहले वह पूर्वी जर्मनी मूल की पहली चांसलर बनीं। इस बार के चुनाव में उनके बारे में क्या नहीं कहा गया। वह तलाकशुदा हैं, मुंहफट हैं, पुरूषों को कुछ नहीं समझतीं और क्रिश्यिचन डेमोक्रेट के भेष में कम्युनिस्ट हैं। लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि जर्मनी को एक गंभीर नेता चाहिए, ब्रिटनी स्पीयर्स नहीं। दुनिया आर्थिक मंदी के भयावह दौर से गुजर रही है। ऐसे समय में देश को ऐसा नेता चाहिए जो कड़े फैसले ले सके।

कुछ साल पहले देश की आर्थिक विकास दर सात प्रतिशत थी, आज एक प्रतिशत से भी कम है। वह आर्थिक सुधार के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। उनकी प्राथमिकता हर हाल में नौकरियां बचाना और नई नौकरियों का सृजन है। इसके लिए वह मुक्त व्यापार की पक्षधर पार्टी फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती हैं जिसका पहला लक्ष्य है चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बनना। यानी नए आत्मविश्वास से लबरेज अंजेला मॅार्केल कुछ और आक्रमकता के साथ विश्व रंगमंच पर खुद को पेश करेंगी, न सिर्फ आर्थिक मोर्चों पर, बल्कि राजनीति और सामरिक मोर्चों पर भी।

विश्लेषकों के मुताबिक दोनों दक्षिणपंथी पार्टियां मिलकर जर्मनी में कर, श्रम सुधार नीतियों और द्घरेलू सुरक्षा में सुधार करने का प्रयास करेंगी। सीडीयू के महासचिव रोनाल्ड के अनुसार गंठबंधन के लिए बातचीत जितनी जल्दी हो सकेगा, शुरू की जाएगी। जानकारों की मानें तो नई सरकार के सामने बजट द्घाटे, बढ़ती बेरोजगारी पर लगाम व कर्ज चुकाना जैसी चुनौतियां होंगी। सीडीयू की जीत से शेयर सूचकांक में उछाल आया है। प्रमुख अर्थशास्त्री नोटबर्ट वाक्टर ने कहा है कि नई सरकार की नीतियां बाजारोन्मुखी हैं। मुझे विश्वास है कि अपने आर्थिक संकट से जर्मनी जल्द ही उबर जाएगा।

इस बीच चांसलर मॅार्केल को अपनी चुनावी सफलता पर दुनिया भर से बधाइयां मिल रही हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने कहा है कि यह सफलता मॅार्केल के प्रति जर्मन जनता के विश्वास की अभिव्यक्ति है। अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चांसलर मॅार्केल को बधाई दी। व्हाइट हाउस ने कहा कि अमेरिका राष्ट्रपति और जर्मन चांसलर एंजेला मॅार्केल के बीच इस बात पर सहमति है कि जर्मनी में एक मजबूत सरकार के आने के बाद दोनों देशों का सहयोग और बढ़ेगा तथा मजबूत होगा। अमेरिका और जर्मनी एक दूसरे के विश्वस्त सहयोगी हैं और दुनियाभर में आजादी, सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए दोनों देश एक साथ काम कर रहे हैं। जर्मनी के साथ सहयोग बढ़ते देखना चाहते हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉडेन ब्राउन ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि वे चांसलर मॅार्केल के साथ अपने कारोबारी संबंध बनाए रख सकते हैं।

भारतीय मूल के तीन सांसद जर्मन संसद बुंडेसटाग में पंहुचे हैं। एसपीडी के सेवा क्रिश्चयन एडाधी ने अपनी सीट सीधे जीती है, जबकि ग्रीन पार्टी के जोसेफ विंकलर और वामपंथी राजू शर्मा पार्टी सूची से संसद में पहुंचे हैं। वामपंथी डी लिंके ने भारतीय मूल के वकील राजू शर्मा को होलश्टाइन प्रांत में अपना उम्मीदवार बनाया था। जर्मनी के संसदीय चुनावों में इस बार भारतीय मूल के चार उम्मीरवार मैदान में थे। इनमें से दो सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के और ग्रीन पार्टी के जोसेफ विकलर।

मौटे तौर पर नई जर्मन सरकार से कुछ ज्यादा अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, लेकिन भारत के लिए ये चुनाव खास रहे हैं। भारत में कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई है और यही रूझान जर्मनी में भी देखने को मिला है। राजदूत श्यागा कि मानें तो मनमोहन सिंह और मॅार्केल के बीच बहुत अच्छी समझदारी है जो आने वाले दिनों में लाभदायक साबित होगी। उनके अनुसार, जर्मनी के लिए भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती भूमिका बहुत मायने रखती है। विश्लेषकों का भी मानना है कि अब तक दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते प्रबल रहे हैं और अब समय आ गया है राजनीतिक रिश्तों को और आगे बढ़ाने का। जर्मनी और भारत एक साथ सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता के लिए कोशिश कर रहे हैं, इसलिए भी इस रिश्ते को नई दिशा मिलनी चाहिए।

यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद जर्मनी को आर्थिक मंदी की भयावह मार झेलनी पड़ी है। क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स दोनों ही कर कटौतियों के प्रबल पक्षधर है। इस बार फ्री डेमोक्रेट्स सरकार की नीतियों को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में होंगे। उनके नेता वेस्टरवैले बाजार और व्यापारियों के चहेते हैं। वे विदेश, वित्त और न्याय मंत्रालय चाहेंगे जो परंपरा से उन्हें मिलते भी आए हैं। अगर वेस्टरवैले सचमूच देश के विदेश मंत्री बनते हैं तो उनके लिए इस्लामी देशों के साथ कूटनीति में दिक्कत पेश आ सकती है क्योंकि वे समलैंगिक हैं। जो भी हो माकेल की दूसरी पारी आशा लगाने वाली ही मानी जाएगी।

Thursday, October 1, 2009

दूरदर्शन का सुहाना सफ़र

बहुत खामोशी के साथ विश्व में सर्वाधिक लोगों तक पहुंच रखने वाले 'दूरदर्शन' ने अपनी स्थापना के पचास साल पूरे कर लिए। भारत में आर्थिक उदारीकरण आने के बाद लगभग चार सौ से अधिक चैनल आए और दूरदर्शन को उनसे कड़ा संद्घर्ष भी करना पड़ा।

लेकिन इस संद्घर्ष में भी उसने अपनी विश्वसनीयता और भरोसे को कायम रखा। चोटी के दो साहित्यकारों कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी ने इसे बुद्धु बक्से की छवि से निकालकर आम आदमी का चैनल बनाया। कमलेश्वर ने दूरदर्शन का महानिदेशक रहते हुए समाचारों में आमूल-चूल परिवर्तन किए और परिक्रमा जैसे कई लोकप्रिय समसामयिक कार्यक्रम तैयार करवाए। जबकि मनोहर श्याम जोशी ने 'हम लोग' जैसा धारावाहिक लाकर नई क्रांति की

दूरदर्शन ने अपनी स्थापना के ५० वर्ष पूरे कर लिये हैं। एक जमाना था जब सिर्फ दुरदर्शन ही था। इसकी पहुंच भारत के सुदूरवर्ती गांवों तक रही और इसने करोड़ों लोगों के विश्वास को हासिल किया। आज भी दूरदर्शन का नाम सुनते ही अतीत के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद आ जाते है। इसके कई कार्यक्रम जैसे 'हमलोग', 'सुरभि', 'रामायण', 'महाभारत', 'चित्रहार', 'रंगोली', 'बुनियाद', 'परिक्रमा', 'स्वाभिमान', 'भारत एक खोज', 'आंखों देखी', 'नीम का पेड़', 'इंतजार', 'फौजी', 'फिर वही तलाश', 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने', 'कक्का जी कहिन', 'शांति', 'वर्ल्ड दिस विक', 'तमस', 'नुक्कड़', 'मालगुड़ी डेज', 'जंगल बुक', 'बातों बातों में' ने न सिर्फ लोकप्रियता हासिल की बल्कि देश में यह एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में भी स्थापित हुआ।

दूरदर्शन ने न जाने ऐसे कितने सफल धारावाहिक के माध्यम से टीवी मनोरंजन के क्षेत्र में कई मिसालें कायम की हैं। आज भी यह भारत का सूचना, समाचार, संस्कार और मनोरंजन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला सबसे बड़ा माध्यम है। इसने मनोरंजन के मायने ही बदल दिये साथ-साथ लोगों को शिक्षित करने में भी अहम भूमिका निभाई।

टेलिविजन ने पिछले ५० वर्षों में आसमानी ऊचाइयां हासिल की है। आज देशभर में करोड़ो लोगों के द्घरों में टीवी सेट है, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब दिल्ली जैसे महानगर में मात्र १८ टीवी ही थे और लोग शहर में जगह-जगह कौतुहल के साथ इस अजब-गजब बक्से को देखते थे। दूरदर्शन ने तब से लेकर अब तक लम्बा सफर तय किया है। आज वह अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा है। देश में बेशक लोगों के पास आज ४५९ टीवी चैनल और दूरदर्शन के ३५ चैनलों में से किसी को भी चुनने की स्वतंत्रता है। लेकिन आज भी ९० प्रतिशत दर्शक इससे जुड़े हुए हैं।

पन्द्रह सितंबर १९५९ को दूरदर्शन का प्रसारण सप्ताह में सिर्फ तीन दिन आधा-आधा द्घंटे के लिए होता था। इसी वर्ष इसकी शुरुआत 'टेलिविजन इंडिया' नाम से हुई। इसका 'दूरदर्शन' नामकरण १९७५-७६ में हुआ। दूरदर्शन की एक दिलचस्प कहानी यह भी है कि उस समय के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब दूरदर्शन के प्रसारण का उद्द्घाटन कर रहे थे, तब उद्द्घाटन प्रसारण में बाधा आ गई थी। ऐसे में लाचारीवश रुकावट के लिए खेद की पट्टी लगानी पड़ी। खैर राजेन्द्र प्रसाद ने स्विच ऑन कर इसका उद्द्घाटन किया। उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने शहनाई वादन प्रस्तुत किया। मंगल ध्वनि बजी।

इसके बाद धीरे-धीरे सफर तय करते हुए दूरदर्शन ने अपना पहला धारावाहिक 'हमलोग' शुरू किया। जल्दी ही यह सबसे ज्यादा देखा जाने वाला सीरियल बन गया। इसके सबसे अहम किरदार अशोक कुमार का सीरियल के अंत में जो बातें बताते थे उसे लोग बड़े ध्यान से सुनते थे। इसके बाद 'बुनियाद' आया। यह सीरियल भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद परिवारों के बनते-बिगड़ते संबधों पर आधारित था। इसके मुख्य कलाकार आलोक नाथ, अनीता केवर, विनोद नागपाल, एवं दिव्या सेठ आदि थे। रामानंद सागर के 'रामायण' को भला कौन भूल सकता है?

'रामायण' में राम और सीता की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल और दीपिका को आज भी लोग राम और सीता के रूप में ही पहचानते हैं। बीआर चोपड़ा के सीरियल 'महाभारत' से ही नीतीश भारद्वाज को कृष्ण के रूप में पहचान मिली। वहीं 'भारत एक खोज', 'दि सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' और 'चाणक्य' ने लोगों को भारत की ऐतिहासिक तस्वीर से रूबरू कराया। जबकि जासूस 'करमचंद', 'रिपोर्टर', 'तहकीकात', 'सुराग' और 'बैरिस्टर राय' जैसे धारावाहिकों ने समाज में हो रही आपराधिक द्घटनाओं को स्वस्थ ढंग से पेश करने की कला विकसित की। लोग अगला ऐपिसोड देखना नहीं भुलते थे।

पुराने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के सामने बैठे किसान भाई 'कृषि दर्शन' और मूक बधिरों के समाचार बड़े चाव से देखते थे। बीच -बीच में आने वाले छोटे विजुअल्स जैसे 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' 'प्यार की गंगा बहे देश में एका रहे' 'स्कूल चलें हम' 'सूरज एक चंदा तारे अनेक' 'एक चिड़िया अनेक चिड़िया' 'एक अन्न का ये दाना सुख देगा मुझको मनमाना' आदि भी बहुत ही चाव से देखे जाते थे। रविवार का दिन तो मानो दूरदर्शन का ही होता था। लोग सुबह उठकर 'रंगोली' देखते, फिर नाश्ता लेकर टीवी से चिपक जाते। दोपहर में ही कुछ समय के लिए टीवी से अलग हटते थे फिर शाम को हर रविवार को दिखाई जाने वाली फिल्म देखने बैठ जाते थे, तो फिर रात में ८ः४५ पर समाचार देखकर ही टीवी छोड़ते थे। उस समय के संडे का मतलब होना था आजकल का टोटल 'फन डे'।

बात खबरों की हो तो दूरदर्शन ने समाचारों के प्रसारण के मामले में रंग-रूप और नई-तकनीक जरूर अपना ली है लेकिन अभी भी उसके समाचारों में विश्वसनीयता बरकरार है। बिना किसी राग-द्वेष, लाग लपेट और नाटकीयता के समाचारों की प्रस्तुति खूब रही। दूरदर्शन ने विषय की गंभीरता को खत्म नहीं किया। आज इसके माध्यम से न सिर्फ हिन्दी और अंग्रेजी में समाचार प्रस्तुत किया जाता है, बल्कि अन्य कई भारतीय भाषाओं में भी समाचार प्रस्तुत किया जाता है।

समाचार से संबंधित कई अन्य कार्यक्रमों को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता रहा है।ं दूरदर्शन का उद्देश्य समय भाव के साथ लोकहित का भाव है। इसी तरह धारावाहिक 'परिक्रमा' को कैसे भूलाया जा सकता है। सचमुच कमलेश्वर ने इस कार्यक्रम के माध्यम से लोगों के सामने सच को उजागर किया। उसकी स्मृति आज भी लोगों के दिलो-दिमाग को झझकोर देती है। जहां तक चुनावों के विश्लेषण की बात है तो इसमें दूरदर्शन का जवाब नहीं। पहले चुनाव विश्लेषणों के बीच-बीच में हिन्दी फिल्में दिखायी जाती थी तााकि लोगों की रुचि इसमें बनी रहे।

वर्ष १९७२ में दूरदर्शन को तब राष्ट्रीय पहचान मिली जब उसका एक ट्रांसमीटर मुम्बई में भी लगाया गया। उसके बाद देश भर में ट्रांसमीटर लगाने का काम तेजी से आगे बढ़ा। पाकिस्तान की सीमा पर भी कई ट्रांसमीटर लगाए गए ताकि पाकिस्तानी प्रसारण का मुकाबला किया जा सके। तब तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने टीवी की ताकत को पहचान लिया था। दूरदर्शन की तब तक कोई अलग पहचान नहीं थी और वह ऑल इंडिया रेडियो के अधीन ही आता था। इंदिरा गांधी ने एक सैटेलाइट कार्यक्रम तैयार करवाया। दूरदर्शन को ऑल इंडिया रेडियो से अलग कर स्वतंत्र पहचान दी गई। उन्होंने रंगीन टीवी के आयात को मंजूरी दी और उत्पादन को प्रोत्साहन देने का वादा किया। दूरदर्शन ने १९७५ में सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलिविजन एक्सपेरिमेंट कार्यक्रम के तहत नासा के उपग्रहों की मदद से देश के ६ राज्यों में शैक्षणिक कार्यक्रम का प्रसारण किया।

वर्ष १९८२ में देश ने टीवी पर पहली बार रंगीन चित्र देखा। एशियाई खेलों का इंदिरा गांधी ने सीधा प्रसारण करवाया। लोगों ने पहली बार दूरदर्शन पर एशियाई खेलों का आनंद उठाया। इसी दौरान दूसरे इनसेट श्रेणी के उपग्रह छोड़े गए और दूरदर्शन का प्रसारण स्वदेशी उपग्रहों से होने लगा। दूरदर्शन ने मेट्रो चैनल की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य बड़े शहरों में मनोरंजक कार्यक्रम परोसना था। इस चैनल ने शुरुआती सफलता भी अर्जित की लेकिन बाद में इसे बंद कर इसकी जगह समाचार चैनल शुरू किया गया।

आज दूरदर्शन कई चैनलों के साथ सबसे बड़ा टीवी नेटवर्क है। इस ५० साल की अवधि में इसने अर्श तक का सफर तय किया है। टेलिविजन का विस्तार कितनी तेजी से हुआ है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष १९७७ तक देश में केवल सात लाख द्घरों में ही टीवी सेट थे। आज १३ करोड़ से भी अधिक द्घरों में टेलिविजन देखा जा सकता है।

दूरदर्शन के देशभर में १४१२ ट्रांसमीटर हैं और ६६ स्टूडियो का नेटवर्क है। यह देश के करीब ९२ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को उपलब्ध है। एक सार्वजनिक प्रसारणकर्ता के रूप में यह विश्व में सबसे बड़े क्षेत्र को कवर करने वाला संस्थान है। इसका ध्येय वाक्य 'सत्यम शिवम सुंदरम' है। इसे ही ध्यान में रखते हुए दूरदर्शन देश की जनता के प्रति अपने फर्ज को निभाता आ रहा है। जनता के भरोसे से निश्चय ही स्वर्ण जयंती एक शताब्दी और फिर शताब्दियों तक की अनंत यात्रा बनेगी। चुनौतियों का सामना करते हुए दूरदर्शन तेजी से आगे बढ़ रहा है। बहुत कुछ हुआ है, बहुत कुछ होना बाकी है।

नसलवाद बनता नासूर

क्रिकेट हो या पढ़ाई नस्लवाद ऑस्ट्रेलिया के चरित्र का हिस्सा बन चुका है और पूरी दुनिया इस से रूबरू भी हो चुकी है। नस्लवाद का प्रतीक बनते जा रहे ऑस्ट्रेलिया में एक बार फिर

भारतीय नस्लवादी हिंसा के शिकार हुए हैं। संक्षिप्त विराम के बाद भारतीय समुदाय के तीन लोगों पर हमलवारों ने 'नृशंस प्रहार' किया है। लगभग ७० युवाओं के हमलावर समूह, जिसमें कई महिलाएं भी शामिल थीं, ने उपनगर एपिंग में २६ वर्षीय सुखदीप सिंह, उसके भाई गुरदीप सिंह और उनके चाचा मुख्त्यार सिंह पर हमला किया।

१६ सितंबर को ऑस्ट्रेलिया के एपिंग में तीन भारतीयों पर हुए हमले के बाद विक्टोरिया पुलिस ने हमले के संबंध में जानकारी जुटाने के लिए जांच शुरू कर दी। जबकि एक स्थानीय अखबार के कार्यकारी वरिष्ठ साजेंट ग्लेन पार्कर के हवाले से बताया गया है कि वास्तविक हमले में सिर्फ चार लोग ही शामिल थे और लगभग २० लोग वहां खड़े थे। इन हमलों के बाद विक्टोरिया के प्रधानमंत्री जान ब्रुंबी ने कहा कि वह पुलिस को नस्ली हमलों से निपटने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन और शक्तियां देगें। पुलिस हमलावरों से सख्ती से निपटेगी।

उन्होंने आश्वासन दिया कि जो भी लोग नस्ली हमलों में शामिल होंगे, वे अब कानून का पूरा दबाव महसूस करेंगे। भारत की यात्रा पर आने वाले ब्रुंबी ने विक्टोरिया को अब भी अपराध के मामले में ऑस्ट्रेलिया का सबसे सुरक्षित स्थान बतलाया है। हाल ही में ऑस्टे्रलियाई विदेश मंत्री स्टीफन स्मिथ ने भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को द्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होने का आश्वासन दिया।

इस बीच ऑस्टे्रलिया में भारतीयों पर जारी हमलों के बीच ऑस्टे्रलियाई प्रधानमंत्री ने भारतीय छात्रों को जवाबी हमले न करने तथा कानून अपने हाथ में न लेने की चेतावनी दी। उनकी यह प्रतिक्रिया लेखक और कार्यकर्ता फारुख धोंडी द्वारा स्थानीय भारतीय समुदाय द्वारा कुछ जवाबी कार्रवाई करने के लिए कहे जाने के बाद आई है। भारतीयों पर हुए हमले के बाद धोंडी ने भारतीयों की एक बैठक में मामले को अपने हाथों में लेने के लिए कहा था। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स ने कहा कि ऑस्टे्रलियाई सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन खोखले साबित हुए हैं। फिसा अध्यक्ष ने कहा कि लोगों को अब भी पीटा जा रहा है और गाली भी दी जा रही है। लोगों को अब भी नस्ली टिप्पणियों का सामना करना पड़ रहा है।

विदेशी छात्रों के कारण ऑस्टे्रेलिया का शिक्षा उद्योग फलफूल रहा है। पिछले साल ऑस्ट्रेलिया सरकार ने भारत के छात्रों को लुभाने के लिए विज्ञापनों पर ३५ लाख डॉलर खर्च किये थे। साथ ही हर साल भारत के छात्रों से ऑस्ट्रेलिया सरकार को लगभग ८००० करोड़ रूपये हासिल होते हैं। आज की मंदी के भयावह दौर में वहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा विदेशी छात्रों की फीस से ही आता है। ऐसे में यह तय है कि अगर विदेशी छात्रों ने ऑस्ट्रेलिया से मुंह मोड़ा तो उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। हालांकि शिक्षण क्षेत्र पर बुरे असर की संभावना को देखते हुए ही ऑस्टे्रेलियाई सरकार हरकत में आयी थी। लेकिन बार-बार वह नस्लवाद से मुकर जाती है।
पर सवाल यह है कि नस्लीय हिंसा को रोक पाने में अब तक ऑस्ट्रेलिया सरकार नाकामयाब क्यों है और भारत इसे रोकने के लिए ऑस्ट्रेलिया पर कितना दबाव बना पाया है।

स्थानीय मीडिया ने माना है कि ब्रुंबी की आगामी भारत यात्रा चुनौतीपूर्ण हो सकती है। बुं्रबी ने यह भी स्वीकार किया ऐसी द्घटनाओं से उनकी भारत यात्रा और कठिन हो जाएगी। उन्होंने यह माना कि हाल ही में भारतीयों पर हमलों की द्घटनाएं ऑस्टे्रलिया और भारत के बीच खराब हुए संबंधों को सुधारने के उनके मिशन के लिए मुश्किल खड़ी करेंगी। अपनी सरकार द्वारा इस समस्या का समाधान करने की प्रतिबद्धता जताते हुए कहा कि कुछ द्घटनाओं ने भारत में ऑस्ट्रेलिया और हमारी छवि को खराब किया है। ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के प्रति नस्लीय हिंसा रुकती नजर नहीं आ रही है ऐसे में बुं्रबी भारतीय नेताओं और अभिभावकों को कैसे आश्वासन देंगे कि विक्टोरिया उनके बच्चे के लिए सुरक्षित स्थान है।

पिछले वर्ष अक्टूबर से अब तक ऑस्टे्रलिया में भारतीय छात्रों और प्रवासी भारतीयों पर सैकडों हमले हो चुके हैं। इस सब के बावजूद ऑस्टे्रलिया सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। इससे जाहिर होता है कि ऑस्ट्रेलिया सरकार साफ तौर पर नस्लवाद को मानने को तैयार नहीं है। इन द्घटनाओं से ऑस्टे्रलिया में भारतीय छात्र भय के साये में जी रहे हैं। भारतीय छात्रों का ऑस्टे्रेलिया प्रशासन पर से भरोसा उठता जा रहा है। कई बार इस नस्लीय हिंसा के विरोध में हजारों की संख्या में छात्रों सड़कों पर प्रदर्शन के लिए उतर आये। भारत सरकार तथा छात्रों के विरोध के कारण ऑस्टे्रलिया सरकार ने भारतीय छात्रों की सुरक्षा के लिए टास्क फोर्स का गठन किया था। लेकिन इसका कोई खास प्रभाव नहीं हुआ।

नस्लवाद को जड़ से खत्म करने के लिए मार्टिन लूथरकिंग ने आवाज उठाई थी। उन्हीं को अपना आदर्श मानने वाले अश्वेत बराक ओबामा नस्लवादियों के द्घिनौने रूप से लड़ते हुए अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि नस्लवाद पतन की ओर अग्रसर है और जल्द ही यह पूरे विश्व से खत्म हो जाएगा। लेकिन फ्रांस में भारतीय विमान यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार के बाद अब ऐसा लगने लगा है कि गर्त में समा रहे नस्लवाद को किसी तिनके का सहारा मिल गया है।

Saturday, September 26, 2009

सरहद पर उठती लपटे

भारत के पड़ोसी देशों में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। सीमाओं पर खतरों की लपटें हैं। चीन से लेकर नेपाल तक का रुख भारत के प्रति बदला हुआ है। पाकिस्तान तो भारत का द्घोषित रूप से शत्रु रहा है

ठीक ही कहा जाता है कि आप जीवन में कुछ भी चुन सकते हैं, पड़ोसी नहीं। पड़ोसियों के साथ जीना आपको सीखना पड़ता है। क्योंकि सहयोग भी उन्हीं से मिलता है और सबसे ज्यादा खतरा भी उन्हीं से होता है। भारत के तमाम पड़ोसी देशों में या तो अस्थिरता है या भारत विरोधी माहौल है। चीन की द्घुसपैठ लगातार जारी है और वो इन दिनों मीडिया के सुर्खियों में भी है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। जिसका अकसद भारत को अस्थिर करना है।

हाल ही में पाक के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी स्वीकार किया है कि अमेरिका से आतंकवाद से लड़ने की खातिर मिले फंड से उन्होंने सेना के लिए हथियार खरीदे। जाहिर है कि उन हथियारों का इस्तेमाल भारत से लड़ने में ही होता है। नेपाल में माओवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत के साथ उसका पुराना रिश्ता चरमराया है। श्रीलंका की मौजूदा सरकार का रुख भारत के लिए संतोषजनक नहीं है।

कुल मिलाकर पड़ोसी देशों में कुछ ऐसा माहौल महज एक इत्तेफाक नहीं है। हमारा पड़ोसी देश चीन बार-बार देश की सीमा का अतिक्रमण कर रहा है। भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक में फैसला किया गया था कि दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। लेकिन हकीकत यह है कि चीन तनाव पैदा करने में जुटा है। अमेरिका के साथ हमारी निकटता से चीन परेशान है। दक्षिण एशिया में भारत की मजबूत होती आर्थिक हैसियत भी उसे नहीं सुहा रही है। ऐसे में चीन थोड़े दिनों के अंतराल पर सीमा विवाद के मसले को हवा देने लगता है। न सिर्फ अरुणाचल प्रदेश के मसले पर उन्होंने एक बार फिर हमारे खिलाफ विषवमन किया है, बल्कि लद्दाख क्षेत्र में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।

मुंबई की २६/११ की द्घटना में पाकिस्तान बुरी तरह द्घिरा हुआ है। पाकिस्तान अब विश्व जनमत को जोर-शोर से यह विश्वास दिलाने में लगा है कि वह आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई कर रहा है। और इसलिए भारत अब उससे बातचीत के लिए तैयार हो गया है। जबकि वास्तविकता इससे परे है। भारत मुंबई हमले के बाद मारे गए आतंकवादियों के डीएनए सैंपल और अन्य जानकारियां पाकिस्तान को उपलब्ध करा चुका है। इसके बावजूद पाकिस्तान ने अभी तक इन आतंकवादियों की पहचान और पृष्ठभूमि की जांच नहीं की है।

साफ है पाकिस्तान इस मामले में गंभीर नहीं है। इस बीच एक ब्रिटिश अखबार ने खुलासा किया है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। कैंप की दीवारों पर भारत विरोधी नारे और लाल किले का नक्शा भी मौजूद है। भारत को अब अपनी रणनीति की व्यापक समीक्षा करनी चाहिए और कड़े तेवर अपनाकर पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए कि वह आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करे। यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके साथ वार्ता संभव नहीं है।

साथ ही भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने इस तथ्य को उजागर करना चाहिए कि पाकिस्तान के भारत विरोधी तत्व पश्चिमी सीमा पर अमेरिकी सैनिकों और अफगान सरकार के साथ हो रही लड़ाई में शामिल हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान पर कूटनीतिक के साथ ही आर्थिक दबाव बढ़ाना चाहिए ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के उधर मजबूर हो जाए।

बांग्लादेश में जब तक खालिदा जिया की सरकार रही, इस पड़ोसी देश से भारत के रिश्ते दोस्ताना तो क्या सामान्य भी नहीं रह पाए। लेकिन शेख हसीना के आते ही बर्फ पिद्घलने लगी। दोनों देशों के आपसी संबंधों में एक बड़ा पेंच आतंकवाद का रहा है। शेख हसीना ने भारत को विश्वास दिलाया है कि उनका देश आतंकी गतिविधियों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। मगर इस मामले में पाकिस्तान और बांग्लादेश की कहनी और करनी में अंतर है। भारत के उत्तर-पूर्व में आतंक का पर्याय बने उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड, कामनापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन, त्रिपुरा टाइगर फोर्स जैसे संगठनों के लोग वारदातों को अंजाम देकर बांग्लादेश की सीमा में भाग जाते रहे हैं।

बांग्लादेश सरकार इनके खिलाफ मुहिम चलाने में भारत के साथ सहयोग करने को तैयार है। प्रत्यर्पण संधि के लिए बांग्लादेश के राजी होने के संकेत हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच दोनों ओर बहने वाली नदियों के पानी के बटवारे और तीन बीद्घा जैसे मामलों में सीमा का विवाद भी रहा है। जहां तक नदी जल विवाद का संबंध है, दोनों देशों के बीच अरसे से यह एक नाजुक मसला रहा है। जरूरत इस बात की है कि आगे की वार्ताओं में अनावश्यक पेचीदगियों से बचा जाए।

नेपाल में गैर माओवादी लोकतांत्रिक सरकार का स्थायित्व भारत के लिए रणनीतिक आवश्यकता होनी चाहिए। दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपनी आंतरिक स्थितियों के प्रति इतने अधिक केन्द्रित रहे हैं कि नेपाल में अपने मित्रों की सहायता के लिए ध्यान देने का उन्होंने समय ही नहीं निकला। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने वहां की हर स्थिति का दोषारोपण भारत पर करना शुरू किया। नेपाल, पाकिस्तान और चीन ही नहीं बल्कि बांगलादेश भी जेहादियों भी अड्डा बनता जा रहा है। भारत में पाकिस्तानी षड्यंत्र से नकली करेंसी भी नेपाल मार्ग से ही भारत भेजी जाती है।

नेपाल में चीन के समर्थन से माओवादी लगातार भारत-विरोधी भावनाएं फैला रहे हैं। अतः इन परिस्थितियों में नेपाल की वर्तमान सरकार को स्थायित्व देते हुए माओवादियों को भविष्य में सर न उठाने देने की कोशिश करनी चाहिए। भारत विरोध का ही दूसरा पैतरा है, पशुपति नाथ मंदिर के पुजारियों का अपमान। उनका एक मात्र दोष यही है कि वे भारतीय हैं। माओवादी चीन की शह पर सैकड़ों वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को तोड़ना चाहते हैं। चीनी सरकार नेपाल फौज में भी द्घुसपैठ के रास्ते तलाश रही है।

नेपाल में जो हो रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन सकता है। अगर भारत अपने इस दायित्व से चूका तो आने वाला समय अस्थिर और अराजक हो सकता है। नेपाल का दोष भारत पर ही मढ़ा जाएगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा नेपाल को स्पष्ट करना होगा कि अगर उसने 'चाइना कार्ड' खेलने की कोशिश की तो भारत सबक सिखाने से नहीं चूकेगा।

श्रीलंका में भारत की भूमिका हमेशा से ही अहम मानी जाती रही है। गौरतलब है कि यहां के अल्पसंख्यक समुदाय तमिल को लेकर भारत सरकार हमेशा चिंतित रही है। भारत श्रीलंका के साथ मधुर संबंध चाहता है। लेकिन जानकारों का ऐसा मानना है कि प्रभाकरण के खिलाफ चलाये गये अभियान में चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका की सैन्य और आर्थिक मदद की। यकीनन ये भारत के लिए शुभ नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान और चीन की श्रीलंका से बढ़ती नजदीकी अरब सागर में भारत के लिए एक चुनौती साबित हो सकती है। ऐसे में भारत सरकार को श्रीलंका के साथ ठोस पहल करने की आवश्यकता है।

Thursday, September 17, 2009

चीन से चिंता

बतौर रक्षा मंत्री वाजपेयी शासन में जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को 'दुश्मन नम्बर वन' बताया तो उनके इस बयान की खूब आलोचना हुई। तब जॉर्ज को इस विवादास्पद बयान के चलते बैकफुट पर जाना पड़ा। लेकिन हाल-फिलहाल भारत विरोआँाी चीनी गतिविआिँायों से उनका वह बयान सच की परिआिँा में दाखिल होता दिख रहा है। चीनी सेना ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में द्घुसकर चट्टानों पर लाल रंग से 'चीन' लिख दिया। न सिर्फ भारतीय सीमा में चीनी द्घुसपैठ बढ़ी है, बल्कि पड़ोसी देशों में दखल बढ़ाकर चीन ने भारत को चक्रव्यूह में द्घेरने की रणनीति पर जैसे अमल करना आरंभ कर दिया है। उसका यह कदम उसकी विस्तारवादी नीति का हिस्सा बताया जा रहा है। दीगर बात है कि वह एक तरफ भारत को द्घेर रहा है तो दूसरी ओर बाजार का विस्तार करते हुए भारत के साथ व्यापारिक समझौते भी कर रहा है- कुछ इस अंदाज में झुका शेर, छिपा ड्रैगन। यह ड्रैगन देश के लिए कितना खतरनाक है, इस सवाल से जूझने की बजाय शायद भारत ऐतिहासिक गलती दोहराने की राह पर है

द्घटना (एक)-चीन की एक वेबसाइट 'चाइना इंटरनेशनल फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' के हवाले से यह खबर आती है कि चीन भारत को तीस टुकड़ों में बांटना चाहता है। इस दीर्द्घकालिक योजना पर उसने अमल भी करना शुरू कर दिया है।

द्घटना (दो)-लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना ने भारतीय सीमा में द्घुसपैठ कर वहां की चट्टानों पर चीन लिख दिया।

द्घटना (तीन)-चीन ने भारत को एशियाड विकास बैंक (एडीबी) से मिलने वाली २ ़९ बिलियन डॉलर सहायता में अड़ंगा डालने की कोशिश की।

द्घटना (चार)- भारत में अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक विमान ने लैंड किया जो चीन जा रहा था।

ये कुछ हाल की चीनी गतिविधियां हैं जो भारत विरोधी अभियान की पटकथा लिख रही हैं। पटकथा भी ऐसी-वैसी नहीं, साजिशों, द्घातों और प्रतिद्घातों से भरी रोमांचपूर्ण पटकथा। राजनीति या शासन करने का एक सामान्य सा नियम होता है कि शत्रु की हरकत के बाद सतर्क हो उससे मुकाबले की तैयारी में जुट जाना चाहिए। लेकिन इसका क्या किया जाए कि भारत चीन की इन हाल की खतरनाक गतिविधियों के मद्देनजर उस कदर गंभीर नहीं है जिसकी उम्मीद की जाती है।

विदेश मंत्री एसएम कृष्णा मानते हैं 'भारत-चीन सीमा एकदम शांत है। चीन देश के लिए चिंता का कारण नहीं है।' इसे भारतीय राजनीति की सदाशयता कहा जाएगा जिससे कई बार विस्फोटक स्थितियों का जन्म होता है। कुछ इसी तरह की सदाशयता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी दिखाई थी- 'चीनी-हिन्दी भाई-भाई' का नारा देकर। इसी झूठी मित्रता की छाती फाड़ते हुए चीनी सेना ने भारत पर १९६२ में हमला बोल दिया। नतीजा क्या हुआ यह सभी जानते हैं।

कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता नहीं है। लेकिन अक्सर वह थोड़ा बदले रूप में खुद को दोहराता है। भारत-चीन मामले में भी १९६२ का परिदृश्य बदले रूप में खुद को भले ही न दोहराए मगर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन के इरादे काफी खतरनाक हैं। अपनी पुरानी विस्तारवादी नीति को अमली जामा पहनाते हुए वह भारत को द्घेरने में जुटा है। प्रमाण के तौर पर भारत के पड़ोसी देशों में उसके बढ़ते हस्तक्षेप को भारत के खिलाफ बनते माहौल को हवा देने के रूप में देखा जा सकता है।

चीनी सैनिक हाल ही में लद्दाख की अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंद्घन करते हुए चकार क्षेत्र के 'माउंट ग्या' के निकट भारतीय इलाके के करीब १ ़५ किलोमीटर तक द्घुस आए। यह पहली बार या भूलवश नहीं हुआ। एक सिलसिला बन गया है जो आने वाले वक्त में भयावह शक्ल अख्तियार कर सकता है। भारत में चीनी द्घुसपैठ दिनों दिन तेज हुई है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि पिछले साल चीनी द्घुसपैठ के करीब २४० मामले दर्ज किए गए। इस साल अगस्त में ही २० मामले सामने आ चुके हैं।

इतना सब कुछ हो रहा है मगर सरकार सो रही है। सो नहीं भी रही है तो इसकी अनदेखी कर संबंधों की बिसात बिछा रही है। इस बिसात पर भारत चीन को शह दे पाएगा, इसमें कई अगर-मगर हैं। जानकारों की राय में चीन की रणनीति का हिस्सा है कि वह जिस क्षेत्र पर कब्जा करना चाहता है, पहले उसे विवादास्पद बताता है। बाद में सैन्य द्घुसपैठ के सहारे माहौल रचता है। अंत में सैनिक कार्रवाई के जरिए वह उस पर कब्जा करने की कोशिश करता है। आज की तारीख में उसके २२ देशों से इसी तरह के विवाद चल रहे हैं।

पहले से ही चीन भारत के पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर में कब्जा जमाए हुए है। अजीब बात है कि वह हमारी ही जमीन को मुक्त करने की शर्तें भी रखता है। चीन पूर्वोत्तर में भारत को रियायत देने को तैयार है। बशर्ते भारत पश्चिमोत्तर इलाके में चीन को रियायत दे। कहने का आशय यह कि भारत अक्साई चीन से अपना दावा वापस लेकर इसे चीन का हिस्सा माने तो चीन भी अरुणाचल प्रदेश को भारत का अंग मानने लगेगा। चित और पट, दोनों स्थितियों में अपनी जीत हासिल करने को आतुर शातिर चालें चल
रहे चीन की यह चतुराई नहीं तो क्या है?

'चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' की वेबसाइट पर झान लू नामक लेखक ने लिखा है कि चीन अपने मित्र देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की मदद से तथाकथित भारतीय महासंद्घ को तोड़ सकता है। झान लू तमिल और कश्मीरियों को आजाद कराने और उल्फा जैसे संगठनों का समर्थन करने की बात भी कहते हैं। वह अरुणाचल प्रदेश की ९० हजार वर्ग किलोमीटर जमीन को मुक्त कराने की सलाह भी देते हैं। चीनी सरकार को सलाह देने वाले थिंक टैंक की यह वेबसाइट अधिकृत है या नहीं, पर इस बात का प्रमाण तो है ही कि वहां के बुद्धिजीवी भारत के बारे में क्या सोचते हैं।

इस बीच भारतीय नौसेना प्रमुख सुरीश मेहता ने कहा है कि चीन लगातार अपनी सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी कर रहा है। वो ऐसा सिर्फ और सिर्फ अपने पड़ोसियों पर दबाव बनाने की योजना के तहत कर रहा है। अगर वह इसमें सफल हो जाता है तो फिर अपने पड़ोसियों के साथ चल रहे सीमा विवाद को ज्यादा बलपूर्वक रखने में सक्षम हो जाएगा। पिछले कई सालों से चीन भारत को अस्थिर करने में लगा है। भारत को हजार द्घाव देकर उसे टुकड़ों में बांटना पाकिस्तान का द्घोषित एजेंडा है। लेकिन इसको अमलीजामा पहनाना चीन की अद्घोषित नीति है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बंदरगाहों में चीन ने अपने नौ सैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं। नेपाल में चीन एक ऐसे वर्ग को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है जो द्घोर भारत विरोधी और चीनपरस्त है। थल और जल क्षेत्र में भारत के इर्द-गिर्द चीन अपना साम्राज्यवादी शिकंजा लगातार बढ़ाता जा रहा है।

चीनी अधिकारियों का कहना है कि भारत-चीन संबंध में चीन शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच मौलिक सिद्धातों पर कार्य करता है जिसमें यह भी शामिल है कि क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान किया जाए। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में चीन के रवैये में सीधे तौर पर सख्ती आई है। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय एक बार ऐसा लगने लगा था कि तिब्बत के मामले में चीन के नजरिए से भारत करीब आने लगा है। जिसके बदले चीन भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विवादित इलाकों पर भारत के दावे को मान लेगा। लेकिन अब चीन के नजरिए में कठोरता देखी जा रही है।

चीन के पूर्व राष्ट्रपति तंगश्यो फंग ने कहा था- चीन को अपने पड़ोसियों की गतिविधियों पर खूब नजर रखनी चाहिए। इस नीति पर चलते हुए चीन अपने पड़ोसी देश भारत को द्घेरने के लिए भारत के पड़ोसी देशों में अपनी दखल में लगातार बढ़ोतरी कर रहा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यामांर, श्रीलंका में उसकी उपस्थिति भारत के खिलाफ माहौल रच रही है। नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर विवाद में चीन और उसकी लाल सेना की अहम भूमिका मानी जा रही है। वहां माओवादी सरकार के गठन के बाद चीन को जैसे मांगी हुए मुराद मिल गयी। माओवादी नेता प्रचंड ने प्रधानमंत्री के रूप में भारत की बजाय पहले चीन की यात्रा करना बेहतर समझा। जबकि परंपरा रही है कि नेपाल में हर प्रधानमंत्री अपनी ताजपोशी के बाद सर्वप्रथम भारत की यात्रा करता रहा है।

श्रीलंका में भी लिट्टे विवाद सैन्य अभियान में चीन ने श्रीलंका सरकार की मदद कर भारत के खिलाफ अपनी जमीन तैयार की। उसने श्रीलंका को बड़े पैमाने पर सैन्य साधन भी उपलब्ध कराए हैं। चीन बांग्लादेश में छोटे हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अब वह उसे बड़े और अत्याधुनिक हथियार भी मुहैया कराना चाहता है। चीन ने बांग्लादेश में बिजली उत्पादन के लिए परमाणु संयंत्र लगाने में मदद की पेशकश भी की है। चीन म्यामांर को भी अपना अहम सहयोगी मानता है। दोनों देशों के दरम्यान पिछले मार्च में एक अनुबंध पर हस्ताक्षर भी हुए। म्यामांर की सैन्य सरकार अपने विरोधियों को कुचलने के लिए चीन से ही हथियार लेती है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भी चीन ने म्यामांर के पक्ष में वोट किया है। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में चीन की बढ़ती दिलचस्पी भी चिंताजनक है। कुल मिलाकर भारत के तमाम पड़ोसी मुल्कों को चीन अपनी गिरफ्त में लेकर इन देशों से भारत के खिलाफ मदद ले सकता है।

गौरतलब है कि भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक हाल ही में हो चुकी है। समिति के फैसले के अनुसार दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ओर दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते तेजी से मजबूत हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भारत-चीन राजनीतिक संबंधों में खटास बढ़ती जा रही है। वर्ष २००७-०८ में भारत चीन के बीच दोतरफा व्यापार पचास अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया। डब्लूटीओ में अपने किसानों को अतिरिक्त सब्सिडी देने के सवाल पर भी भारत-चीन के नजरिये में काफी समानता है।

इसके बिलकुल विपरीत कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चीन का रवैया खुल्लमखुल्ला भारत विरोधी है। विश्व स्तर पर शीत युद्ध भले ही समाप्त हो गया हो, परन्तु भारत-चीन के बीच शीत युद्ध कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। जब-जब संयुक्त राष्ट्र संद्घ में सुधार और संतुलन की बात होती है और भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का सवाल उठता है तब-तब चीन खुलकर इसका विरोध करता है। भारत की विदेश नीति और कूटनीति के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है कि वह किस प्रकार इसका विरोध करता है।

भारत की तुलना में चीन का परमाणु हथियारों का भंडार और उनका प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम गुणात्मक रूप से बहुत बड़ा है। चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट से साढ़े तीन सौ प्रतिशत अधिक है। अमेरिका के बाद चीन विश्व का दूसरा देश है जो हथियारों का सौदागर है। दुनिया में लगभग ५३ देश हैं, जिनको चीन लगातार हथियार बेच रहा है। भारत की उभरती शक्ति को रोकने के लिए चीन ने भारत की द्घेरेबंदी की नीति अपनाई है। पाकिस्तान को फौजी और परमाणु मदद, म्यांमार की जमीन पर चीनी अड्डे तथा म्यामांर को शक्तिशाली हथियार बेचने और दान में देने की नीति , नेपाल में चीनी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। भारत-अमेरिका परमाणु सौदे का चीन ने पुरजोर विरोध किया। चीन नहीं चाहता कि भारत-अमेरिका संबंधों में गुणात्मक सुधार हो।

चीनी मामलों के जानकार भारत के रक्षा रणनीतिकारों को पाकिस्तान के बजाय चीन पर ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दे रहे हैं। आर्थिक मंदी से चीन का निर्यात काफी प्रभावित हुआ है। उसके कई हिस्सों में व्यापक असंतोष है। ऐसे में आंतरिक समस्याओं को दबाने और एशिया में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए चीन को एक सैन्य विजय की जरूरत है और भारत उसके निशाने पर है। भले ही भारत चीन से अच्छे संबंध और शांतिपूर्ण बातचीत की दुहाई दे रहा हो, पर चीन के बारे में चिंता भी कम नहीं की जा रही है। देश के रणनीतिकार अब अपना ध्यान सीधे तौर पर चीन की ओर केन्द्रित कर रहे हैं जिसमें दीर्द्घकालीन सैनिक रणनीति भी शामिल है।

अब चीन को यह फैसला करना होगा कि भारत के साथ उसे मित्रता के संबंध चाहिए या शत्रुता के। मित्रता और आपसी सदभावना दोनों देशों के हित में है। दोनों देश गरीबी, बेरोजगारी ,भूख तथा बीमारी के खिलाफ लड़ रहे हैं। मित्रता से दोनों को लाभ होगा। संबंधों में खटास, कटुता और शत्रुता से दोनों को नुकसान होगा। चीन इतना शक्तिशाली नहीं है और भारत इतना कमजोर नहीं है कि चीन भारत के अस्तित्व को समाप्त कर दे। सवाल सीमा पर अतिक्रमण का नहीं, एशिया में शांति का है।

जापान में बदलाव की बयार

हाल ही में जापान में हुए चुनाव में जनता ने लगातार पचपन वर्ष से सत्ता पर काबिज लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा कर प्रमुख विपक्षी पार्टी डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को बागडोर सौंपी है जिसका नेतृत्व हातोयामा कर रहे हैं। हातोयामा को वामपंथी-मध्यमार्गी समझा जाता है। लेकिन उनका आगे का सफर इतना आसान भी नहीं होगा। आर्थिक मोर्चे पर संकट का सामना कर रहे जापान को तूफान से बचाकर ले जाना नए प्रआँाानमंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी

जापान में संपन्न हुए आम चुनाव में हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान यानी डीपीजे ने ३०८ सीटों पर जीत दर्ज कराई है। इस चुनाव में जनता ने लगभग पांच दशक तक सत्ता में बनी रहने वाली लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को बाहर का रास्ता दिखाया है। अपनी जीत पर डीपीजे के नेता और प्रधानमंत्री पद के दावेदार हातोयामा ने जनता को धन्यवाद देते हुए इसे 'सत्ता में बदलाव के लिए मतदान' करार दिया। इस चुनाव में सत्तारूढ़ दल के कई बड़े नेताओं को हार का मुंह देखना पड़ा। हालांकि चुनाव से पहले एलडीपी ने जनता से वायदा किया था कि वह खर्चों पर अंकुश लगाकर और द्घरेलू आय को बढ़ाकर जापान को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनाएंगे। परन्तु इस द्घोषणा का जनता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

हातोयामा की जीत और सत्ता परिवर्तन का असर टोक्यो के शेयर बाजारों पर भी देखने को मिला। शेयर बाजार भारी बढ़त के साथ खुले। १९५५ से अब तक एक दक्षिणपंथी अनुदार व्यापारिक वर्ग की हितैषी पार्टी पर लगातार भरोसा करते आये जापानियों ने ऐतिहासिक फैसला करते हुए देश की सत्ता वामपंथियों- मध्यमार्गियों के हाथों में सौंपने का निर्णय किया। जापानियों ने आर्थिक संकट के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को पहली बार सत्ता सौंपने का निर्णय लिया।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार जापान इतने गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा है। ऐसे में युकिनो हातोयामा की डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान ठोस विकल्प के रूप में वहां के मतदाताओं को दिखी, जिसने जनकल्याण कार्यों के लिए खर्च बढ़ाने, न्यूनतम वेतन में वृद्धि करने, जापान को अमेरिका का पिछलग्गू न बनाने के वायदे किए थे। डीपीजे ने अमेरिका से संबंध बनाए रखते हुए चीन सहित सारे पड़ोसियों से रिश्तों को बेहतर बनाने पर बल दिया था। मात्र १३ वर्ष पूर्व डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान की आधारशिला रखकर हातोयामा ने जापान की जनता के सामने एक ठोस वामपंथी-मध्यमार्गी विकल्प प्रस्तुत किया। हातोयामा, अपने दादा इशिरो हातोयामा के बाद अपने परिवार के दूसरे सदस्य होंगे, जो जापान के प्रधानमंत्री का पद संभालेंगे। उनके पिता जापान के विदेश मंत्री रह चुके हैं। विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले इस देश का प्रधानमंत्री पद संभालना होतोयामा के लिए बड़ी चुनौती होगी। यूकिनो ने १९९३ में सत्तारूढ़ एलडीपी से नाता तोड़कर नयी पार्टी बनाई और स्वयं पार्टी अध्यक्ष बने।

अमेरिका से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त ६२ वर्षीय हातोयामा इस माह के मध्य में वर्तमान प्रधानमंत्री तारो आसो का स्थान लेंगे। ३० अगस्त को संपंन्न हुए चुनाव में ४८० सदस्यीय निचले सदन में हातोयामा की पार्टी को मिली ३०८ सीटें के मुकाबले में सत्तारुढ़ एलडीपी को मात्र ११९ सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालांकि पूर्ण बहुमत के लिए अभी भी हातोयामा को कुछ और सीटों की जरूरत पड़ेगी।

इस चुनाव में वैसे तो कई तथ्य चौंकाने वाले रहे। इनमें ५४ महिलाओं ने भी जीत हासिल की। इतनी अधिक संख्या में जीत के बाद भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र ९ फीसदी ही है। जबकि यह ११ फीसदी होना चाहिए था।
उधार चुनाव में अपनी हार स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री आसो ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। सत्तारूढ़ एलडीपी अपने ५५ साल के इतिहास में महज दो बार ही सत्ता से बाहर हुई है। पहली बार जापान की कमान संभालने वाली डीपीजे को स्थापना के बाद पहली बार इतना बड़ा जनादेश मिला है। नए प्रधानमंत्री हातोयामा के सामने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने वाला बजट पेश करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। बजट पेश करने के लिए उनके पास महज १०० दिन ही बचे हैं।

जापान के चुनाव के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसके नतीजे बहुत चौंकाने वाले हैं। एक लम्बे अर्से से महसूस किया जा रहा था कि वहां के मतदाताओं का सत्तारूढ़ दल से मोहभंग हो चुका है। एलडीपी जापान की आम जनता की बदलाव की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रही थी। सरकार ने न तो महंगाई पर काबू पाया और न ही आर्थिक मंदी की चुनौती का सामना करने के लिए कोई रणनीति बनाई। जापान की शिक्षा प्रणाली, डाकद्घर, बैंकिंग और वित्तीय संस्थाएं पुरानी पड़ने लगी थीं। जिसके परिणामस्वरूप हाल के वर्षों में जापान की अंतरराष्ट्रीय बाजार पर पकड़ काफी हद तक कमजोर हो गई थी।

उसके उत्पाद बेहद महंगे समझे जाने लगे थे और गुणवत्ता के आधार पर इनकी मांग बनी नहीं रह सकी। इस झंझावत के बीच जापानी उद्योगों की प्रतियोगिता की क्षमता कम होने लगी। जापान में जिस रफ्तार से बेरोजगारी बढ़ी उससे दोगुनी रफ्तार से असंतोष बढ़ा। बहरहाल जापान के प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता ग्रहण करने जा रहे हातोयामा कुछ वर्षों पूर्व तक पुरानी पारंपरिक सत्ताधारी पार्टी के ही सदस्य थे। ऐसे में दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, यह कि हातोयामा का उन मूल्यों, सिद्धांतों या विचारों से कोई बुनियादी मतभेद नहीं है जो एलडीपी के हैं और दूसरा, भ्रष्टाचार का मुद्दा।

गौरतलब है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान ने जो आर्थिक प्रगति की उसमें अमेरिका के संरक्षण और सहयोग की भी भागीदारी रही। जापान को अपनी सुरक्षा के लिए कुछ खर्च नहीं करना पड़ा। साथ ही उसके उत्पादों को आसानी से अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में जगह मिल गई।

जापानी जनमानस ने उग्र राष्ट्रवाद और नस्लवाद को कभी पूरी तरह से खारिज नहीं किया। भले ही परिवर्तन के लिए जापान एक बार फिर से तैयार हुआ है लेकिन जापान के हालिया चुनाव को किसी क्रांतिकारी बदलाव के रूप में देखना जल्दबाजी होगी। दरअसल जापान में राजनीति हो या समाज अथवा अर्थव्यवस्था, किसी भी क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन या कोई नयी शुरुआत करना बेहद कठिन काम है। शायद अत्याधुनिक समझी जाने वाली जापानी कारपोरेट कल्चर के मजबूत होने की यही एक वजह है। हां एक बात तो स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि जापान ने भी अमेरिकी राह पकड़ ली है।

अमेरिका के नागरिकों ने भी वैश्विक आर्थिक संकट की चुनौती से निपटने में वहां के दक्षिणपंथी रिपब्लिकनों को नाकामयाब पाया था और सत्ता की बागडोर बराक ओबामा को सौंपी थी जो उदार डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं तथा जिन्होंने आर्थिक संकट से उबरने का कल्पनाशील रास्ता जनता के सामने प्रस्तुत किया। ऐसे में गहराते आर्थिक संकट के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान को पहली बार सत्ता सौंपने का निर्णय जापानवासियों ने किया है।

अब यह निश्चित हो चुका है कि एक अमीर परिवार से आए हातोयामा जापान के प्रधानमंत्री होंगे। ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि जिस जापान के साथ भारत के पारंपरिक रिश्ते हैं, उसके लिए भी यह परिवर्तन सुखद होगा। इस बीच चुनाव में डीपीजे की शानदार जीत पर पूर्व रक्षा मंत्री फूमियो को पराजित करने वाले एरिको ने कहा है कि वे मतदाताओं के साथ धोखेबाजी नहीं करेंगे।

Friday, September 11, 2009

अमेरिका और पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों के बीच संबंध ठीक वैसा ही है जैसा शिकारी और कस्तूरी मृग के दरम्यान होता है। शिकारी कस्तूरी पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। अमेरिका भी पश्चिम के अरब देशों के साथ मधुर संबंध रखना चाहता है पर सिर्फ तेल के लिए। ऐसे में स्वार्थ की बुनियाद पर खड़े किये जा रहे रिश्ते कितने दीर्द्घकालिक, मधुर और प्रगाढ़ होंगे इसका जवाब न तो अमेरिका के पास है और ना ही मुस्लिम राष्ट्रों के पास
अफगानिस्तान और इराक अब अमेरिका के लिए नासूर बन चुके हैं। आखिरकार युद्ध से तंग आकर अमेरिका के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एडमिरल माइक मुलेन ने अमेरिका की मुसलमानों के प्रति नीति पर फिर से विचार करने और उसमें लचीलापन लाने की वकालत की है। एडमिरल माइक के अनुसार अमेरिका मुस्लिम जगत में दोस्त बनाने और विश्वसनीयता कायम करने में इसलिए मुश्किलों का सामना कर रहा है क्योंकि उसने रिश्ते कायम करने के लिए उतने प्रयास नहीं किए जितने किये जाने चाहिए थे। अमेरिका ने कई बार अपने वादे भी नहीं निभाए। एडमिरल माइक ने खुलकर मुस्लिम जगत में अमेरिका और उसकी सेनाओं के प्रति विश्वास के अभाव, मुश्किलों और इसके कारणों पर भी चर्चा की है। मुलेन के मुताबिक पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में विश्वास कायम करने के लिये अमेरिका को बहुत लंबा सफर तय करना पड़ेगा। उनके मुताबिक मुस्लिम समुदाय बहुत ही गूढ़ दुनिया है, जिसे हम पूरी तरह से नहीं समझते और कई बार पूरी तरह से समझने की कोशिश भी नहीं करते।

अमेरिका पिछले एक दशक से अफगानिस्तान में तालिबान से दो-दो हाथ कर रहा है। वहां अद्घोषित यु़द्ध चल रहा है। अरबों डॉलर स्वाहा हो चुके हैं। लेकिन अमेरिका, अफगानिस्तान में भविष्य में कभी सफल हो पायेगा, ऐसी कोई संभावना न तो अमेरिका को ही नजर आती है और न ही विश्व समुदाय को। अमेरिका की परेशानी सिर्फ अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं है। कमोबेश यही हालात इराक में भी बने हुए हैं।

यकीनन अब धीरे-धीरे अमेरिका की समझ में ये बातें आने लगी हैं कि हर मसले का फैसला जंग से नहीं हो सकता। पिछले दो सौ साल के अमेरिकी इतिहास में अमेरिका को यद्धों के कई कड़वे अनुभव हुए हैं। वियतनाम युद्ध में मिली अमेरिकी पराजय किसी से छिपी नहीं है, जहां तीस हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसके बावजूद अमेरिका को वहां से जंग का फैसला किये बिना ही उल्टे पांव वापिस लौटना पड़ा था। अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए अमेरिकी प्रशासन ने अपनी नीतियों में बदलाव के संकेत दिये हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने काहिरा में अपनी नीति की द्घोषणा करते हुए अमेरिका और मुस्लिम जगत के रिश्तों में नई शुरुआत का बिगुल फूंका। काहिरा विश्वविद्यायल में अपने अहम भाषण में ओबामा ने कहा था कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच तनाव दिखाई देता है। इस तनाव की जड़ें इतिहास में हैं और मौजूदा नीतिगत बहस से कहीं परे हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच नई शुरुआत होना जरूरी है जो आपसी हित और सम्मान पर आधारित हो। ओबामा ने अमेरिका और इस्लाम के बीच टकराव को गैर जरूरी माना। अपने काहिरा भाषण से ओबामा ने दुनिया भर के एक अरब से भी ज्यादा मुसलमानों के बीच अमेरिका की छवि को बेहतर बनाने की कोशिश करने का प्रयास किया। गौरतलब है कि जिन वजहों से अमेरिकी की छवि को धक्का लगा था उनमें अमेरिकी कैदखाने में मुसलमानों के साथ होने वाला बुरा बर्ताव भी शामिल था।

बुश प्रशासन की विरासत को आगे बढ़ाने वाले अमेरिका के नये अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अमेरिकी नीतियों में बदलाव लाने का प्रयास करने की पहल की है। शायद यही कारण है कि फिलिस्तीन, मिस्र, जॉर्डन, इराक, इंडोनेशिया और फिलीपींस के इस्लामवादी आंदोलन भी ओबामा के चुनाव से अति उत्साहित हुए। राष्ट्रपति बनने के बाद ओबामा के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस धारणा को खत्म करने की है कि अमेरिका इस्लाम का दुश्मन है। बेशक अमेरिका के निशाने पर न तो इस्लाम है और न ही मुसलमान। लेकिन फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के काम ऐसे रहे, जिन्होंने यह धारणा पैदा की मानो अमेरिका इस्लाम के खिलाफ युद्धरत हो। ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल की यातानाओं ने मुसलमानों में अमेरिका के प्रति नफरत पैदा की है। ओबामा जब तक इन कारणों को दूर नहीं करेंगे तब तक इस्लामी आतंकवादी इसका फायदा उठाते रहेंगे और अमेरिका की तस्वीर भी दुनिया के मुसलमानों की नजर में नहीं बदलेगी।

मध्यपूर्व में नई अमेरिकी नीति की दिशा में ओबामा का भाषण एक अच्छी शुरुआत माना जा सकता है। ओबामा के मुताबिक फिलिस्तीन को हिंसा छोड़नी होगी और यह स्वीकार करना होगा कि इजराइल को अस्तित्व में बने रहने का हक है। उन्होंने पश्चिमी तट पर यहूदी बस्तियों का निर्माण रोकने की भी बात कही। ईरान के संबंध में अपना विचार व्यक्त करते हुए ओबामा ने माना कि ईरान को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु शक्ति का अधिकार होना चाहिए, लेकिन उसे परमाणु अप्रसार संधि के प्रति वचनबद्ध होना पडेग़ा।

अफगानिस्तान के बारे में ओबामा ने साफ तौर पर माना कि यह अमेरिका के हित में नहीं है कि वहां अपने सैन्य ठिकाने बनाए रखे जायें। दरअसल, इराक में लड़ाई के चलते अमेरिका और मुस्लिम दुनिया के बीच बहुत मतभेद पैदा हुए हैं। लेकिन अब अमेरिकियों को अहसास हो गया है कि कूटनीति और बातचीत के जरिये ही इन मुद्दों को सुलझाया जा सकता है। इराक के लोगों को अभी भी यकीन नहीं है कि ओबामा प्रशासन शीद्घ्र देश से अमेरिकी सेनाओं को हटा लेगा। ओबामा की द्घोषणाओं से यह आश्वासन जरूर मिलता है कि मध्यपूर्व देशों के तेल पर अमेरिकी निर्भरता कम हो जाएगी और इराकी नेताओं से इस संबंध में बातचीत की जायेगी। इस बात ने सऊदी अरब के नेताओं और फारस की अन्य सरकारों को भ्रमित कर दिया है।

लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि आम मुसलमान ओबामा को कैसे देखते हैं। विश्व के ज्यादातर मुसलमानों का मानना है कि ओबामा के विचार तो उत्तम हैं, लेकिन क्या इतिहास को देखते हुये यह यकीन किया जा सकता है कि अमेरिका उन्हें अमल में लायेगा? काहिरा विश्वविद्यालय में उनके भाषण के अनेक विश्लेषण किए गये हैं। कई विश्लेषकों का यह मानना है कि वो इतिहास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे हैं जो भूतकाल की गलतफहमियों को दूर करके एक नये भविष्य का सूत्रपात करना चाहते हैं। आज की ग्लोबल दुनिया में कोई सोच भी नहीं सकता कि मध्ययुग में चली ईसाईयत और इस्लाम के बीच खूनी लड़ाइयों के निशान आज भी बाकी हैं। शीतयुद्ध के खात्मे के बाद अमेरिका को चुनौती देने वाला सोवियत कुनबा बिखर गया। लेकिन एक नयी विचारधारा ने जन्म लिया और वह रही 'सभ्यताओं के संद्घर्ष' की विचारधारा।

आज फिलिस्तीनी अपनी बस्तियों में नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उनका यह मानना है कि उनके दुखों का कारण सिर्फ अमेरिका है, जो इजराइल को आंख बंद कर समर्थन करता है। फिलिस्तीनियों के साथ लगातार हो रहे अन्याय के कारण सभी मुस्लिम देशों में अमेरिका के प्रति गुस्सा है। इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में खुला हस्तक्षेप करके मुसलमानों के दिलों में भड़क रही गुस्से की आग में द्घी डालने का काम किया है।
अमेरिका ने यह झूठा प्रचार करके कि सद्दाम हुसैन व्यापक जनसंहार के हथियार बना रहे हैं, इराक पर हजारों टन बम बरसाये। एक पुरानी और वैभवशाली सभ्यता को उजाड़ डाला। इराक से हथियार तो बरामद नहीं हुए, बल्कि इराकी नागरिकों में बदला लेने की भावना ने उन्हें चरमपंथी जरूर बना दिया। इसी तरह अफगानिस्तान में दिसंबर १९७९ में सोवियत संद्घ के खिलाफ अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा किया।

आज उन्हीं तालिबान के खिलाफ अमेरिका अफगानिस्तान में अभियान चला रहा है। बुश प्रशासन के कथित आतंकवाद विरोधी वैश्विक युद्धों के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि और ज्यादा खराब हो गयी है। इन देशों में अमेरिका को आज शक की निगाहों से देखा जा रहा है। पश्चिम एशिया शांति वार्ता फिर पटरी पर लाने और ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए अमेरिका मुस्लिम देशों का समर्थन जुटाने की कवायद में लगा है। बुश प्रशासन के आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि खराब हुई है। पश्चिम एशिया शांतिवार्ता को पटरी पर लाने और ईरान की महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए ओबामा मुस्लिम जगत के साथ अपने रिश्तों को सुधारना चाहते हैं। विश्लेषकों की मानें तो अमेरिकी राष्ट्रपति इन्हीं कारणों से पश्चिम एशिया के मुसलमानों का दिल जीतना चाहते हैं क्योंकि इस इलाके में कई ऐसे विवाद हैं जिनसे निपटना ओबामा सरकार के लिए एक चुनौती है।

अमेरिकी विदेश संबंध परिषद के सीनियर फैलो एलिय ने कहा है कि ओबामा को अरब जनता का विश्वास जीतने की कोशिश करना चाहिए ताकि वहां की सरकारों के साथ मिलकर अमेरिका को काम करने में सहूलियत हो।
बहरहाल, अमेरिका भले ही मुस्लिम देशों और मुसलमानों के साथ रिश्ते सुधारने की बात करता हो लेकिन सच यह है ९/११ के बाद मुसलमानों के प्रति अमेरिकी नीति में काफी बदलाव आया है। ९/११ के बाद अमेरिका और मुसलमानों के बीच जो खाई बनी है उसे भविष्य में पाटा जा सकता है ऐसा कहना सच को मुंह चिढ़ाना होगा। क्योंकि न तो अमेरिका मुसलमानों पर भरोसा करने को तैयार है और न ही मुसलमान अमेरिका पर। भले ही ओबामा दुनिया भर के मुसलमानों को एक दर्जन से अधिक भाषाओं में रमजान का बधाई संदेश दें लेकिन असल खेल तो तेल का है जिसे हासिल करने में अमेरिका अब तक नाकामयाब रहा है और शायद मुस्लिम राष्ट्रों की बदनसीबी का कारण भी उनके यहां तेल का होना ही है।

Saturday, September 5, 2009

अतीत के रंगीन पन्ने

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम बेनजीर भुट्ठों एक बार फिर सुर्खियों में हैं। क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने इमरान खान के जीवनीकार क्रिस्टोफर सैंडफोर्ड ने यह दावा करके कि इमरान और बेनजीर के बीच प्रेम प्रसंग था बेनजीर की मौत के बाद उन पर कीचड़ उछाला है।पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो और अपने समय के मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान दोनों पाकिस्तान में अपनी सियासी पहलकदमियों से हमेशा चर्चा में रहे। इन दिनों दोनों नाम एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा का विषय बने हुए हैं। लेकिन इस बार यह चर्चा निजी जिंदगी की कुछ खास बातों के बेपर्दा होने के कारण हो रही है। हाल ही में प्रकाशित इमरान खान की एक नई जीवनी के लेखक ने दावा किया है कि क्रिकेटर से राजनीतिज्ञ बने खान के पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री मरहूम बेनजीर भुट्टो से बेहद करीबी रिश्ते थे। जिन दिनों वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे उस समय दोनों के बीच रोमांस था।
इमरान खान के जीवनीकार क्रिस्टोफर सैंडफोर्ड ने लिखा है कि भुट्टो इमरान खान की दीवानी थी। दोनों में इतने करीबी संबंध थे कि उनके बीच यौन संबंध की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। सैंडफोर्ड ने अपनी किताब में लिखा है कि इमरान खान के द्घरवालों ने उनकी, भुट्टो के साथ शादी करने की भरपूर कोशिश की पर कुछ कारणों से ऐसा मुमकिन नहीं हो सका। पाकिस्तान के इन दो बड़े सितारों के बीच ऐसा माना जाता रहा है कि हमेशा मतभेद रहे। ये मतभेद राजनीतिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर रहे हैं। राजनीति में तो इमरान खान बेनजीर भुट्टो के द्घोर विरोधी रहे। इस सबके बावजूद सैंडफोर्ड ने दावा किया है कि उन्हें खान की जीवनी लिखने के सिलसिले में एक सूत्र से जानकारी मिली कि वर्ष १९७५ में २१ वर्षीय बेनजीर भुट्टो लेडी मार्गरेटहॉल में राजनीतिशास्त्र की छात्रा थीं और इसी दौरान वो खान की ओर आकर्षित हुई थी। गौरतलब है कि सैंडफोर्ड ने इमरान खान की जीवनी लिखने के लिए जरूरी जानकारी जुटाने के लिए न सिर्फ इमरान खान की पूर्व पत्नी जेसिमा बल्कि कई और लोगों से मुलाकात की है। इस किताब में यह बतलाया गया है कि बेनजीर इमरान से प्रभावित थीं और संभवतः उन्होंने ही इमरान को पहली बार शेर-ए-पंजाब कहा था। एक अखबार ने साक्षात्कार के हवाले से लिखा है कि यह बात साफ है कि एक या दो महीने तक यह जोड़ा काफी नजदीक रहा। जब भी वे किसी सार्वजनिक जगह पर होते थे तो हंसते-शर्माते दिखते थे। हालांकि इमरान खान ने अपनी इस जीवनी को अनधिकृत करार देते हुए कहा है कि उनके भुट्टो से कभी यौन संबंध नहीं रहे। उन्होंने ये भी बताया कि उन्होंने सैंडफोर्ड को साक्षात्कार जरूर दिया था, मगर बेनजीर से उनके करीबी रिश्तों और दोनों की शादी की कोशिश की बात लेखक की सिर्फ कोरी कल्पना है।
इस बीच पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने अपनी पूर्व अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो और क्रिकेटर इमरान खान के बीच प्रेम संबंध के बारे में सैंडफोर्ड के दावे को विक्षोभकारी और दुर्भावनापूर्ण करार देते हुए खारिज कर दिया है। ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त वाजिद शम्सुल हसन ने एक बयान जारी कर कहा है कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने के दौरान बेनजीर भुट्टो का इमरान खान के साथ कोई लेना-देना नहीं था। हसन पिछले कई वर्षों से भुट्टो परिवार से जुड़े रहे हैं और उन्होंने इन दावों को निराधार बताया है। १९६० से भुट्टो परिवार से जुड़े वाजिद हसन ने कहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के कभी किसी के साथ प्रेम संबंध नहीं रहे और आसिफ अली जरदारी से उनकी शादी दोनों परिवारों की रजामंदी से हुई थी। उनका मानना है कि यह कुछ और नहीं, बल्कि इमरान को लोकप्रिय बनाने का सस्ता तरीका है।
पच्चीस नवम्बर १९५२ को जन्मे इमरान खान ने लगभग दो दशकों तक क्रिकेट की दुनिया पर राज किया। नब्बे के दशक में उन्होंने राजनीति में कदम रखा। अप्रैल १९९६ में इमरान खान ने तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी गठित की। १६ मई १९९५ को इमरान ने जेसिमा गोल्डस्मिथ से विवाह रचाया। जेसिमा ने बाद में इस्लाम धर्म कबूल कर लिया। लेकिन यह शादी स्थायी साबित नहीं हुई। २२ जून २००४ को इमरान ने जेसिमा से तलाक ले लिया जिसका कारण जेसिमा का पाकिस्तान में नहीं रहना बताया गया। इमरान खान को किक्रेट और राजनीति के अलावा समाजसेवा के लिए भी जाना जाता है। इमरान के प्रेम प्रसंग भी काफी चर्चा का विषय रहे। लंदन में लेडी लिजा कैम्पबेल और कलाकार एम्मा साजेंट के साथ रोमांस को लेकर बदनामी मिली। इमरान खान देश के अन्दर एक हल्के राजनीतिज्ञ और बाहर सेलिब्रिटी रहे। पाकिस्तान के अखबार इमरान खान को एक बिगाड़ने वाला राजनेता कहते हैैं। यानी इमरान एक बीमार व्यक्ति हैं जो राजनीति में पूरी तरह से विफल हैं। इमरान में राजनीतिक परिपक्वता और भोलेपन की कमी है।

बारूद के ढेर पर लोकतंत्र



डर किसे कहते हैं और असुरक्षा का माहौल क्या होता है, यह इस चुनाव के वक्त अफगानिस्तान में विदेशी पत्रकारों को हुआ। ये चीज तब और गहरी हो गई जब राष्ट्रपति हामिद करजई के ठिकाने पर हमला हुआ। नौ सालों तक अपनी पूरी ताकत झोकने के बाद भी अमेरिका से वहां के लोग नाराज है। चुनाव बाद कोई चमत्कार हो जाएगा इसी उम्मीद की बेमानी हैअफगानिस्तान का नाम सुनते ही आतंकवाद और तालिबान की याद जाती है। आज अफगानिस्तान, अशांति और आतंकवाद का पर्याय माना जाता है। फिलहाल यहां नाटो की सेनाएं तैनात हैं और देश में हामिद करजई के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार है। लेकिन जानकारों के मुताबिक सरकार का रिमोट अमेरिका के हाथों में है। लगातार संद्घर्ष, अशिक्षा, द्घोर गरीबी और दुनिया में सबसे कम जीवन दर ने अफगानों को कठोर बना दिया है। अफगानिस्तान की सरजमीं और वहां के लोगों ने जितने युद्ध देखे उतने शायद ही किसी अन्य मुल्क या जाति ने देखे होंगे। बीते २० अगस्त को वहां हुए चुनाव कई मायने में निर्णायक है। एक तरफ जहां इन चुनावों से देश को लोकतांत्रिक सरकार मिलने का रास्ता साफ हुआ है, वहीं दूसरी ओर तालिबानियों के हौसले भी पस्त हुए है। दक्षिण एशिया में यह चुनाव शांति के नये युग की शुरुआत कर सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में अफगानिस्तान पर पूरे विश्व की नजरें होंगी।
हिंसा, भय और संगीन के साये में २० अगस्त को अफगानिस्तान में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव संपन्न हुआ। तालिबान विद्रोहियों ने मतदान के दौरान काबुल सहित देश के कई अन्य हिस्सों में रॉकेट से हमले किए। १९ अगस्त की रात और २० अगस्त की सुबह कई जगहों पर विस्फोट की खबरें आईं। काबुल में सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे। इस चुनाव में एक करोड़ ७० लाख मतदाताओं के ६९६९ मतदान केन्द्र बनाये गये थे। मतदाताओं की सुरक्षा के लिए अफगान और विदेशी सुरक्षाकर्मी तैनात थे। इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने सरकार के उस फैसले की कड़ी आलोचना की जिसमें मीडिया पर मतदान के दिन हिंसक द्घटनाओं की जानकारी देने पर प्रतिबंध लगाया गया था। दरअसल अफगानिस्तान का चुनाव अमेरिका और तालिबान के बीच नाक की लड़ाई बन गया था। एक तरफ जहां ओबामा प्रशासन अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित कर अपनी वाहवाही बिटोरना चाह रहा था, वहीं तालिबान इसका विरोध कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाह रहे थे। इस बीच राष्ट्रपति चुनाव से दो दिन पहले काबुल में अभेद्य माने जाने वाले राष्ट्रपति आवास और राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में १७ अगस्त को रातभर कई रॉकेट दागे गए। हालांकि दोनों ही स्थानों से किसी के द्घायल होने की सूचना नहीं है। देश के उत्तरी जोवजान प्रांत में एक बंदूकधारी ने प्रांतीय पार्षद उम्मीवार की गोली मारकर हत्या कर दी। राष्ट्रपति करजई ने इन हमलों पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, 'ऐसे हमले अफगानिस्तान के लोगों को वोट डालने से नहीं रोक पाएंगे।'
चुनाव के बाद राष्ट्रपति पद के विजेता को लेकर अटकलें तेज होती जा रही हैं। राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार जहां अपनी रैलियों में जुट रही भीड़ आदि के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं, वहीं सर्वे एजेंसियां यह जानने के लिए ओपिनियन पोल का सहारा ले रही हैं। ओपिनियन पोल के अनुसार राष्ट्रपति हामिद करजई अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला-अब्दुल्ला से आगे तो हैं फिर भी निर्णायक जनाधार किसी के पास नहीं है। अगर किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो ऐसी स्थिति में दोबारा चुनाव की नौबत आ सकती है। स्थानीय मीडिया के कुछ सर्वेक्षणों में निवर्तमान राष्ट्रपति हामिद करजई की बढ़त को दिखाया गया है। करजई की दावेदारी अपने गृह प्रांत और तालिबान के गढ़ कंधार में मजबूत मानी जा रही है। इन इलाकों में उनके भाई और कंधार के काउंसिल चीफ अहमद वाली करजई ने वहां उनकी ओर से चुनाव प्रचार किया। दूसरी ओर अब्दुल्ला को उनके ही गढ़ उत्तर क्षेत्र में एक सभा के दौरान अनियंत्रित भीड़ का सामना करना पड़ा।
इस बीच तालिबान ने चुनाव में बाधा डालने की धमकी के साथ अफगान नागरिकों से चुनाव के बहिष्कार की अपील की। तालिबान समर्थित एक वेबसाइट पर जारी बयान में तालिबानी लड़ाकों से चुनावों से पहले सड़कों पर बाधा खड़ी करने और मतदाताओं को मतदान केन्द्रों पर न जाने देने की बात कही। तालिबान के अनुसार अफगानिस्तान में चुनाव में मतदान करने का अर्थ होगा अमेरिकी गुलामी स्वीकार करना । और ऐसा करके लोग अमेरिका की मदद करेंगे। हालांकि अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी अधिकारियों को इस बात का यकीन है कि चुनाव बाद सरकार का बनना तय है। इससे तालिबानों की हार भी सुनिश्चित हो जाएगी। साथ ही साथ अफगानिस्तान में तालिबान की हैसियत भी खत्म हो जाएगी। उनके पास सीमित विकल्प रह जाएंगे-देश छोड़ो या फिर बदल जाओ!
अमेरिकी सहायता प्राप्त इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए ओपिनियन पोल के अनुसार २० अगस्त की चुनावी जंग में करजई ४४ फीसदी मतों के साथ सबसे ऊपर होंगे जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला -अब्दुल्ला २६ फीसदी मतों के साथ दूसरे स्थान पर। दस फीसदी मतों के साथ पूर्व योजना मंत्री रमजान बशरदोस्त इस सूची में तीसरे स्थान पर हैं। जबकि पूर्व वित्त मंत्री अशरफ धानी छह फीसदी मतों के साथ चौथे स्थान पर। ओपिनियन पोल से जुड़े अधिकारियों के अनुसार राजनीतिक भविष्य की नब्ज पकड़ने के लिए इंस्टीट्यूट ने १६ से २६ जुलाई के बीच लगभग २,४०० अफगानी नागरिकों से उनकी इच्छा जानना चाही।
पश्चिमी शहर हेरात में हामिद करजई ने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि अगर वह दोबारा सत्ता में आते हैं तो उनकी प्राथमिकता अलगाववादी गुटों खासकर तालिबान से बातचीत कर वापस उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा। जनता का यह भी मानना है कि तालिबान की धमकियों का उन पर खास असर नहीं पड़ा। चुनाव से जुड़े अधिकारियों ने यह बताया है कि करीब १० प्रतिशत पोलिंग बूथों को सुरक्षा की स्थिति के जायजे के बाद खत्म कर दिया गया था। मुख्य रूप से दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान में तालिबानियों का नियंत्रण है, जहां देश के अधिकांश पश्तून निवास करते हैं। हामिद करजई भी इसी कबीले से जुड़े हैं। चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मतदान हो, इसके लिए स्थानीय नेता तालिबान के साथ युद्ध विराम की द्घोषणा कर चुके थे। इसकी जानकारी करजई के भाई अहमद वली करजई ने दी। हालांकि तालिबान नेताओं ने इस तरह के किसी समझौते को नकार दिया है। तालिबानी प्रवक्ता कारी यूसुफ अहमदी ने एपीबीपी से टेलिफोन पर हुई बातचीत में कहा है कि इस तरह की झूठी बात का कोई आधार नहीं है। ऐसा कोई भी शांति समझौता नहीं है।भारत की नजरों में अफगानिस्तान में होने वाले चुनाव काफी महत्व रखते हैं। भारत और अफगानिस्तान आतंकवाद का विरोध करते हैं और दोनों देश वहां चुनाव बाद लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। हाल ही में विदेशमंत्री एस ़ एम ़ कृष्णा ने भारत यात्रा पर आए अफगानिस्तान के विदेशमंत्री स्पायरा से मुलाकात कर आंतक को खत्म करने की बात कही। एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर कहा कि आतंकवाद दक्षिण एशिया की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। दोनों देश दक्षिणी एशिया को एक शांतिपूर्ण एवं समृद्ध क्षेत्र बनाने के लिए आतंक विरोधी क्षेत्र में सहयोग मजबूत करेगे। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत विश्व शांति की जीत होगी। ऐसे में अफगानिस्तान मे मजबूत होता लोकतंत्र तालिबान की शक्ति पर करारा प्रहार होगा। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत तालिबान के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकती है।