Saturday, September 5, 2009

बारूद के ढेर पर लोकतंत्र



डर किसे कहते हैं और असुरक्षा का माहौल क्या होता है, यह इस चुनाव के वक्त अफगानिस्तान में विदेशी पत्रकारों को हुआ। ये चीज तब और गहरी हो गई जब राष्ट्रपति हामिद करजई के ठिकाने पर हमला हुआ। नौ सालों तक अपनी पूरी ताकत झोकने के बाद भी अमेरिका से वहां के लोग नाराज है। चुनाव बाद कोई चमत्कार हो जाएगा इसी उम्मीद की बेमानी हैअफगानिस्तान का नाम सुनते ही आतंकवाद और तालिबान की याद जाती है। आज अफगानिस्तान, अशांति और आतंकवाद का पर्याय माना जाता है। फिलहाल यहां नाटो की सेनाएं तैनात हैं और देश में हामिद करजई के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार है। लेकिन जानकारों के मुताबिक सरकार का रिमोट अमेरिका के हाथों में है। लगातार संद्घर्ष, अशिक्षा, द्घोर गरीबी और दुनिया में सबसे कम जीवन दर ने अफगानों को कठोर बना दिया है। अफगानिस्तान की सरजमीं और वहां के लोगों ने जितने युद्ध देखे उतने शायद ही किसी अन्य मुल्क या जाति ने देखे होंगे। बीते २० अगस्त को वहां हुए चुनाव कई मायने में निर्णायक है। एक तरफ जहां इन चुनावों से देश को लोकतांत्रिक सरकार मिलने का रास्ता साफ हुआ है, वहीं दूसरी ओर तालिबानियों के हौसले भी पस्त हुए है। दक्षिण एशिया में यह चुनाव शांति के नये युग की शुरुआत कर सकता है। ऐसे में आने वाले दिनों में अफगानिस्तान पर पूरे विश्व की नजरें होंगी।
हिंसा, भय और संगीन के साये में २० अगस्त को अफगानिस्तान में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव संपन्न हुआ। तालिबान विद्रोहियों ने मतदान के दौरान काबुल सहित देश के कई अन्य हिस्सों में रॉकेट से हमले किए। १९ अगस्त की रात और २० अगस्त की सुबह कई जगहों पर विस्फोट की खबरें आईं। काबुल में सुरक्षा के भारी इंतजाम किए गए थे। इस चुनाव में एक करोड़ ७० लाख मतदाताओं के ६९६९ मतदान केन्द्र बनाये गये थे। मतदाताओं की सुरक्षा के लिए अफगान और विदेशी सुरक्षाकर्मी तैनात थे। इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने सरकार के उस फैसले की कड़ी आलोचना की जिसमें मीडिया पर मतदान के दिन हिंसक द्घटनाओं की जानकारी देने पर प्रतिबंध लगाया गया था। दरअसल अफगानिस्तान का चुनाव अमेरिका और तालिबान के बीच नाक की लड़ाई बन गया था। एक तरफ जहां ओबामा प्रशासन अफगानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित कर अपनी वाहवाही बिटोरना चाह रहा था, वहीं तालिबान इसका विरोध कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराना चाह रहे थे। इस बीच राष्ट्रपति चुनाव से दो दिन पहले काबुल में अभेद्य माने जाने वाले राष्ट्रपति आवास और राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में १७ अगस्त को रातभर कई रॉकेट दागे गए। हालांकि दोनों ही स्थानों से किसी के द्घायल होने की सूचना नहीं है। देश के उत्तरी जोवजान प्रांत में एक बंदूकधारी ने प्रांतीय पार्षद उम्मीवार की गोली मारकर हत्या कर दी। राष्ट्रपति करजई ने इन हमलों पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, 'ऐसे हमले अफगानिस्तान के लोगों को वोट डालने से नहीं रोक पाएंगे।'
चुनाव के बाद राष्ट्रपति पद के विजेता को लेकर अटकलें तेज होती जा रही हैं। राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवार जहां अपनी रैलियों में जुट रही भीड़ आदि के आधार पर अपनी जीत सुनिश्चित मान रहे हैं, वहीं सर्वे एजेंसियां यह जानने के लिए ओपिनियन पोल का सहारा ले रही हैं। ओपिनियन पोल के अनुसार राष्ट्रपति हामिद करजई अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी अब्दुल्ला-अब्दुल्ला से आगे तो हैं फिर भी निर्णायक जनाधार किसी के पास नहीं है। अगर किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो ऐसी स्थिति में दोबारा चुनाव की नौबत आ सकती है। स्थानीय मीडिया के कुछ सर्वेक्षणों में निवर्तमान राष्ट्रपति हामिद करजई की बढ़त को दिखाया गया है। करजई की दावेदारी अपने गृह प्रांत और तालिबान के गढ़ कंधार में मजबूत मानी जा रही है। इन इलाकों में उनके भाई और कंधार के काउंसिल चीफ अहमद वाली करजई ने वहां उनकी ओर से चुनाव प्रचार किया। दूसरी ओर अब्दुल्ला को उनके ही गढ़ उत्तर क्षेत्र में एक सभा के दौरान अनियंत्रित भीड़ का सामना करना पड़ा।
इस बीच तालिबान ने चुनाव में बाधा डालने की धमकी के साथ अफगान नागरिकों से चुनाव के बहिष्कार की अपील की। तालिबान समर्थित एक वेबसाइट पर जारी बयान में तालिबानी लड़ाकों से चुनावों से पहले सड़कों पर बाधा खड़ी करने और मतदाताओं को मतदान केन्द्रों पर न जाने देने की बात कही। तालिबान के अनुसार अफगानिस्तान में चुनाव में मतदान करने का अर्थ होगा अमेरिकी गुलामी स्वीकार करना । और ऐसा करके लोग अमेरिका की मदद करेंगे। हालांकि अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी अधिकारियों को इस बात का यकीन है कि चुनाव बाद सरकार का बनना तय है। इससे तालिबानों की हार भी सुनिश्चित हो जाएगी। साथ ही साथ अफगानिस्तान में तालिबान की हैसियत भी खत्म हो जाएगी। उनके पास सीमित विकल्प रह जाएंगे-देश छोड़ो या फिर बदल जाओ!
अमेरिकी सहायता प्राप्त इंटरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए ओपिनियन पोल के अनुसार २० अगस्त की चुनावी जंग में करजई ४४ फीसदी मतों के साथ सबसे ऊपर होंगे जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी पूर्व विदेश मंत्री अब्दुल्ला -अब्दुल्ला २६ फीसदी मतों के साथ दूसरे स्थान पर। दस फीसदी मतों के साथ पूर्व योजना मंत्री रमजान बशरदोस्त इस सूची में तीसरे स्थान पर हैं। जबकि पूर्व वित्त मंत्री अशरफ धानी छह फीसदी मतों के साथ चौथे स्थान पर। ओपिनियन पोल से जुड़े अधिकारियों के अनुसार राजनीतिक भविष्य की नब्ज पकड़ने के लिए इंस्टीट्यूट ने १६ से २६ जुलाई के बीच लगभग २,४०० अफगानी नागरिकों से उनकी इच्छा जानना चाही।
पश्चिमी शहर हेरात में हामिद करजई ने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि अगर वह दोबारा सत्ता में आते हैं तो उनकी प्राथमिकता अलगाववादी गुटों खासकर तालिबान से बातचीत कर वापस उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा। जनता का यह भी मानना है कि तालिबान की धमकियों का उन पर खास असर नहीं पड़ा। चुनाव से जुड़े अधिकारियों ने यह बताया है कि करीब १० प्रतिशत पोलिंग बूथों को सुरक्षा की स्थिति के जायजे के बाद खत्म कर दिया गया था। मुख्य रूप से दक्षिणी और पूर्वी अफगानिस्तान में तालिबानियों का नियंत्रण है, जहां देश के अधिकांश पश्तून निवास करते हैं। हामिद करजई भी इसी कबीले से जुड़े हैं। चुनाव में ज्यादा से ज्यादा मतदान हो, इसके लिए स्थानीय नेता तालिबान के साथ युद्ध विराम की द्घोषणा कर चुके थे। इसकी जानकारी करजई के भाई अहमद वली करजई ने दी। हालांकि तालिबान नेताओं ने इस तरह के किसी समझौते को नकार दिया है। तालिबानी प्रवक्ता कारी यूसुफ अहमदी ने एपीबीपी से टेलिफोन पर हुई बातचीत में कहा है कि इस तरह की झूठी बात का कोई आधार नहीं है। ऐसा कोई भी शांति समझौता नहीं है।भारत की नजरों में अफगानिस्तान में होने वाले चुनाव काफी महत्व रखते हैं। भारत और अफगानिस्तान आतंकवाद का विरोध करते हैं और दोनों देश वहां चुनाव बाद लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। हाल ही में विदेशमंत्री एस ़ एम ़ कृष्णा ने भारत यात्रा पर आए अफगानिस्तान के विदेशमंत्री स्पायरा से मुलाकात कर आंतक को खत्म करने की बात कही। एक संयुक्त वक्तव्य जारी कर कहा कि आतंकवाद दक्षिण एशिया की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। दोनों देश दक्षिणी एशिया को एक शांतिपूर्ण एवं समृद्ध क्षेत्र बनाने के लिए आतंक विरोधी क्षेत्र में सहयोग मजबूत करेगे। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत विश्व शांति की जीत होगी। ऐसे में अफगानिस्तान मे मजबूत होता लोकतंत्र तालिबान की शक्ति पर करारा प्रहार होगा। अफगानिस्तान में लोकतंत्र की जीत तालिबान के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकती है।

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