Thursday, September 17, 2009

चीन से चिंता

बतौर रक्षा मंत्री वाजपेयी शासन में जॉर्ज फर्नांडीस ने चीन को 'दुश्मन नम्बर वन' बताया तो उनके इस बयान की खूब आलोचना हुई। तब जॉर्ज को इस विवादास्पद बयान के चलते बैकफुट पर जाना पड़ा। लेकिन हाल-फिलहाल भारत विरोआँाी चीनी गतिविआिँायों से उनका वह बयान सच की परिआिँा में दाखिल होता दिख रहा है। चीनी सेना ने भारत के लद्दाख क्षेत्र में द्घुसकर चट्टानों पर लाल रंग से 'चीन' लिख दिया। न सिर्फ भारतीय सीमा में चीनी द्घुसपैठ बढ़ी है, बल्कि पड़ोसी देशों में दखल बढ़ाकर चीन ने भारत को चक्रव्यूह में द्घेरने की रणनीति पर जैसे अमल करना आरंभ कर दिया है। उसका यह कदम उसकी विस्तारवादी नीति का हिस्सा बताया जा रहा है। दीगर बात है कि वह एक तरफ भारत को द्घेर रहा है तो दूसरी ओर बाजार का विस्तार करते हुए भारत के साथ व्यापारिक समझौते भी कर रहा है- कुछ इस अंदाज में झुका शेर, छिपा ड्रैगन। यह ड्रैगन देश के लिए कितना खतरनाक है, इस सवाल से जूझने की बजाय शायद भारत ऐतिहासिक गलती दोहराने की राह पर है

द्घटना (एक)-चीन की एक वेबसाइट 'चाइना इंटरनेशनल फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' के हवाले से यह खबर आती है कि चीन भारत को तीस टुकड़ों में बांटना चाहता है। इस दीर्द्घकालिक योजना पर उसने अमल भी करना शुरू कर दिया है।

द्घटना (दो)-लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना ने भारतीय सीमा में द्घुसपैठ कर वहां की चट्टानों पर चीन लिख दिया।

द्घटना (तीन)-चीन ने भारत को एशियाड विकास बैंक (एडीबी) से मिलने वाली २ ़९ बिलियन डॉलर सहायता में अड़ंगा डालने की कोशिश की।

द्घटना (चार)- भारत में अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक विमान ने लैंड किया जो चीन जा रहा था।

ये कुछ हाल की चीनी गतिविधियां हैं जो भारत विरोधी अभियान की पटकथा लिख रही हैं। पटकथा भी ऐसी-वैसी नहीं, साजिशों, द्घातों और प्रतिद्घातों से भरी रोमांचपूर्ण पटकथा। राजनीति या शासन करने का एक सामान्य सा नियम होता है कि शत्रु की हरकत के बाद सतर्क हो उससे मुकाबले की तैयारी में जुट जाना चाहिए। लेकिन इसका क्या किया जाए कि भारत चीन की इन हाल की खतरनाक गतिविधियों के मद्देनजर उस कदर गंभीर नहीं है जिसकी उम्मीद की जाती है।

विदेश मंत्री एसएम कृष्णा मानते हैं 'भारत-चीन सीमा एकदम शांत है। चीन देश के लिए चिंता का कारण नहीं है।' इसे भारतीय राजनीति की सदाशयता कहा जाएगा जिससे कई बार विस्फोटक स्थितियों का जन्म होता है। कुछ इसी तरह की सदाशयता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भी दिखाई थी- 'चीनी-हिन्दी भाई-भाई' का नारा देकर। इसी झूठी मित्रता की छाती फाड़ते हुए चीनी सेना ने भारत पर १९६२ में हमला बोल दिया। नतीजा क्या हुआ यह सभी जानते हैं।

कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता नहीं है। लेकिन अक्सर वह थोड़ा बदले रूप में खुद को दोहराता है। भारत-चीन मामले में भी १९६२ का परिदृश्य बदले रूप में खुद को भले ही न दोहराए मगर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन के इरादे काफी खतरनाक हैं। अपनी पुरानी विस्तारवादी नीति को अमली जामा पहनाते हुए वह भारत को द्घेरने में जुटा है। प्रमाण के तौर पर भारत के पड़ोसी देशों में उसके बढ़ते हस्तक्षेप को भारत के खिलाफ बनते माहौल को हवा देने के रूप में देखा जा सकता है।

चीनी सैनिक हाल ही में लद्दाख की अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंद्घन करते हुए चकार क्षेत्र के 'माउंट ग्या' के निकट भारतीय इलाके के करीब १ ़५ किलोमीटर तक द्घुस आए। यह पहली बार या भूलवश नहीं हुआ। एक सिलसिला बन गया है जो आने वाले वक्त में भयावह शक्ल अख्तियार कर सकता है। भारत में चीनी द्घुसपैठ दिनों दिन तेज हुई है। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि पिछले साल चीनी द्घुसपैठ के करीब २४० मामले दर्ज किए गए। इस साल अगस्त में ही २० मामले सामने आ चुके हैं।

इतना सब कुछ हो रहा है मगर सरकार सो रही है। सो नहीं भी रही है तो इसकी अनदेखी कर संबंधों की बिसात बिछा रही है। इस बिसात पर भारत चीन को शह दे पाएगा, इसमें कई अगर-मगर हैं। जानकारों की राय में चीन की रणनीति का हिस्सा है कि वह जिस क्षेत्र पर कब्जा करना चाहता है, पहले उसे विवादास्पद बताता है। बाद में सैन्य द्घुसपैठ के सहारे माहौल रचता है। अंत में सैनिक कार्रवाई के जरिए वह उस पर कब्जा करने की कोशिश करता है। आज की तारीख में उसके २२ देशों से इसी तरह के विवाद चल रहे हैं।

पहले से ही चीन भारत के पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर में कब्जा जमाए हुए है। अजीब बात है कि वह हमारी ही जमीन को मुक्त करने की शर्तें भी रखता है। चीन पूर्वोत्तर में भारत को रियायत देने को तैयार है। बशर्ते भारत पश्चिमोत्तर इलाके में चीन को रियायत दे। कहने का आशय यह कि भारत अक्साई चीन से अपना दावा वापस लेकर इसे चीन का हिस्सा माने तो चीन भी अरुणाचल प्रदेश को भारत का अंग मानने लगेगा। चित और पट, दोनों स्थितियों में अपनी जीत हासिल करने को आतुर शातिर चालें चल
रहे चीन की यह चतुराई नहीं तो क्या है?

'चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' की वेबसाइट पर झान लू नामक लेखक ने लिखा है कि चीन अपने मित्र देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान की मदद से तथाकथित भारतीय महासंद्घ को तोड़ सकता है। झान लू तमिल और कश्मीरियों को आजाद कराने और उल्फा जैसे संगठनों का समर्थन करने की बात भी कहते हैं। वह अरुणाचल प्रदेश की ९० हजार वर्ग किलोमीटर जमीन को मुक्त कराने की सलाह भी देते हैं। चीनी सरकार को सलाह देने वाले थिंक टैंक की यह वेबसाइट अधिकृत है या नहीं, पर इस बात का प्रमाण तो है ही कि वहां के बुद्धिजीवी भारत के बारे में क्या सोचते हैं।

इस बीच भारतीय नौसेना प्रमुख सुरीश मेहता ने कहा है कि चीन लगातार अपनी सैन्य शक्ति में बढ़ोतरी कर रहा है। वो ऐसा सिर्फ और सिर्फ अपने पड़ोसियों पर दबाव बनाने की योजना के तहत कर रहा है। अगर वह इसमें सफल हो जाता है तो फिर अपने पड़ोसियों के साथ चल रहे सीमा विवाद को ज्यादा बलपूर्वक रखने में सक्षम हो जाएगा। पिछले कई सालों से चीन भारत को अस्थिर करने में लगा है। भारत को हजार द्घाव देकर उसे टुकड़ों में बांटना पाकिस्तान का द्घोषित एजेंडा है। लेकिन इसको अमलीजामा पहनाना चीन की अद्घोषित नीति है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बंदरगाहों में चीन ने अपने नौ सैन्य अड्डे स्थापित कर रखे हैं। नेपाल में चीन एक ऐसे वर्ग को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है जो द्घोर भारत विरोधी और चीनपरस्त है। थल और जल क्षेत्र में भारत के इर्द-गिर्द चीन अपना साम्राज्यवादी शिकंजा लगातार बढ़ाता जा रहा है।

चीनी अधिकारियों का कहना है कि भारत-चीन संबंध में चीन शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पांच मौलिक सिद्धातों पर कार्य करता है जिसमें यह भी शामिल है कि क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान किया जाए। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में चीन के रवैये में सीधे तौर पर सख्ती आई है। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय एक बार ऐसा लगने लगा था कि तिब्बत के मामले में चीन के नजरिए से भारत करीब आने लगा है। जिसके बदले चीन भी सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विवादित इलाकों पर भारत के दावे को मान लेगा। लेकिन अब चीन के नजरिए में कठोरता देखी जा रही है।

चीन के पूर्व राष्ट्रपति तंगश्यो फंग ने कहा था- चीन को अपने पड़ोसियों की गतिविधियों पर खूब नजर रखनी चाहिए। इस नीति पर चलते हुए चीन अपने पड़ोसी देश भारत को द्घेरने के लिए भारत के पड़ोसी देशों में अपनी दखल में लगातार बढ़ोतरी कर रहा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यामांर, श्रीलंका में उसकी उपस्थिति भारत के खिलाफ माहौल रच रही है। नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर विवाद में चीन और उसकी लाल सेना की अहम भूमिका मानी जा रही है। वहां माओवादी सरकार के गठन के बाद चीन को जैसे मांगी हुए मुराद मिल गयी। माओवादी नेता प्रचंड ने प्रधानमंत्री के रूप में भारत की बजाय पहले चीन की यात्रा करना बेहतर समझा। जबकि परंपरा रही है कि नेपाल में हर प्रधानमंत्री अपनी ताजपोशी के बाद सर्वप्रथम भारत की यात्रा करता रहा है।

श्रीलंका में भी लिट्टे विवाद सैन्य अभियान में चीन ने श्रीलंका सरकार की मदद कर भारत के खिलाफ अपनी जमीन तैयार की। उसने श्रीलंका को बड़े पैमाने पर सैन्य साधन भी उपलब्ध कराए हैं। चीन बांग्लादेश में छोटे हथियारों का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। अब वह उसे बड़े और अत्याधुनिक हथियार भी मुहैया कराना चाहता है। चीन ने बांग्लादेश में बिजली उत्पादन के लिए परमाणु संयंत्र लगाने में मदद की पेशकश भी की है। चीन म्यामांर को भी अपना अहम सहयोगी मानता है। दोनों देशों के दरम्यान पिछले मार्च में एक अनुबंध पर हस्ताक्षर भी हुए। म्यामांर की सैन्य सरकार अपने विरोधियों को कुचलने के लिए चीन से ही हथियार लेती है। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भी चीन ने म्यामांर के पक्ष में वोट किया है। पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में चीन की बढ़ती दिलचस्पी भी चिंताजनक है। कुल मिलाकर भारत के तमाम पड़ोसी मुल्कों को चीन अपनी गिरफ्त में लेकर इन देशों से भारत के खिलाफ मदद ले सकता है।

गौरतलब है कि भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक हाल ही में हो चुकी है। समिति के फैसले के अनुसार दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। आश्चर्य की बात यह है कि एक ओर दोनों देशों के व्यापारिक रिश्ते तेजी से मजबूत हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर भारत-चीन राजनीतिक संबंधों में खटास बढ़ती जा रही है। वर्ष २००७-०८ में भारत चीन के बीच दोतरफा व्यापार पचास अरब अमेरिकी डॉलर को पार कर गया। डब्लूटीओ में अपने किसानों को अतिरिक्त सब्सिडी देने के सवाल पर भी भारत-चीन के नजरिये में काफी समानता है।

इसके बिलकुल विपरीत कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चीन का रवैया खुल्लमखुल्ला भारत विरोधी है। विश्व स्तर पर शीत युद्ध भले ही समाप्त हो गया हो, परन्तु भारत-चीन के बीच शीत युद्ध कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। जब-जब संयुक्त राष्ट्र संद्घ में सुधार और संतुलन की बात होती है और भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का सवाल उठता है तब-तब चीन खुलकर इसका विरोध करता है। भारत की विदेश नीति और कूटनीति के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती है कि वह किस प्रकार इसका विरोध करता है।

भारत की तुलना में चीन का परमाणु हथियारों का भंडार और उनका प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम गुणात्मक रूप से बहुत बड़ा है। चीन का रक्षा बजट भारत के रक्षा बजट से साढ़े तीन सौ प्रतिशत अधिक है। अमेरिका के बाद चीन विश्व का दूसरा देश है जो हथियारों का सौदागर है। दुनिया में लगभग ५३ देश हैं, जिनको चीन लगातार हथियार बेच रहा है। भारत की उभरती शक्ति को रोकने के लिए चीन ने भारत की द्घेरेबंदी की नीति अपनाई है। पाकिस्तान को फौजी और परमाणु मदद, म्यांमार की जमीन पर चीनी अड्डे तथा म्यामांर को शक्तिशाली हथियार बेचने और दान में देने की नीति , नेपाल में चीनी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। भारत-अमेरिका परमाणु सौदे का चीन ने पुरजोर विरोध किया। चीन नहीं चाहता कि भारत-अमेरिका संबंधों में गुणात्मक सुधार हो।

चीनी मामलों के जानकार भारत के रक्षा रणनीतिकारों को पाकिस्तान के बजाय चीन पर ध्यान केन्द्रित करने की सलाह दे रहे हैं। आर्थिक मंदी से चीन का निर्यात काफी प्रभावित हुआ है। उसके कई हिस्सों में व्यापक असंतोष है। ऐसे में आंतरिक समस्याओं को दबाने और एशिया में अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए चीन को एक सैन्य विजय की जरूरत है और भारत उसके निशाने पर है। भले ही भारत चीन से अच्छे संबंध और शांतिपूर्ण बातचीत की दुहाई दे रहा हो, पर चीन के बारे में चिंता भी कम नहीं की जा रही है। देश के रणनीतिकार अब अपना ध्यान सीधे तौर पर चीन की ओर केन्द्रित कर रहे हैं जिसमें दीर्द्घकालीन सैनिक रणनीति भी शामिल है।

अब चीन को यह फैसला करना होगा कि भारत के साथ उसे मित्रता के संबंध चाहिए या शत्रुता के। मित्रता और आपसी सदभावना दोनों देशों के हित में है। दोनों देश गरीबी, बेरोजगारी ,भूख तथा बीमारी के खिलाफ लड़ रहे हैं। मित्रता से दोनों को लाभ होगा। संबंधों में खटास, कटुता और शत्रुता से दोनों को नुकसान होगा। चीन इतना शक्तिशाली नहीं है और भारत इतना कमजोर नहीं है कि चीन भारत के अस्तित्व को समाप्त कर दे। सवाल सीमा पर अतिक्रमण का नहीं, एशिया में शांति का है।

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