Wednesday, April 21, 2010

पढ़ाई का हक

आखिरकार राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना साकार होता नजर आया। राष्ट्रपिता ने ऐसे भारत की परिकल्पना की थी, जिसमें कोई अशिक्षित न हो। बीते एक अप्रैल को शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने वाला ऐतिहासिक कानून देश भर में लागू हो गया। इससे सीधे तौर पर लगभग एक करोड़ बच्चों को फायदा पहुंचेगा। 'सूचना का अधिकार' और 'महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी' के बाद 'शिक्षा का अधिकार कानून' लागू करना संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। यकीनन यह कानून शिक्षा की दिशा की उन्नति में एक मील का पत्थर साबित होगा। यह कानून कितना अहम है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आजाद भारत में पहली बार ऐसा हुआ जब किसी प्रधानमंत्री ने कानून को लेकर देश को संबोधित किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानून के लागू होने पर देश को बधाई देते हुए इसकी सफलता के लिए हरसंभव प्रयास करने का आह्‌वान किया।
इस कानून से स्कूल छोड़ चुके लगभग ९२ लाख बच्चे प्राथमिक शिक्षा पा सकेंगे। संविधान के ८६वें संशोधन के जरिये ०६ से १४ आयु वर्ग के सभी बच्चों के लिए 'शिक्षा' मौलिक अधिकार में शामिल हो गया। संविधान संशोधन के जरिये संविधान में २००२ में एक उपबंध जोड़ा गया। बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार एक्ट-२००९ की वजह से यह संभव हुआ। इसके साथ ही मूल अधिकारों की फेहरिस्त में शिक्षा का अधिकार भी शामिल हो गया। कानून हर बच्चे को शिक्षा पाने का अधिकार देता है। निजी शैक्षणिक संस्थानों को २५ फीसदी सीटें कमजोर तबके के बच्चों के लिए आरक्षित रखना होगा। वित्त आयोग ने इस कानून को लागू करने के लिए राज्यों को २५,००० करोड़ रुपया उपलब्ध कराया है। वहीं सरकार के मुताबिक इस कानून को लागू करने के लिए अगले पांच साल में १ ़७१ लाख करोड़ रुपये की जरूरत होगी।
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के साथ ही एक सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या यह कानून देशभर में ईमानदारी से लागू हो पायेगा? चुनौती शिक्षा की पहुंच, समता और गुणवत्ता की भी है। विधेयक में कहा गया है कि इसके कानून बनने की तारीख के तीन साल के भीतर ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि प्रत्येक बच्चे के आसपास स्कूल हो सके। वैसे इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हर बच्चा स्कूल जाने ही लगेगा? फीस के अलावा भी कई प्रकार के खर्च होते हैं। अधिकांश भूमिहीन, गरीब और वंचित के लिए यह संभव नहीं है कि वे इन खर्चों का बोझ उठा सकें। ऐसे हालात में वे अपने बच्चे को स्कूल से दूर ही रखना पसंद करते हैं।
उम्मीद की जा सकती है कि ढांचागत सुविधाओं के विस्तार और शिक्षकों की गुणवत्ता सुनिश्चित होने से सरकारी स्कूलों की बदहाली पर विराम लग सकेगा। सरकारी और निजी सभी स्कूलों के लिए नियामक व्यवस्था के शुरुआती सुझाव को सर्वसम्मति नहीं बनने पर छोड़ दिया गया। दोनों ही खेमों में इस प्रावधान को लेकर बेचैनी थी। निजी स्कूलों का मानना था कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में दखल होगा। मौजूदा विधेयक में इससे अलग राय व्यक्त की गई है। इसमें आठ साल तक की प्रारंभिक शिक्षा की अनिवार्यता का दायित्व सरकार के कंधों पर रखा गया है। इसका मतलब यह है कि यदि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी और उसे ही दंडित भी किया जाना चाहिए। सवाल यह है कि इसकी निगरानी कौन करेगा? इसे लेकर कई और सवाल उठने लगे हैं। क्या इतनी देर से इस विधेयक के पारित होने के बाद हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार हो पायेगा? क्या भारत के माथे पर लगा अशिक्षा का कलंक पूरी तरह से मिट सकेगा? इस कानून को लेकर विरोध के स्वर भी उठने शुरू हो गये हैं। निजी स्कूल इस साल तो इस कानून की गिरफ्त से बच गये, लेकिन अगले साल क्या वे इसे पूरी ईमानदारी से लागू करेंगे? पब्लिक स्कूलों ने अभी से इसमें अड़ंगे लगाने शुरू कर दिये हैं। कुछ निजी स्कूलों ने इस कानून को असंवैधानिक बताते हुए इसके विरोध में याचिका भी दायर कर दी है। वैसे सरकारी स्कूलों की हालत क्या है यह किसी से छिपी नहीं है। जब तक शिक्षा के बीच गहरी हुुई खायी को नहीं पाटा जाएगा तब तक यह कानून बेमानी सा ही रहेगा। सरकार अपनी कथनी और करनी से इस कानून को कितना सार्थक बना पाएगी, यह तो समय ही बताएगा।

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