Wednesday, April 21, 2010

सत्ता पर लाल हमला

केंद्रीय गृहमंत्री पी .चिदंबरम लालगढ़ में माओवादियों के खिलाफ पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का मनोबल बढ़ा रहे थे वहीं माओवादी सरकार के ग्रीन हंट को 'लाल' करने की योजना को अमलीजामा पहनाने की तैयारी को अंजाम देने में लगे थे। लालगढ़ में अभी गृहमंत्री का दौरा खत्म भी नहीं हो पाया था कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा के पास तालमेतला जंगलों में सीआरपीएफ के जवानों को द्घात लगाकर मार डाला। नक्सलियों ने इसे ऑपरेशन ग्रीन हंट की जवाबी कार्रवाई बताया। जाहिर सी बात है नक्सलियों में इस समय आपरेशन ग्रीन हंट की बौखलाहट साफ तौर से देखी जा सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल जो इस निर्मम हत्या के बाद उठ रहा है वह यह कि आखिरकार सूचना तंत्र से इतनी बड़ी चूक कैसे हो गयी? खुफिया विभाग को इस कांड की भनक तक क्यों नहीं लग पायी? सरकार की नीति कारगर क्यों नहीं हो पायी? द्घने जंगलों में हजारों की तादाद में नक्सलियों ने मार्च किया, इसका पता लगाने में सरकार क्यों सफल नहीं हो पाई? बिना किसी पुख्ता जानकारी और सूचना के जवानों को नक्सलियों के खिलाफ क्यों झोंक दिया गया?
गृहमंत्री इसे अपनी रणनीतिक चूक बता रहे हैं। दंतेवाड़ा में रिजर्व पुलिस बल के गश्ती दश्त पर हमला सीधे तौर पर राज-व्यवस्था को चुनौती है। छत्तीसगढ़ में द्घात लगाकर इससे पहले भी हमला होते रहे हैं। लेकिन जिस तरह का हमला पिछले ६ अप्रैल को हुआ वह माफी के लायक नहीं है। अब ये बात स्पष्ट हो चुकी है कि नक्सली देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं। सरकार को उनके खिलाफ सख्त मुहिम चलाने की आवश्यकता है। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ की लगभग पूरी बटालियन नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ गयी। जिस पैमाने पर गश्ती दल पर हमला हुआ उससे जो एक बात निकलकर समाने आती है वह यह है कि नक्सलियों ने पूरी रणनीति के तहत इस कार्रवाई को अंजाम दिया।पिछले कुछ अरसे से केंद्र सरकार ने नक्सल प्रभावित राज्यों में ऑपरेशन ग्रीन हंट चला रखा है। नक्सलियों को अपने अस्तित्व बचाने की चिंता होने लगी। नक्सलियों के पांव उखड़ने लगे थे। ऐसे में बौखलाहट का होना लाजिमी है। जैसे-जैसे सरकार ने अभियान तेज किया, माओवादियों के हमले भी बढ़ते गये। इस खूनी खेल के बीच सियासी खेल भी तेज हो गया है। केंद्र और राज्य सरकार के बीच सही तालमेल नहीं बन पाना और सियासी बयानबाजियों ने भी माओवादियों का मनोबल बढ़ाया। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की भेंट चढ़े जवानों की जान का जाना यह दिखाता है कि वहां चीजें सामान्य नहीं हैं। राज्य पुलिस बल और सीआरपीएफ में तालमेल की भारी कमी है। दोनों के बीच संवादहीनता की कमी है। किसी भी ऑपरेशन की सफलता उसके रणनीति पर निर्भर करती है। प्राप्त सूचनाओं के मुताबिक करीब हजार लोगों ने द्घात लगाकर जवानों पर हमला किया। निश्चित तौर पर इसके लिए कई दिनों से प्रयास किया जा रहा होगा। गांव के खुफिया तंत्र को इसकी जानकारी भी रही होगी। सरकारी खुफिया विभागों को इसकी भनक तक नहीं लग पायी। इससे नक्सलियों के खिलाफ खुफिया तंत्र के दावे की सच्चाई तार-तार हो गयी। सरकार दिल्ली में बैठकर रणनीति बनाती है लेकिन अमली जामा पहनाने में वह अब तक नाकाम रही है।आपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत जून २००९ से दक्षिण-पश्चिम बस्तर में दंतेवाड़ा तथा बीजापुर जिलों से की गई। धीरे-धीरे इसका विस्तार अन्य इलाकों में हुआ। एक तरफ नक्सली समस्या से निपटने की पुख्ता रणनीति तो दूसरी ओर उन कारकों को दूर करने की कोशिश , जो नक्सलियों के लिये क्षेत्र को उर्वरा बना रहे हैं। इलाके में तैनात की गई सेना ग्रामीणों का दिल जीतने की कोशिश कर रही है। ग्रामीणों में यह विश्वास पैदा करने की भी कोशिश चल रही है कि सेना उन्हें मार गिराने के लिए नहीं बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए लगाई गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसी नौबत आई क्यों? जनता नक्सलियों को अपना रक्षक क्यों मानने लगी। निश्चित रूप से इसके लिये सरकारी मशीनरी ही दोषी है।
सरकार योजनायें तो बनाती हैं लेकिन अफसरों एवं नेताओं तक ही सिमट कर रह जाती हैं। जाहिर सी बात है कि सरकारी एवं सामंती शोषण के बीच जब नक्सलियों की ओर से सहानुभूति दिखती है तो यहां के ग्रामीण उनके मुरीद हो जाते हैं। वे नक्सलियों की भूमिका और उद्देश्य पर गौर नहीं करते। इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखते कि वे जिसका सहयोग कर रहे हैं, वही सही है या गलत। उन्हें तो बस शोषण से बचने की एक किरण दिखाई पड़ती है और इस किरण के जरिये वह अंधेरी गलियारों में जिन्दगी की रोशनी ढूंढने लगते हैं।

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