Thursday, January 7, 2010

क्या तेलंगाना बन सकेगा

चन्द्रशेखर राव के आमरण अनशन से द्घबराकर केन्द्र सरकार ने पृथक तेलंगाना राज्य देने की द्घोषणा तो कर दी, लेकिन सरकार की यह द्घोषणा आग में द्घी डालने जैसी रही। जहां एक ओर बहुत से कांग्रेसी विधायक और सांसद सरकार के इस फैसले से असंतुष्ट दिखे वहीं दूसरी ओर विदर्भ, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड, गोरखालैंड, बोडोलैंड, मिथिलांचल सहित अन्य कई छोटे राज्यों के गठन की मांग को बल मिल गया है। वैसे आंध्र प्रदेश का विभाजन कर तेलंगाना का गठन भी आसान नहीं होगा। सबसे अहम सवाल हैदराबाद को लेकर उठ रहा है। राजधानी के प्रश्न पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। बंटवारे की लहर आंध्र प्रदेश तक ही समिति रह जाएगी ऐसा मुमकिन नहीं है। पूरे भारतवर्ष में दर्जन भर अलग राज्य बनाने के लिए आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। दरअसल इसमें कोई शक नहीं कि यदि राव को कुछ हो जाता तो इस बार १९५२ के श्रीरामुलु कांड से भी भयंकर चक्रवात आंध्र को द्घेर लेता।
वर्तमान में जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जा रहा है, उसमें आंध्र प्रदेश के २३ जिलों में से १० जिले आते हैं। मूल रूप से यह निजाम की हैदराबाद रियासत का हिस्सा है। पिछले दिनों जिस तरह आंध्र प्रदेश का राजनीतिक तापमान दिल्ली के गलियारों में महसूस किया गया उसकी पृष्ठभूमि काफी पुरानी है। दरअसल यह आंदोलन छह दशक पुराना है। चालीस के दशक में कामरेड वासुपुन्यया की अगुवाई में कम्युनिस्टों ने पृथक तेलंगाना की मुहिम की शुरुआत की थी। उस समय इसका उद्देश्य भूमिहीनों को भूपति बनाना था। बाद में इसकी कमान नक्सलवादियों के हाथों में आ गई। शुरूआत में तेलंगाना को लेकर छात्रों ने आंदोलन शुरू किया था लेकिन इसमें लोगों की भागीदारी ने इसे ऐतिहासिक बना दिया। आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग और लाठी चार्ज में साढ़े तीन सौ से अधिक छात्र मारे गए थे। एम चेन्ना रेड्डी ने 'जय तेलंगाना' का नारा दिया था।
दरअसल कांग्रेस ने कभी नहीं सोचा था कि तेलंगाना का मुद्दा कभी इतना गम्भीर हो जाएगा। कांग्रेस अगर अपने २००४ के वादे के मुताबिक अलग तेलंगाना राज्य का निर्माण करवा देती तो शेष प्रांतों में अलगाव की आग इतनी तेजी से नहीं भड़कती। आंध्र प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत ने इस मुद्दे की हवा निकाल दी थी। आंध्र में मजबूत रेड्डी की सरकार ने अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाकर 'तेलंगाना राष्ट्र समिति' को राजनीतिक हाशिए पर सरका दिया। लेकिन चंद्रशेखर राव के अनशन ने उन्हें महानायक बना दिया। आंध्र की वर्तमान स्थिति ने गृहमंत्री चिदंबरम की द्घोषणा को अधर में लटका दिया है। यदि कांग्रेस का नेतृत्व अपने विधायकों और सांसदों के साथ जोर जबर्दस्ती करता है तो कांग्रेस के सामने नयी चुनौतियां आ सकती हैं। हालांकि तेलंगाना को स्वीकार करने में गलत कुछ नहीं है लेकिन जिन परिस्थितियों में इसे स्वीकार किया गया उस पर जरूर जानकारों को आपत्ति है। जानकारों का कहना है कि ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सरकार ने द्घुटने टेक दिये हैं।
अलग तेलंगाना पर आंध्र प्रदेश में सड़क से लेकर सदन तक द्घमासान मचा है। आंध्र प्रदेश में जहां जनजीवन बेहाल रहा, वहीं विधायकों के इस्तीफों की बाढ़ आ गयी है। १२९ विधायकों ने इस्तीफे सौंप दिए हैं। इनमें ७० कांग्रेस, ३८ तदेपा और १५ प्रजा राज्यम पार्टी के विधायक हैं। इस बीच विधानसभा अध्यक्ष एन कुमार रेड्‌डी ने विधायकों के इस्तीफे से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर सभी पार्टियों से राय मांगी है कि सदन का कामकाज जारी रखा जाए या नहीं। इस बीच रेड्डी के बेटे जगनमोहन अपने पिता का अनुकरण करने की कोशिश कर रहे हैं और अपने समर्थकों से कह रहे हैं कि तेलंगाना व्यवहार्य नहीं है। इस सब के बीच सबसे बड़ा सवाल हैदराबाद को लेकर उठ रहा है। यह शहर किसके साथ जाएगा। सबकी आंखें हैदराबाद की समृद्धि पर टिकी हुई हैं। इसकी वजह से भी तेलंगाना के गठन में देरी हो सकती है। अगर यह शहर तेलंगाना को मिलता है, तो आंध्र प्रदेश पहचानने योग्य नहीं रह जाएगा। सवाल उठता है कि अचानक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चन्द्रशेखर राव की मांग के आगे मजबूर क्यों होना पड़ा।
राजनीतिक प्रेक्षकों की राय में राव को पीछे आंध्र के रेड्डी समुदाय की ताकत थी। वाईएस रेड्डी की मृत्यु के बाद रेड्डी को मुख्यमंत्री न बनाकर कांग्रेस ने रेड्डियों को नाराज कर दिया। इसलिए रेड्डियों ने कांग्रेस को इस तरह सबक सीखाया है।उधर तेलंगाना को पृथक राज्य बनाए जाने की द्घोषणा के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने भी छोटे राज्यों के गठन की वकालत की है। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से उत्तर प्रदेश को विभाजित कर बुंदेलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश (हरित प्रदेश) को अलग राज्य बनाने की मांग करते हुए कहा है कि बसपा छोटे राज्यों के पक्ष में है। तेलंगाना के बाद पूर्वोत्तर में भी कई राज्यों के गठन की मांग बुलंद हो गई है। केन्द्र में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी 'बोडोलैण्ड पीपुल्स फ्रंट' ने फिर से बोडोलैंड बनाने की मुखर मांग की है। ऑल असम दिमासा स्टूडेंट्स यूनियन और दिमासा पीपुल्स काउंसिल ने दिमासा जनजातियों को लेकर अलग दिमाराजी राज्य के गठन की मांग उठाई है। इस बीच गोरखालैंड के गठन की मांग भी जोर पकड़ती जा रही है।
वर्ष १९९२ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण के बाद वाकई देश में काफी तेजी से विकास हुआ। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी दिखा। इसे हम विगत दो दशकों में पैदा हुई आर्थिक विकास की असमानता के खिलाफ सब्र के बांध का टूटना मान सकते हैं। हालांकि भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की मांग नेहरू युग में उठी थी। दरअसल छोटे राज्यों का निर्माण क्षेत्रीय दलों के हित ज्यादा साधता है। यही वजह है कि क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए जनता को उकसा रहे हैं। इसलिए यह अति आवश्यक है कि छोटे राज्यों की उभरती मांगों पर एक दीर्द्घकालिक योजना के साथ कार्य किया जाए। इस विचार की भी हवा निकल चुकी है कि छोटे राज्य प्रशासन के लिहाज से बेहतर साबित होते हैं। झारखंड उदाहरण के रूप में सामने है।

2 comments:

  1. i think today congress does not have any option but to go ahead with this long pending telangana demand.

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