Friday, September 11, 2009

अमेरिका और पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों के बीच संबंध ठीक वैसा ही है जैसा शिकारी और कस्तूरी मृग के दरम्यान होता है। शिकारी कस्तूरी पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहता है। अमेरिका भी पश्चिम के अरब देशों के साथ मधुर संबंध रखना चाहता है पर सिर्फ तेल के लिए। ऐसे में स्वार्थ की बुनियाद पर खड़े किये जा रहे रिश्ते कितने दीर्द्घकालिक, मधुर और प्रगाढ़ होंगे इसका जवाब न तो अमेरिका के पास है और ना ही मुस्लिम राष्ट्रों के पास
अफगानिस्तान और इराक अब अमेरिका के लिए नासूर बन चुके हैं। आखिरकार युद्ध से तंग आकर अमेरिका के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एडमिरल माइक मुलेन ने अमेरिका की मुसलमानों के प्रति नीति पर फिर से विचार करने और उसमें लचीलापन लाने की वकालत की है। एडमिरल माइक के अनुसार अमेरिका मुस्लिम जगत में दोस्त बनाने और विश्वसनीयता कायम करने में इसलिए मुश्किलों का सामना कर रहा है क्योंकि उसने रिश्ते कायम करने के लिए उतने प्रयास नहीं किए जितने किये जाने चाहिए थे। अमेरिका ने कई बार अपने वादे भी नहीं निभाए। एडमिरल माइक ने खुलकर मुस्लिम जगत में अमेरिका और उसकी सेनाओं के प्रति विश्वास के अभाव, मुश्किलों और इसके कारणों पर भी चर्चा की है। मुलेन के मुताबिक पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में विश्वास कायम करने के लिये अमेरिका को बहुत लंबा सफर तय करना पड़ेगा। उनके मुताबिक मुस्लिम समुदाय बहुत ही गूढ़ दुनिया है, जिसे हम पूरी तरह से नहीं समझते और कई बार पूरी तरह से समझने की कोशिश भी नहीं करते।

अमेरिका पिछले एक दशक से अफगानिस्तान में तालिबान से दो-दो हाथ कर रहा है। वहां अद्घोषित यु़द्ध चल रहा है। अरबों डॉलर स्वाहा हो चुके हैं। लेकिन अमेरिका, अफगानिस्तान में भविष्य में कभी सफल हो पायेगा, ऐसी कोई संभावना न तो अमेरिका को ही नजर आती है और न ही विश्व समुदाय को। अमेरिका की परेशानी सिर्फ अफगानिस्तान तक ही सीमित नहीं है। कमोबेश यही हालात इराक में भी बने हुए हैं।

यकीनन अब धीरे-धीरे अमेरिका की समझ में ये बातें आने लगी हैं कि हर मसले का फैसला जंग से नहीं हो सकता। पिछले दो सौ साल के अमेरिकी इतिहास में अमेरिका को यद्धों के कई कड़वे अनुभव हुए हैं। वियतनाम युद्ध में मिली अमेरिकी पराजय किसी से छिपी नहीं है, जहां तीस हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इसके बावजूद अमेरिका को वहां से जंग का फैसला किये बिना ही उल्टे पांव वापिस लौटना पड़ा था। अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए अमेरिकी प्रशासन ने अपनी नीतियों में बदलाव के संकेत दिये हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने काहिरा में अपनी नीति की द्घोषणा करते हुए अमेरिका और मुस्लिम जगत के रिश्तों में नई शुरुआत का बिगुल फूंका। काहिरा विश्वविद्यायल में अपने अहम भाषण में ओबामा ने कहा था कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच तनाव दिखाई देता है। इस तनाव की जड़ें इतिहास में हैं और मौजूदा नीतिगत बहस से कहीं परे हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में अमेरिका और मुसलमानों के बीच नई शुरुआत होना जरूरी है जो आपसी हित और सम्मान पर आधारित हो। ओबामा ने अमेरिका और इस्लाम के बीच टकराव को गैर जरूरी माना। अपने काहिरा भाषण से ओबामा ने दुनिया भर के एक अरब से भी ज्यादा मुसलमानों के बीच अमेरिका की छवि को बेहतर बनाने की कोशिश करने का प्रयास किया। गौरतलब है कि जिन वजहों से अमेरिकी की छवि को धक्का लगा था उनमें अमेरिकी कैदखाने में मुसलमानों के साथ होने वाला बुरा बर्ताव भी शामिल था।

बुश प्रशासन की विरासत को आगे बढ़ाने वाले अमेरिका के नये अश्वेत राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अमेरिकी नीतियों में बदलाव लाने का प्रयास करने की पहल की है। शायद यही कारण है कि फिलिस्तीन, मिस्र, जॉर्डन, इराक, इंडोनेशिया और फिलीपींस के इस्लामवादी आंदोलन भी ओबामा के चुनाव से अति उत्साहित हुए। राष्ट्रपति बनने के बाद ओबामा के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस धारणा को खत्म करने की है कि अमेरिका इस्लाम का दुश्मन है। बेशक अमेरिका के निशाने पर न तो इस्लाम है और न ही मुसलमान। लेकिन फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका के काम ऐसे रहे, जिन्होंने यह धारणा पैदा की मानो अमेरिका इस्लाम के खिलाफ युद्धरत हो। ग्वांतानामो और अबू गरीब जेल की यातानाओं ने मुसलमानों में अमेरिका के प्रति नफरत पैदा की है। ओबामा जब तक इन कारणों को दूर नहीं करेंगे तब तक इस्लामी आतंकवादी इसका फायदा उठाते रहेंगे और अमेरिका की तस्वीर भी दुनिया के मुसलमानों की नजर में नहीं बदलेगी।

मध्यपूर्व में नई अमेरिकी नीति की दिशा में ओबामा का भाषण एक अच्छी शुरुआत माना जा सकता है। ओबामा के मुताबिक फिलिस्तीन को हिंसा छोड़नी होगी और यह स्वीकार करना होगा कि इजराइल को अस्तित्व में बने रहने का हक है। उन्होंने पश्चिमी तट पर यहूदी बस्तियों का निर्माण रोकने की भी बात कही। ईरान के संबंध में अपना विचार व्यक्त करते हुए ओबामा ने माना कि ईरान को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु शक्ति का अधिकार होना चाहिए, लेकिन उसे परमाणु अप्रसार संधि के प्रति वचनबद्ध होना पडेग़ा।

अफगानिस्तान के बारे में ओबामा ने साफ तौर पर माना कि यह अमेरिका के हित में नहीं है कि वहां अपने सैन्य ठिकाने बनाए रखे जायें। दरअसल, इराक में लड़ाई के चलते अमेरिका और मुस्लिम दुनिया के बीच बहुत मतभेद पैदा हुए हैं। लेकिन अब अमेरिकियों को अहसास हो गया है कि कूटनीति और बातचीत के जरिये ही इन मुद्दों को सुलझाया जा सकता है। इराक के लोगों को अभी भी यकीन नहीं है कि ओबामा प्रशासन शीद्घ्र देश से अमेरिकी सेनाओं को हटा लेगा। ओबामा की द्घोषणाओं से यह आश्वासन जरूर मिलता है कि मध्यपूर्व देशों के तेल पर अमेरिकी निर्भरता कम हो जाएगी और इराकी नेताओं से इस संबंध में बातचीत की जायेगी। इस बात ने सऊदी अरब के नेताओं और फारस की अन्य सरकारों को भ्रमित कर दिया है।

लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि आम मुसलमान ओबामा को कैसे देखते हैं। विश्व के ज्यादातर मुसलमानों का मानना है कि ओबामा के विचार तो उत्तम हैं, लेकिन क्या इतिहास को देखते हुये यह यकीन किया जा सकता है कि अमेरिका उन्हें अमल में लायेगा? काहिरा विश्वविद्यालय में उनके भाषण के अनेक विश्लेषण किए गये हैं। कई विश्लेषकों का यह मानना है कि वो इतिहास पुरुष बनने की कोशिश कर रहे हैं जो भूतकाल की गलतफहमियों को दूर करके एक नये भविष्य का सूत्रपात करना चाहते हैं। आज की ग्लोबल दुनिया में कोई सोच भी नहीं सकता कि मध्ययुग में चली ईसाईयत और इस्लाम के बीच खूनी लड़ाइयों के निशान आज भी बाकी हैं। शीतयुद्ध के खात्मे के बाद अमेरिका को चुनौती देने वाला सोवियत कुनबा बिखर गया। लेकिन एक नयी विचारधारा ने जन्म लिया और वह रही 'सभ्यताओं के संद्घर्ष' की विचारधारा।

आज फिलिस्तीनी अपनी बस्तियों में नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं और उनका यह मानना है कि उनके दुखों का कारण सिर्फ अमेरिका है, जो इजराइल को आंख बंद कर समर्थन करता है। फिलिस्तीनियों के साथ लगातार हो रहे अन्याय के कारण सभी मुस्लिम देशों में अमेरिका के प्रति गुस्सा है। इस बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान और इराक में खुला हस्तक्षेप करके मुसलमानों के दिलों में भड़क रही गुस्से की आग में द्घी डालने का काम किया है।
अमेरिका ने यह झूठा प्रचार करके कि सद्दाम हुसैन व्यापक जनसंहार के हथियार बना रहे हैं, इराक पर हजारों टन बम बरसाये। एक पुरानी और वैभवशाली सभ्यता को उजाड़ डाला। इराक से हथियार तो बरामद नहीं हुए, बल्कि इराकी नागरिकों में बदला लेने की भावना ने उन्हें चरमपंथी जरूर बना दिया। इसी तरह अफगानिस्तान में दिसंबर १९७९ में सोवियत संद्घ के खिलाफ अमेरिका ने पाकिस्तान के साथ मिलकर मुजाहिदीन और तालिबान को खड़ा किया।

आज उन्हीं तालिबान के खिलाफ अमेरिका अफगानिस्तान में अभियान चला रहा है। बुश प्रशासन के कथित आतंकवाद विरोधी वैश्विक युद्धों के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि और ज्यादा खराब हो गयी है। इन देशों में अमेरिका को आज शक की निगाहों से देखा जा रहा है। पश्चिम एशिया शांति वार्ता फिर पटरी पर लाने और ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए अमेरिका मुस्लिम देशों का समर्थन जुटाने की कवायद में लगा है। बुश प्रशासन के आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध के कारण मुस्लिम जगत में अमेरिका की छवि खराब हुई है। पश्चिम एशिया शांतिवार्ता को पटरी पर लाने और ईरान की महत्वाकांक्षा पर रोक लगाने के लिए ओबामा मुस्लिम जगत के साथ अपने रिश्तों को सुधारना चाहते हैं। विश्लेषकों की मानें तो अमेरिकी राष्ट्रपति इन्हीं कारणों से पश्चिम एशिया के मुसलमानों का दिल जीतना चाहते हैं क्योंकि इस इलाके में कई ऐसे विवाद हैं जिनसे निपटना ओबामा सरकार के लिए एक चुनौती है।

अमेरिकी विदेश संबंध परिषद के सीनियर फैलो एलिय ने कहा है कि ओबामा को अरब जनता का विश्वास जीतने की कोशिश करना चाहिए ताकि वहां की सरकारों के साथ मिलकर अमेरिका को काम करने में सहूलियत हो।
बहरहाल, अमेरिका भले ही मुस्लिम देशों और मुसलमानों के साथ रिश्ते सुधारने की बात करता हो लेकिन सच यह है ९/११ के बाद मुसलमानों के प्रति अमेरिकी नीति में काफी बदलाव आया है। ९/११ के बाद अमेरिका और मुसलमानों के बीच जो खाई बनी है उसे भविष्य में पाटा जा सकता है ऐसा कहना सच को मुंह चिढ़ाना होगा। क्योंकि न तो अमेरिका मुसलमानों पर भरोसा करने को तैयार है और न ही मुसलमान अमेरिका पर। भले ही ओबामा दुनिया भर के मुसलमानों को एक दर्जन से अधिक भाषाओं में रमजान का बधाई संदेश दें लेकिन असल खेल तो तेल का है जिसे हासिल करने में अमेरिका अब तक नाकामयाब रहा है और शायद मुस्लिम राष्ट्रों की बदनसीबी का कारण भी उनके यहां तेल का होना ही है।

1 comment: