Friday, October 23, 2009

सुर को सम्मान

मन्ना डे ने हिन्दी फिल्म संगीत को अपने वैविध्यपूर्ण सुर से समृद्ध किया है। क्लासिकल, कव्वाली से लेकर कॉमेडी और रोमांटिक गानों में उनका कोई जोड़ नहीं है। इस वर्ष उन्हें फिल्म जगत के सबसे बड़े दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। मन्ना डे की गायकी दिल और रूह को छूने वाली होती है। वे अपने ढंग के ऐसे गायक हैं जिनकी नकल संभव नहीं
ऐ मेरे प्यारे वतन' 'ए भाई जरा देख के चलो', 'कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'लागा चुनरी में दाग' 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' 'तू प्यार का सागर है' जैसे सदाबहार नगमें गा चुके ९० वर्षीय मशहूर गायक मन्ना डे को भारतीय सिनेमा में जीवन पर्यन्त शानदार योगदान के लिए वर्ष २००७ का दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया जाएगा। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल उन्हें यह पुरस्कार २१ अक्टूबर को एक समारोह में प्रदान करेंगी।
पांच दशकों से अधिक की लंबी प्रतीक्षा के बाद ही सही उनकी गायकी को भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजने का फैसला लिया गया है। मोहम्मद रफी ने मन्ना डे के लिए कहा था कि लोग मेरे गाने सुनते हैं और मैं सिर्फ मन्ना डे के। ९० बसंत देखने के बाद भी दमखम वैसा ही कायम है। आज भी गाते हैं और रोज रियाज करते हैं। १८ दिसंबर १९५३ में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारसन से शादी की। मन्ना डे आज के हो- हल्ले वाले संगीत से दुखी हैं। आज गाने का स्वर देखकर मन खिन्न हो जाता है। आज के गाने को देखकर लगता है कि कोई भी गा सकता है।
मौत का उन्हें डर नहीं है। कहते हैं मरना तो पड़ेगा ही, किंतु अतृप्त होकर नहीं तृप्त होकर जाना चाहता हूं। इस जीवन से खुश हूं। जितना प्यार, सम्मान और यश मुझे मिला, उसे सपने में भी नहीं सोचा था। मन्ना डे का पूरा नाम प्रबोध चंद्र डे है। उनका जन्म एक मई १९१९ को बंगाल में हुआ। यहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। १९४२ में मुंबई का रुख किया और कृष्णा चंद्र डे और सचिन देव बर्मन के साथ काम करना शुरू किया। यहीं से उनके करियर की शुरुआत मानी जाती है।
मन्ना डे की खासियत यह रही कि उनके गाये गानों में हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत हमेशा उपस्थित रहा। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की दीक्षा भी ली। मन्ना डे ने १९४० में फिल्म 'राम राज्य' में अभिनय भी किया और गाना भी गाया। इसके बाद फिल्म 'तमन्ना' से उन्होंने पार्श्वगायन में पूरी तरह से कदम रख दिया। इस गाने में कृष्ण चंद्र डे का संगीत था और यह गाना उस जमाने के हिट गानों में शुमार किया गया। मन्ना डे ने लगभग ३५०० गानों को अपनी आवाज से सजाया। उन्होंने कई गाने किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मुकेश कुमार के साथ भी गाए। वे हिन्दी और बंगाली फिल्मों के महान गायकों में से एक हैं। इससे पहले १९७१ में मन्ना डे को पद्म श्री और वर्ष २००५ में पद्म विभूषण से अलंकृत किया जा चुका है।
पचास के दशक तक मन्ना डे एक मंझे हुए पार्श्व गायक के तौर पर स्थापित हो चुके थे। उन्होंने 'आवारा', 'दो बीद्घा जमीन' 'हमदर्द' 'परिणीता' 'चित्रांगदा' 'बूट पालिश' और 'श्री ४२०' जैसी फिल्मों के लिए पार्श्व गायन किया। आमतौर पर राजकपूर की फिल्मों में मुकेश अपनी आवाज देते थे, लेकिन कुछ गीतों के लिए राजकपूर ने मन्ना डे की आवाज पर भरोसा दिखाया। 'श्री ४२०' का मुड़-मुड़ के न देख प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यू डरता है दिल 'मेरा नाम जोकर' का ए भाई जरा देख के चलो और 'बॉबी' फिल्म का 'ना मांगू सोना चांदी' ऐसे ही कुछ गीत रहे। मन्ना डे की आवाज हर दौर में श्रोताओं ने पंसद की। उन्होंने 'शोले' 'लावारिस' 'सत्यम शिवम सुंदरम' 'यादों की बारात' 'क्रांति' 'कर्ज' 'सौदागर' 'हिन्दुस्तान की कसम' 'बुड्ढा मिल गया' जैसी तमाम फिल्मों के गीतों को अपने सुरों से सजाया। उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार भीमसेन जोशी के साथ गाकर अपनी सुर साधना का परिचय दिया।
गानों में प्रामाणिकता लाने के लिए मन्ना डे ने प्रयोग भी खूब किए। 'नदिया चले चले रे धारा' में अलाप के लिए कल्याणजी भाई ने बंगाल के लोक गायकों को बुलावा दिया। गोवा के मिजाज को समझते हुए मन्ना डे कुछ दिनों तक उस शैली को समझते रहे, जिसमें उन्हें 'ना मांगू सोना चांदी' जैसा गीत गाना था। 'इक चतुर नार' के लिए भी वह पूरे दक्षिण भारतीय मिजाज में थे। बंगाल के लोक संगीत में तो उनकी आवाज में और भी सोना बिखरा पड़ा है। शैलेंद्र ने 'तीसरी कसम' बनाई तो लोक गायकी की छटा बिखेरता 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे' गीत मन्ना डे से गवाया और उन्होंने इसे सहजता और खूबसूरती से गाया भी।
फिल्मी कव्वालियों पर कोई भी चर्चा मन्ना डे के बिना अधूरी है। 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'ये इश्क इश्क' और बहुत सी कव्वालियां इसके सबूत हैं। एक तरफ शास्त्रीय संगीत में 'सुर ना सजे' जैसा संजीदा गीत, तो दूसरी और 'ए भाई जरा देख के चलो।' यह करिश्मा मन्ना डे ही कर सकते हैं। उनकी गायकी को गंभीर और महज शास्त्रीयता तक देखने वाले अगर उनके रोमांटिक गीतों की बानगी को समझ लें तो फिर उनसे भूल न होगी। लताजी के साथ उनके बेहद खूबसूरत युगल गीत हैं।
अक्सर कहा जाता है कि मन्ना डे की प्रतिभा का फिल्म जगत पूरा उपयोग नहीं कर पाया। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर में मन्ना डे की अपनी खास जगह रही है। वह लीक पर नहीं चले। केसी डे और उस्ताद अब्दुल रहमान खान जैसे संगीत मर्मज्ञों का सान्निध्य जिसे मिला हो, उसे मन्ना डे बनना ही था। बेशक किसी गीत को फिल्म में लाने में कई पहलुओं का ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए आवाज में तरुणाई पाने की तलाश में शायद रफी और मुकेश को ज्यादा अवसर मिल गए हों, पर इससे फिल्म संगीत में मन्ना डे का महत्व कम नहीं हो जाता है। उनके कुछ अविस्मरणीय गीत ऐसे भी हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि अगर मन्ना दा नहीं होते, तो फिर संगीतकार उन गीतों की धुन शायद बदल देते।
फिल्म संगीत का वह स्वर्णिम दौर श्रोताओं को कई तरानों की याद दिलाता है जिसे हम आज तक नहीं भूल पाये हैं। यह गीत आज भी लोगों को रोमांचित करता है। 'चढ़ गयो पापी बछुआ' 'तुम गगन के चंद्रमा हो' 'नैन मिले चैन कहां' 'ये रात भीगी भीगी' 'प्यार हुआ इकरार हुआ' 'सुर न सजे' 'पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई' ऐसे ही कई तराने हैं। यह उनकी गायकी का विशाल गगन है कि उन्होंने शास्त्रीयता, कव्वाली, भजन या फिर बंगाल की सुंदर लोकधुनों पर तैयार गीतों को इस कदर गाया कि लोग झूमते रह गए।
मन्ना डे ने संभवतः सबसे ज्यादा थीम सांग गाए हैं। मसलन ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'सफर' में अत्यधिक करूणा है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है। कैंसर के मरीज राजेश खन्ना से शर्मिला टैगोर प्यार करती है। रोना-गाना चलता रहता है। अंत में नायक मर जाता है। इस फिल्म में कई मधुर गीत हैं जो काफी लोकप्रिय भी हुए। मगर इस फिल्म के थीम सांग के लिए ऋषिकेश ने 'मन्ना डे' की मदद ली। इस फिल्म का थीम सांग-'नदिया चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा ़ ़ ़तुझको चलना होगा' मन्ना डे ने ही गाया। इसी विषय पर एक और फिल्म थी 'आनंद'। उसमें भी नायक राजेश खन्ना थे और कैंसरग्रस्त भी। वह फिल्म भी ऋषिकेश दा की है। उसमें कई कर्णप्रिय गीत मुकेश के स्वर में हैं। लेकिन थीम सांग उन्होंने ही गया है। गीत है 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी तो हंसाए, कभी ये रूलाए।
मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार' का गीत 'कस्मे वादे प्यार वफा सब बाते हैं, बातों का क्या।' को सूफियाना अंदाज में मन्ना डे ही दे सकते थे। इसी तरह महबूब खान की क्लासिक फिल्म 'मदर इंडिया' का गीत- 'चुनरिया कटती जाए रे, उमरिया द्घटती जाए रे' को उन्होंने अपनी विशिष्ट आवाज से दार्शनिक टच दिया है। आत्मा को मथती मन्ना डे की आवाज ने निराशा को वह सूफियाना अंदाज दिया है कि वह गीत सुनकर आज भी लोगों के बढ़ते कदम ठिठक जाते हैं। ग्रेट शो मैन राजकपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'ए भाई जरा देख के चलो' को कौन भूल सकता है। इस गीत में जीवन-दर्शन है। संवाद शैली में यह गीत है। मन्ना डे की विलक्षण गायन-क्षमता बेमिसाल नमूना है। अरसा हुआ मन्ना डे ने मुंबई को हमेशा के लिए छोड़ दिया। अपने पुराने शहर कोलकाता में रहते हैं। शायद हमें या हिन्दी फिल्मों को मन्ना डे जैसे गायक की जरूरत नहीं रही, क्योंकि हम चलताऊ गाने सुनने के आदी हो गए हैं।

ओबामा को नोबेल

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के नाम नोबेल शांति पुरस्कार का एलान वाकई चौंकाने वाला है। न सिर्फ इसलिए कि पिछले एक दशक में वह तीसरे अमेरिकी राजनेता हैं, जिन्हें यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला है, इसलिए भी कि सम्मान के लिए
नामांकन की तारीख खत्म होने के ग्यारह दिन पहले ही वे राष्ट्रपति बने थे। नोबेल पुरस्कार समिति ने ओबामा के पक्ष में चाहे जितने भी कसीदें गढ़े हों, लेकिन एक बार फिर यह सर्वोच्च सम्मान विवादों के द्घेरे में आ गया है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि पुरस्कार समिति ने भविष्य में निवेश किया है। इसे एक संयोग कहें या फिर विडंबना कि ओबामा को ऐसे समय नोबेल पुरस्कार मिला जब उन्होंने शांति के दूत कहे जाने वाले प्रसिद्ध धर्मगुरु दलाई लामा से मिलने से इन्कार कर दिया।
ओबामा को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और लोगों के बीच सहयोग को मजबूती देने के उनके असाधारण प्रयासों के लिए नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति हैं। दुनिया भर में शांति कायम करने के प्रयास, मुस्लिम देशों के बीच अमेरिका की छवि अच्छी बनाने और परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर वे हमेशा सुर्खियों में रहे। राष्ट्रपति ओबामा ने इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार जीतने पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा 'मैं नहीं समझता कि मैं दुनिया की काया पलटने वाले उन अनेक व्यक्तियों के साथ शामिल होने के काबिल हूं।' ओबामा तीसरे ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जिनको उनके कार्यकाल के दौरान इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इससे पहले १९०६ में थियोडोर रोजवेल्ट को, १९१९ में वुडरो विल्सन को यह सम्मान प्रदान किया गया था।
ओबामा की वैश्विक कूटनीति का मुख्य केंद्र मुस्लिम जगत की ओर हाथ बढ़ाना रहा, जो अफगानिस्तान और इराक में युद्ध के चलते लंबे समय से अमेरिका को अपना दुश्मन मानता है। ओबामा ने अमेरिकी युद्धनीति की आलोचना की। पश्चिम एशिया के लिए विशेष दूत की नियुक्ति के बाद इजराइल और फिलीस्तीनी नेताओं को एक मंच पर लेकर आए। उन्होंने जून में काहिरा में मुस्लिम जगत के साथ संबंधों पर प्रमुख भाषण दिया। चौवालीस वर्षीय ओबामा ने ईरान और म्यांमार जैसे देशों के साथ भी बातचीत के दरवाजे खोले जिन पर बीते कई वषोर्ं से आर्थिक प्रतिबंध लागू हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा के माध्यम से ओबामा ने विश्व से परमाणु शस्त्रों की कटौती के लिए भी अपील की। यूरोप के लिए रक्षा नीति पर उन्हें रूस से भी समर्थन मिला।
राष्ट्रपति ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की द्घोषणा पर अमेरिकी बेशक गर्व व्यक्त कर रहे हैं लेकिन अगर देश में हुई प्रतिक्रिया को किसी एक शब्द में समेटा जा सकता है तो वह है 'आश्चर्य'। स्वयं अमेरिका में इस फैसले पर आश्चर्य है। मीडिया में वह राष्ट्रीय उत्साह नहीं देखा जा रहा है जो अमेरिकी दिखाने में मशहूर हैं। आश्चर्य में अविश्वास और संशय ही देखने को मिल रहा है। सीएनएन के मॉडरेटर जॉन मान ने पुरस्कार की द्घोषणा पर कहा कि एक व्यक्ति जो सिर्फ नौ महीने से इस उच्च पद पर है, दो देशों में युद्ध लड़ रहा है उसे शांति के लिए दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण पुरस्कार मिल रहा है।
पुरस्कार मिलने पर आम लोगों को भी हैरानी हुई है। लेकिन इससे भी हैरत में डालने वाली बात यह है कि उनके गृहनगर में ही लोगों को इस पर विश्वास नहीं हो रहा। अखबारों द्वारा कराये गये जनमत सर्वेक्षण से यह बात सामने आयी है कि ७० प्रतिशत लोगों का यह मानना है कि बराक इसके हकदार नहीं हैं। राष्ट्रपति ओबामा को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने पर रिपब्लिकनों ने संशय, संदेह और गुस्से के साथ प्रतिक्रिया दी हैं। रिपब्लिकन नेशनल कमेटी के चेयरमैन माइकल स्टीले ने इसे 'दुर्भाग्यपूर्ण' करार दिया और आरोप लगाया कि ओबामा का दर्जा सेलिब्रिटी का है। उन्होंने किसी वास्तविक उपलब्धि के चलते यह सम्मान हासिल नहीं किया है। स्टीले ने अपने बयान में कहा अमेरिकी के साथ-साथ पूरी दुनिया के लोग यह वास्तविक सवाल उठा रहे हैं कि आखिर ओबामा ने किया क्या है?
विश्व शांति के लिए १९९४ में जब प्रमुख फिलिस्तीनी नेता यासिर आराफात को नोबेल पुरस्कार मिला था तो उसका मखौल स्वयं अमेरिकी मीडिया ने उड़ाया था। लिखा जा रहा था, क्या इस बार पुरस्कार के लिए 'हत्यारा' होना शर्त थी। अब जबकि बराक ओबामा को यह सम्मान दिया गया है तो क्या पूछा जा सकता है कि क्या इस बार सिर्फ 'बातें' काफी थीं। गौरतलब है कि ओबामा ने २० जनवरी २००९ को अमेरिकी राष्ट्रपति पद की शपथ ली। नोबेल शांति पुरस्कार के नामांकन की अंतिम तिथि एक फरवरी २००९ थी। यानी ग्यारह दिन के उनके कार्यकाल पर उन्हें विश्व में अमन स्थापित करने का सम्मान दे दिया गया। ओबामा के वे प्रयास जो किसी को दिखे तक नहीं नोबेल कमेटी को 'असाधारण' और 'अद्वितीय' लगे। सम्मान की द्घोषणा वाले दिन तक ही वे नौ माह की किस शांति के अग्रदूत थे?
ओबामा को नोबेल पुरस्कार मिलने पर विश्वभर में मिली जुली प्रतिक्रिया सामने आयी।
ईरान के राष्ट्रपति के सलाहकार अली अकबर ने उम्मीद जताई कि इस पुरस्कार से बराक ओबामा को पूरी दुनिया में न्याय स्थापित करने के रास्ते पर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। हम इससे कतई खिन्न नहीं हैं। हम समझते हैं यह पुरस्कार लेने के बाद ओबामा दुनिया से अन्याय हटाने की दिशा में कुछ व्यावहारिक प्रयास शुरू करेंगे। वहीं अफगानिस्तान में तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह ने कहा है कि ओबामा ने अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया है। हम ओबामा को नोबेल शांति पुरस्कार दिए जाने की भर्त्सना करते हैं। हम उस संगठन की भी भर्त्सना करते हैं, जो ओबामा को शांति पुरस्कार दे रहा है।
बहरहाल, महानता कभी निर्दोष नहीं होती, और शायद नोबेल पुरस्कार भी इससे अछूते नहीं रह सकता। लेकिन जिस सम्मान को पाने की हसरत अनेक लोग पालते हों, उसे इतना पारदर्शी और विवादरहित तो होना ही चाहिए कि उसकी खुद की साख दांव पर न लगे। ऐसा नहीं है कि इस पुरस्कार पर पहली बार कोई प्रश्नचिह्न लगा है। इससे पहले कई बार इस पर उंगली उठी है लेकिन इस वर्ष शांति के नोबेल को लेकर अशांति फैल गयी है। बेशक, ओबामा के इरादे नेक हों, वह दुनिया को परमाणु शस्त्र विहीन बनाने का दम भरते हों, लेकिन उन्हें अपने आचरण से इसे साबित करना चाहिए। ओबामा यथास्थिति को तोड़कर समस्याओं का समाधान चाहते हैं।
परमाणु निरस्त्रीकरण पर उनकी नीयत ज्यादा सुरक्षित विश्व बनाने की है इसमें कोई शक नहीं। ओबामा सच्चे अर्थों में मार्टिन लूथर किंग के अनुयायी हैं जो सौहार्द और संवाद के सहारे समस्याएं सुलझाना चाहते हैं। कुटिलता और स्वार्थ से भरे अंतरराष्ट्रीय राजनय में उनका यह रवैया खुली हवा के झौके की तरह है। यकीनन वे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने अमेरिका की पश्चिम एशिया नीति को बहुत हद तक बदलने का जोखिम उठाया है।

Thursday, October 8, 2009

सत्ता में फिर से वापसी

जब-जब जर्मनी से किसी बड़े परिवर्तन की आहट सुनाई देती है यूरोप सशंकित हो उठता है। ऐसे में सारी दुनिया की निगाहें उसपर लग जाती हैं। हाल ही में जर्मनी में संपन्न चुनाव में ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। यूरोप की सबसे बड़ी

अर्थव्यवस्था वाले देश जर्मनी के आम चुनाव में चांसलर एंजेला मॉर्केल ने पूर्ववर्ती सत्तारूढ. गठबंधन में शामिल रहे अपने प्रतिद्वंद्वी दल को धूल चटाते हुए लगातार दूसरी बार न सिर्फ शानदार जीत दर्ज की है बल्कि अपने पसंदीदा दल के साथ गठबंधन बनाने के लिए भी जनमत हासिल कर लिया है।

२७ सितंबर के चुनाव परिणामों ने दुनिया की सबसे ताकतवर महिला मानी जाने वाली ५५ वर्षीय मॉर्केल को आर्थिक मंदी से निपटने के लिए अपने पसंदीदा दल फ्री डेमोक्रेट यानी एफडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने का मौका दे दिया। देश की पूर्ववर्ती गठबंधन में शामिल रही देश के सबसे बड़ी मध्यमार्गी वामपंथी पार्टी सोशल डेमोक्रेट को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा है।

पिछले चार सालों से सोशल डेमोक्रेट्स के साथ गठबंधन को दरकिनार कर मॅार्केल द फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी यानी एफडीपी के सहयोग से चार साल का दूसरा कार्यकाल हासिल करने में सफल रहीं। मॅार्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) तथा उसकी सहयोगी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) ने २३९ सीटें हासिल कर ली हैं। एफडीपी ने चुनावों में ९३ सीटें हासिल की हैं। इस प्रकार सीडीयू को ३३२ सीटों का बहुमत मिला है। सीडीयू ने १४६ सीटें, वाम दलों ने ७६ सीटें और अन्य ने ६८ सीटें जीतीं। सीडीयू के पिछली सरकार में मॅार्केल के साथ अच्छे संबंध नहीं थे। जीत के बाद मॅार्केल ने कहा मेरे लिए खुशी की बात है कि हमें एक बार फिर सरकार बनाने का मौका मिला।

हम सचमुच जश्न मना सकते हैं लेकिन आगे हमारे लिए कठिन रास्ता है। जर्मनी में संसदीय चुनाव प्रक्रिया में जिस तरह अनिश्चिता देखी गई उतनी ही निश्ंिचतता से जनता ने नई सरकार चुनी।
जीत के बाद मॅार्केल ने कहा कि वह नई सरकार के गठन के लिए वेस्टरवेस्ले से निर्णायक बातचीत करेंगी। कर में कटौती के मुद्दे पर अंतिम फैसला होते ही उम्मीद है कि नई सरकार गठित हो जायेगी। गौरतलब है कि एफडीपी १६ साल में बाद वापस न सिर्फ सत्ता में आई है, बल्कि नए गठबंधन में उसका प्रभाव भी बढ़ा है। निचले सदन में पार्टी ने अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए रिकार्ड मत हासिल किए हैं।

चुनाव परिणामों की द्घोषणा के तुंरत बाद हार स्वीकार करते हुए एसपीडी के चांसलर पद के उम्मीदवार फ्रांक वान्टर श्याइनमायर ने संसदीय दल के नेता के रूप में काम करने की बात कही। पार्टी नेतृत्व उन्हें इस पद के लिए प्रस्तावित कर रहा है, वे पेटर का स्थान ले रहे हैं जो सक्रिय राजनीति से विदा लेने वाले हैं। एसपीडी के अंदर गणतंत्र के इतिहास की सबसे बुरी हार के बाद जिम्मेदारी की बहस छिड़ गई है। पार्टी प्रमुख क्युंटेफेरिंग ने पद छोड़ने के संकेत दिए हैं। पार्टी उपाध्यक्ष आंडेजा नाहलेस का कहना है कि अब पहले की तरह नहीं चल सकता, एसपीडी को जीर्णोद्धार की जरूरत है।

जर्मनी के आम चुनाव के नतीजों पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खूब चर्चा रही। खासकर सियासी परिदृश्य में बदलाव और नई सरकार की वित्तीय और आर्थिक नीति को लेकर दुनियाभर के अखबारों ने टिप्पणी की। सारी दुनिया की निगाहें जर्मनी के आम चुनाव पर लगी थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नख-दंत विहीन हो जाने और दो टुकड़ों में बंट जाने के बावजूद जर्मनी ने खुद को बहुत कायदे से संभाला। मौका मिलते ही दोनों टुकड़े फिर एकजुट हुए और आज वह यूरोप की सबसे बड़ी और दुनिया की पांचवें नंबर की आर्थिक ताकत है।

अंजेला मॅार्केल ३६ साल की उम्र तक जिंदगी की जद्दोजहद में इतनी मशगूल रहीं कि उन्होंने राजनीति के बारे में सोचा ही नहीं था। लेकिन जैसे ही १९८९ में बर्लिन की दीवार टूटी और दोनों तरफ के लोग एक हुए, मॅार्केल ने भी अपनी राजनीतिक आंखें खोलीं। पिछले २० वर्षों से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। चार साल पहले वह पूर्वी जर्मनी मूल की पहली चांसलर बनीं। इस बार के चुनाव में उनके बारे में क्या नहीं कहा गया। वह तलाकशुदा हैं, मुंहफट हैं, पुरूषों को कुछ नहीं समझतीं और क्रिश्यिचन डेमोक्रेट के भेष में कम्युनिस्ट हैं। लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि जर्मनी को एक गंभीर नेता चाहिए, ब्रिटनी स्पीयर्स नहीं। दुनिया आर्थिक मंदी के भयावह दौर से गुजर रही है। ऐसे समय में देश को ऐसा नेता चाहिए जो कड़े फैसले ले सके।

कुछ साल पहले देश की आर्थिक विकास दर सात प्रतिशत थी, आज एक प्रतिशत से भी कम है। वह आर्थिक सुधार के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। उनकी प्राथमिकता हर हाल में नौकरियां बचाना और नई नौकरियों का सृजन है। इसके लिए वह मुक्त व्यापार की पक्षधर पार्टी फ्री डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती हैं जिसका पहला लक्ष्य है चीन को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बनना। यानी नए आत्मविश्वास से लबरेज अंजेला मॅार्केल कुछ और आक्रमकता के साथ विश्व रंगमंच पर खुद को पेश करेंगी, न सिर्फ आर्थिक मोर्चों पर, बल्कि राजनीति और सामरिक मोर्चों पर भी।

विश्लेषकों के मुताबिक दोनों दक्षिणपंथी पार्टियां मिलकर जर्मनी में कर, श्रम सुधार नीतियों और द्घरेलू सुरक्षा में सुधार करने का प्रयास करेंगी। सीडीयू के महासचिव रोनाल्ड के अनुसार गंठबंधन के लिए बातचीत जितनी जल्दी हो सकेगा, शुरू की जाएगी। जानकारों की मानें तो नई सरकार के सामने बजट द्घाटे, बढ़ती बेरोजगारी पर लगाम व कर्ज चुकाना जैसी चुनौतियां होंगी। सीडीयू की जीत से शेयर सूचकांक में उछाल आया है। प्रमुख अर्थशास्त्री नोटबर्ट वाक्टर ने कहा है कि नई सरकार की नीतियां बाजारोन्मुखी हैं। मुझे विश्वास है कि अपने आर्थिक संकट से जर्मनी जल्द ही उबर जाएगा।

इस बीच चांसलर मॅार्केल को अपनी चुनावी सफलता पर दुनिया भर से बधाइयां मिल रही हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने कहा है कि यह सफलता मॅार्केल के प्रति जर्मन जनता के विश्वास की अभिव्यक्ति है। अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चांसलर मॅार्केल को बधाई दी। व्हाइट हाउस ने कहा कि अमेरिका राष्ट्रपति और जर्मन चांसलर एंजेला मॅार्केल के बीच इस बात पर सहमति है कि जर्मनी में एक मजबूत सरकार के आने के बाद दोनों देशों का सहयोग और बढ़ेगा तथा मजबूत होगा। अमेरिका और जर्मनी एक दूसरे के विश्वस्त सहयोगी हैं और दुनियाभर में आजादी, सुरक्षा और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए दोनों देश एक साथ काम कर रहे हैं। जर्मनी के साथ सहयोग बढ़ते देखना चाहते हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गॉडेन ब्राउन ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि वे चांसलर मॅार्केल के साथ अपने कारोबारी संबंध बनाए रख सकते हैं।

भारतीय मूल के तीन सांसद जर्मन संसद बुंडेसटाग में पंहुचे हैं। एसपीडी के सेवा क्रिश्चयन एडाधी ने अपनी सीट सीधे जीती है, जबकि ग्रीन पार्टी के जोसेफ विंकलर और वामपंथी राजू शर्मा पार्टी सूची से संसद में पहुंचे हैं। वामपंथी डी लिंके ने भारतीय मूल के वकील राजू शर्मा को होलश्टाइन प्रांत में अपना उम्मीदवार बनाया था। जर्मनी के संसदीय चुनावों में इस बार भारतीय मूल के चार उम्मीरवार मैदान में थे। इनमें से दो सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के और ग्रीन पार्टी के जोसेफ विकलर।

मौटे तौर पर नई जर्मन सरकार से कुछ ज्यादा अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, लेकिन भारत के लिए ये चुनाव खास रहे हैं। भारत में कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई है और यही रूझान जर्मनी में भी देखने को मिला है। राजदूत श्यागा कि मानें तो मनमोहन सिंह और मॅार्केल के बीच बहुत अच्छी समझदारी है जो आने वाले दिनों में लाभदायक साबित होगी। उनके अनुसार, जर्मनी के लिए भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती भूमिका बहुत मायने रखती है। विश्लेषकों का भी मानना है कि अब तक दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ते प्रबल रहे हैं और अब समय आ गया है राजनीतिक रिश्तों को और आगे बढ़ाने का। जर्मनी और भारत एक साथ सुरक्षा परिषद् की स्थाई सदस्यता के लिए कोशिश कर रहे हैं, इसलिए भी इस रिश्ते को नई दिशा मिलनी चाहिए।

यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद जर्मनी को आर्थिक मंदी की भयावह मार झेलनी पड़ी है। क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स दोनों ही कर कटौतियों के प्रबल पक्षधर है। इस बार फ्री डेमोक्रेट्स सरकार की नीतियों को ज्यादा प्रभावित करने की स्थिति में होंगे। उनके नेता वेस्टरवैले बाजार और व्यापारियों के चहेते हैं। वे विदेश, वित्त और न्याय मंत्रालय चाहेंगे जो परंपरा से उन्हें मिलते भी आए हैं। अगर वेस्टरवैले सचमूच देश के विदेश मंत्री बनते हैं तो उनके लिए इस्लामी देशों के साथ कूटनीति में दिक्कत पेश आ सकती है क्योंकि वे समलैंगिक हैं। जो भी हो माकेल की दूसरी पारी आशा लगाने वाली ही मानी जाएगी।

Thursday, October 1, 2009

दूरदर्शन का सुहाना सफ़र

बहुत खामोशी के साथ विश्व में सर्वाधिक लोगों तक पहुंच रखने वाले 'दूरदर्शन' ने अपनी स्थापना के पचास साल पूरे कर लिए। भारत में आर्थिक उदारीकरण आने के बाद लगभग चार सौ से अधिक चैनल आए और दूरदर्शन को उनसे कड़ा संद्घर्ष भी करना पड़ा।

लेकिन इस संद्घर्ष में भी उसने अपनी विश्वसनीयता और भरोसे को कायम रखा। चोटी के दो साहित्यकारों कमलेश्वर और मनोहर श्याम जोशी ने इसे बुद्धु बक्से की छवि से निकालकर आम आदमी का चैनल बनाया। कमलेश्वर ने दूरदर्शन का महानिदेशक रहते हुए समाचारों में आमूल-चूल परिवर्तन किए और परिक्रमा जैसे कई लोकप्रिय समसामयिक कार्यक्रम तैयार करवाए। जबकि मनोहर श्याम जोशी ने 'हम लोग' जैसा धारावाहिक लाकर नई क्रांति की

दूरदर्शन ने अपनी स्थापना के ५० वर्ष पूरे कर लिये हैं। एक जमाना था जब सिर्फ दुरदर्शन ही था। इसकी पहुंच भारत के सुदूरवर्ती गांवों तक रही और इसने करोड़ों लोगों के विश्वास को हासिल किया। आज भी दूरदर्शन का नाम सुनते ही अतीत के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद आ जाते है। इसके कई कार्यक्रम जैसे 'हमलोग', 'सुरभि', 'रामायण', 'महाभारत', 'चित्रहार', 'रंगोली', 'बुनियाद', 'परिक्रमा', 'स्वाभिमान', 'भारत एक खोज', 'आंखों देखी', 'नीम का पेड़', 'इंतजार', 'फौजी', 'फिर वही तलाश', 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने', 'कक्का जी कहिन', 'शांति', 'वर्ल्ड दिस विक', 'तमस', 'नुक्कड़', 'मालगुड़ी डेज', 'जंगल बुक', 'बातों बातों में' ने न सिर्फ लोकप्रियता हासिल की बल्कि देश में यह एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में भी स्थापित हुआ।

दूरदर्शन ने न जाने ऐसे कितने सफल धारावाहिक के माध्यम से टीवी मनोरंजन के क्षेत्र में कई मिसालें कायम की हैं। आज भी यह भारत का सूचना, समाचार, संस्कार और मनोरंजन के कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाला सबसे बड़ा माध्यम है। इसने मनोरंजन के मायने ही बदल दिये साथ-साथ लोगों को शिक्षित करने में भी अहम भूमिका निभाई।

टेलिविजन ने पिछले ५० वर्षों में आसमानी ऊचाइयां हासिल की है। आज देशभर में करोड़ो लोगों के द्घरों में टीवी सेट है, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब दिल्ली जैसे महानगर में मात्र १८ टीवी ही थे और लोग शहर में जगह-जगह कौतुहल के साथ इस अजब-गजब बक्से को देखते थे। दूरदर्शन ने तब से लेकर अब तक लम्बा सफर तय किया है। आज वह अपनी स्वर्ण जयंती मना रहा है। देश में बेशक लोगों के पास आज ४५९ टीवी चैनल और दूरदर्शन के ३५ चैनलों में से किसी को भी चुनने की स्वतंत्रता है। लेकिन आज भी ९० प्रतिशत दर्शक इससे जुड़े हुए हैं।

पन्द्रह सितंबर १९५९ को दूरदर्शन का प्रसारण सप्ताह में सिर्फ तीन दिन आधा-आधा द्घंटे के लिए होता था। इसी वर्ष इसकी शुरुआत 'टेलिविजन इंडिया' नाम से हुई। इसका 'दूरदर्शन' नामकरण १९७५-७६ में हुआ। दूरदर्शन की एक दिलचस्प कहानी यह भी है कि उस समय के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब दूरदर्शन के प्रसारण का उद्द्घाटन कर रहे थे, तब उद्द्घाटन प्रसारण में बाधा आ गई थी। ऐसे में लाचारीवश रुकावट के लिए खेद की पट्टी लगानी पड़ी। खैर राजेन्द्र प्रसाद ने स्विच ऑन कर इसका उद्द्घाटन किया। उस्ताद बिस्मिल्ला खान ने शहनाई वादन प्रस्तुत किया। मंगल ध्वनि बजी।

इसके बाद धीरे-धीरे सफर तय करते हुए दूरदर्शन ने अपना पहला धारावाहिक 'हमलोग' शुरू किया। जल्दी ही यह सबसे ज्यादा देखा जाने वाला सीरियल बन गया। इसके सबसे अहम किरदार अशोक कुमार का सीरियल के अंत में जो बातें बताते थे उसे लोग बड़े ध्यान से सुनते थे। इसके बाद 'बुनियाद' आया। यह सीरियल भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद परिवारों के बनते-बिगड़ते संबधों पर आधारित था। इसके मुख्य कलाकार आलोक नाथ, अनीता केवर, विनोद नागपाल, एवं दिव्या सेठ आदि थे। रामानंद सागर के 'रामायण' को भला कौन भूल सकता है?

'रामायण' में राम और सीता की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल और दीपिका को आज भी लोग राम और सीता के रूप में ही पहचानते हैं। बीआर चोपड़ा के सीरियल 'महाभारत' से ही नीतीश भारद्वाज को कृष्ण के रूप में पहचान मिली। वहीं 'भारत एक खोज', 'दि सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' और 'चाणक्य' ने लोगों को भारत की ऐतिहासिक तस्वीर से रूबरू कराया। जबकि जासूस 'करमचंद', 'रिपोर्टर', 'तहकीकात', 'सुराग' और 'बैरिस्टर राय' जैसे धारावाहिकों ने समाज में हो रही आपराधिक द्घटनाओं को स्वस्थ ढंग से पेश करने की कला विकसित की। लोग अगला ऐपिसोड देखना नहीं भुलते थे।

पुराने ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के सामने बैठे किसान भाई 'कृषि दर्शन' और मूक बधिरों के समाचार बड़े चाव से देखते थे। बीच -बीच में आने वाले छोटे विजुअल्स जैसे 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' 'प्यार की गंगा बहे देश में एका रहे' 'स्कूल चलें हम' 'सूरज एक चंदा तारे अनेक' 'एक चिड़िया अनेक चिड़िया' 'एक अन्न का ये दाना सुख देगा मुझको मनमाना' आदि भी बहुत ही चाव से देखे जाते थे। रविवार का दिन तो मानो दूरदर्शन का ही होता था। लोग सुबह उठकर 'रंगोली' देखते, फिर नाश्ता लेकर टीवी से चिपक जाते। दोपहर में ही कुछ समय के लिए टीवी से अलग हटते थे फिर शाम को हर रविवार को दिखाई जाने वाली फिल्म देखने बैठ जाते थे, तो फिर रात में ८ः४५ पर समाचार देखकर ही टीवी छोड़ते थे। उस समय के संडे का मतलब होना था आजकल का टोटल 'फन डे'।

बात खबरों की हो तो दूरदर्शन ने समाचारों के प्रसारण के मामले में रंग-रूप और नई-तकनीक जरूर अपना ली है लेकिन अभी भी उसके समाचारों में विश्वसनीयता बरकरार है। बिना किसी राग-द्वेष, लाग लपेट और नाटकीयता के समाचारों की प्रस्तुति खूब रही। दूरदर्शन ने विषय की गंभीरता को खत्म नहीं किया। आज इसके माध्यम से न सिर्फ हिन्दी और अंग्रेजी में समाचार प्रस्तुत किया जाता है, बल्कि अन्य कई भारतीय भाषाओं में भी समाचार प्रस्तुत किया जाता है।

समाचार से संबंधित कई अन्य कार्यक्रमों को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता रहा है।ं दूरदर्शन का उद्देश्य समय भाव के साथ लोकहित का भाव है। इसी तरह धारावाहिक 'परिक्रमा' को कैसे भूलाया जा सकता है। सचमुच कमलेश्वर ने इस कार्यक्रम के माध्यम से लोगों के सामने सच को उजागर किया। उसकी स्मृति आज भी लोगों के दिलो-दिमाग को झझकोर देती है। जहां तक चुनावों के विश्लेषण की बात है तो इसमें दूरदर्शन का जवाब नहीं। पहले चुनाव विश्लेषणों के बीच-बीच में हिन्दी फिल्में दिखायी जाती थी तााकि लोगों की रुचि इसमें बनी रहे।

वर्ष १९७२ में दूरदर्शन को तब राष्ट्रीय पहचान मिली जब उसका एक ट्रांसमीटर मुम्बई में भी लगाया गया। उसके बाद देश भर में ट्रांसमीटर लगाने का काम तेजी से आगे बढ़ा। पाकिस्तान की सीमा पर भी कई ट्रांसमीटर लगाए गए ताकि पाकिस्तानी प्रसारण का मुकाबला किया जा सके। तब तक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने टीवी की ताकत को पहचान लिया था। दूरदर्शन की तब तक कोई अलग पहचान नहीं थी और वह ऑल इंडिया रेडियो के अधीन ही आता था। इंदिरा गांधी ने एक सैटेलाइट कार्यक्रम तैयार करवाया। दूरदर्शन को ऑल इंडिया रेडियो से अलग कर स्वतंत्र पहचान दी गई। उन्होंने रंगीन टीवी के आयात को मंजूरी दी और उत्पादन को प्रोत्साहन देने का वादा किया। दूरदर्शन ने १९७५ में सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलिविजन एक्सपेरिमेंट कार्यक्रम के तहत नासा के उपग्रहों की मदद से देश के ६ राज्यों में शैक्षणिक कार्यक्रम का प्रसारण किया।

वर्ष १९८२ में देश ने टीवी पर पहली बार रंगीन चित्र देखा। एशियाई खेलों का इंदिरा गांधी ने सीधा प्रसारण करवाया। लोगों ने पहली बार दूरदर्शन पर एशियाई खेलों का आनंद उठाया। इसी दौरान दूसरे इनसेट श्रेणी के उपग्रह छोड़े गए और दूरदर्शन का प्रसारण स्वदेशी उपग्रहों से होने लगा। दूरदर्शन ने मेट्रो चैनल की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य बड़े शहरों में मनोरंजक कार्यक्रम परोसना था। इस चैनल ने शुरुआती सफलता भी अर्जित की लेकिन बाद में इसे बंद कर इसकी जगह समाचार चैनल शुरू किया गया।

आज दूरदर्शन कई चैनलों के साथ सबसे बड़ा टीवी नेटवर्क है। इस ५० साल की अवधि में इसने अर्श तक का सफर तय किया है। टेलिविजन का विस्तार कितनी तेजी से हुआ है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष १९७७ तक देश में केवल सात लाख द्घरों में ही टीवी सेट थे। आज १३ करोड़ से भी अधिक द्घरों में टेलिविजन देखा जा सकता है।

दूरदर्शन के देशभर में १४१२ ट्रांसमीटर हैं और ६६ स्टूडियो का नेटवर्क है। यह देश के करीब ९२ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को उपलब्ध है। एक सार्वजनिक प्रसारणकर्ता के रूप में यह विश्व में सबसे बड़े क्षेत्र को कवर करने वाला संस्थान है। इसका ध्येय वाक्य 'सत्यम शिवम सुंदरम' है। इसे ही ध्यान में रखते हुए दूरदर्शन देश की जनता के प्रति अपने फर्ज को निभाता आ रहा है। जनता के भरोसे से निश्चय ही स्वर्ण जयंती एक शताब्दी और फिर शताब्दियों तक की अनंत यात्रा बनेगी। चुनौतियों का सामना करते हुए दूरदर्शन तेजी से आगे बढ़ रहा है। बहुत कुछ हुआ है, बहुत कुछ होना बाकी है।

नसलवाद बनता नासूर

क्रिकेट हो या पढ़ाई नस्लवाद ऑस्ट्रेलिया के चरित्र का हिस्सा बन चुका है और पूरी दुनिया इस से रूबरू भी हो चुकी है। नस्लवाद का प्रतीक बनते जा रहे ऑस्ट्रेलिया में एक बार फिर

भारतीय नस्लवादी हिंसा के शिकार हुए हैं। संक्षिप्त विराम के बाद भारतीय समुदाय के तीन लोगों पर हमलवारों ने 'नृशंस प्रहार' किया है। लगभग ७० युवाओं के हमलावर समूह, जिसमें कई महिलाएं भी शामिल थीं, ने उपनगर एपिंग में २६ वर्षीय सुखदीप सिंह, उसके भाई गुरदीप सिंह और उनके चाचा मुख्त्यार सिंह पर हमला किया।

१६ सितंबर को ऑस्ट्रेलिया के एपिंग में तीन भारतीयों पर हुए हमले के बाद विक्टोरिया पुलिस ने हमले के संबंध में जानकारी जुटाने के लिए जांच शुरू कर दी। जबकि एक स्थानीय अखबार के कार्यकारी वरिष्ठ साजेंट ग्लेन पार्कर के हवाले से बताया गया है कि वास्तविक हमले में सिर्फ चार लोग ही शामिल थे और लगभग २० लोग वहां खड़े थे। इन हमलों के बाद विक्टोरिया के प्रधानमंत्री जान ब्रुंबी ने कहा कि वह पुलिस को नस्ली हमलों से निपटने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधन और शक्तियां देगें। पुलिस हमलावरों से सख्ती से निपटेगी।

उन्होंने आश्वासन दिया कि जो भी लोग नस्ली हमलों में शामिल होंगे, वे अब कानून का पूरा दबाव महसूस करेंगे। भारत की यात्रा पर आने वाले ब्रुंबी ने विक्टोरिया को अब भी अपराध के मामले में ऑस्ट्रेलिया का सबसे सुरक्षित स्थान बतलाया है। हाल ही में ऑस्टे्रलियाई विदेश मंत्री स्टीफन स्मिथ ने भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को द्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होने का आश्वासन दिया।

इस बीच ऑस्टे्रलिया में भारतीयों पर जारी हमलों के बीच ऑस्टे्रलियाई प्रधानमंत्री ने भारतीय छात्रों को जवाबी हमले न करने तथा कानून अपने हाथ में न लेने की चेतावनी दी। उनकी यह प्रतिक्रिया लेखक और कार्यकर्ता फारुख धोंडी द्वारा स्थानीय भारतीय समुदाय द्वारा कुछ जवाबी कार्रवाई करने के लिए कहे जाने के बाद आई है। भारतीयों पर हुए हमले के बाद धोंडी ने भारतीयों की एक बैठक में मामले को अपने हाथों में लेने के लिए कहा था। ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन स्टूडेंट्स ने कहा कि ऑस्टे्रलियाई सरकार द्वारा दिए गए आश्वासन खोखले साबित हुए हैं। फिसा अध्यक्ष ने कहा कि लोगों को अब भी पीटा जा रहा है और गाली भी दी जा रही है। लोगों को अब भी नस्ली टिप्पणियों का सामना करना पड़ रहा है।

विदेशी छात्रों के कारण ऑस्टे्रेलिया का शिक्षा उद्योग फलफूल रहा है। पिछले साल ऑस्ट्रेलिया सरकार ने भारत के छात्रों को लुभाने के लिए विज्ञापनों पर ३५ लाख डॉलर खर्च किये थे। साथ ही हर साल भारत के छात्रों से ऑस्ट्रेलिया सरकार को लगभग ८००० करोड़ रूपये हासिल होते हैं। आज की मंदी के भयावह दौर में वहां की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा विदेशी छात्रों की फीस से ही आता है। ऐसे में यह तय है कि अगर विदेशी छात्रों ने ऑस्ट्रेलिया से मुंह मोड़ा तो उसकी अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। हालांकि शिक्षण क्षेत्र पर बुरे असर की संभावना को देखते हुए ही ऑस्टे्रेलियाई सरकार हरकत में आयी थी। लेकिन बार-बार वह नस्लवाद से मुकर जाती है।
पर सवाल यह है कि नस्लीय हिंसा को रोक पाने में अब तक ऑस्ट्रेलिया सरकार नाकामयाब क्यों है और भारत इसे रोकने के लिए ऑस्ट्रेलिया पर कितना दबाव बना पाया है।

स्थानीय मीडिया ने माना है कि ब्रुंबी की आगामी भारत यात्रा चुनौतीपूर्ण हो सकती है। बुं्रबी ने यह भी स्वीकार किया ऐसी द्घटनाओं से उनकी भारत यात्रा और कठिन हो जाएगी। उन्होंने यह माना कि हाल ही में भारतीयों पर हमलों की द्घटनाएं ऑस्टे्रलिया और भारत के बीच खराब हुए संबंधों को सुधारने के उनके मिशन के लिए मुश्किल खड़ी करेंगी। अपनी सरकार द्वारा इस समस्या का समाधान करने की प्रतिबद्धता जताते हुए कहा कि कुछ द्घटनाओं ने भारत में ऑस्ट्रेलिया और हमारी छवि को खराब किया है। ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों के प्रति नस्लीय हिंसा रुकती नजर नहीं आ रही है ऐसे में बुं्रबी भारतीय नेताओं और अभिभावकों को कैसे आश्वासन देंगे कि विक्टोरिया उनके बच्चे के लिए सुरक्षित स्थान है।

पिछले वर्ष अक्टूबर से अब तक ऑस्टे्रलिया में भारतीय छात्रों और प्रवासी भारतीयों पर सैकडों हमले हो चुके हैं। इस सब के बावजूद ऑस्टे्रलिया सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। इससे जाहिर होता है कि ऑस्ट्रेलिया सरकार साफ तौर पर नस्लवाद को मानने को तैयार नहीं है। इन द्घटनाओं से ऑस्टे्रलिया में भारतीय छात्र भय के साये में जी रहे हैं। भारतीय छात्रों का ऑस्टे्रेलिया प्रशासन पर से भरोसा उठता जा रहा है। कई बार इस नस्लीय हिंसा के विरोध में हजारों की संख्या में छात्रों सड़कों पर प्रदर्शन के लिए उतर आये। भारत सरकार तथा छात्रों के विरोध के कारण ऑस्टे्रलिया सरकार ने भारतीय छात्रों की सुरक्षा के लिए टास्क फोर्स का गठन किया था। लेकिन इसका कोई खास प्रभाव नहीं हुआ।

नस्लवाद को जड़ से खत्म करने के लिए मार्टिन लूथरकिंग ने आवाज उठाई थी। उन्हीं को अपना आदर्श मानने वाले अश्वेत बराक ओबामा नस्लवादियों के द्घिनौने रूप से लड़ते हुए अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि नस्लवाद पतन की ओर अग्रसर है और जल्द ही यह पूरे विश्व से खत्म हो जाएगा। लेकिन फ्रांस में भारतीय विमान यात्रियों के साथ दुर्व्यवहार के बाद अब ऐसा लगने लगा है कि गर्त में समा रहे नस्लवाद को किसी तिनके का सहारा मिल गया है।