Friday, December 11, 2009

क्या इरान -अमेरिका करीब आ सकेगे

अमेरिका वर्तमान में इराक और अफगानिस्तान में बुरी तरह फंसा हुआ है। वह यहां से किसी तरह नाक बचाकर निकलना चाहता है। ऐसे में उसे आज ईरान की जरूरत महसूस हो रही
है। यही वजह है कि एक वर्ष पहले तक ईरान के एटमी ठिकानों को तबाह करने की धमकी देने वाला अमेरिका आज ईरान से दोस्ती का राग अलाप रहा है। ईरान के प्रति अमेरिका की पुरानी दुश्मनी को देखते हुए ईरानी नेतृत्व उस पर विश्वास करने में हिचक रहा है
रान के मामले में अमेरिका क्या सोचता है, अमेरिकी नीतियां क्या हैं, यह बात किसी से छुपी नहीं है। ईरान के एटमी मंसूबों को रूस के समर्थन के मद्देनजर अमेरिका ने अपनी जो कूटनीति तय की, उसमें फ्रांस और जर्मनी का उकसावा भी शामिल है। इजराईल की परमाणु क्षमता ईरान के लिए अस्तित्व की समस्या है। ऐसे में वाशिंगटन में बैठे बूस रिडल जैसे नीति निर्माताओं के बयान ईरानियों को मददगार प्रतीत हो रहे हैं। रिडल का कहना है कि मध्य पूर्व में एटमी मसलों पर दोहरे मापदंड अपना कर शांति हासिल नहीं की जा सकती। इसलिए जेनेवा हो या वियना, सभी प्रयासों में इजराईल के परमाणु हथियारों को सामने लाने की कोशिश हो रही है। १२ जून को पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी और राष्ट्रपति चुनाव में पराजित मीर हुसैन मुसावी ने जो जोरदार प्रदर्शन किए थे, उसके बाद से ईरान में तेजी से हुए बदलावों को आंकना दिलचस्प है।
अविश्वास और टकराव के लंबे दौर के बाद अमेरिका अब ईरान के साथ दोस्ती चाहता है। बीते ४ नवंबर को अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ कर दिया कि अमेरिका लगातार शक, अविश्वास और टकराव के इस अतीत से आगे जाना चाहता है और परस्पर हितों और सम्मान के आधार पर इस्लामी गणराज्य ईरान के साथ रिश्ता बनाना चाहता है। ओबामा का यह बयान ईरान की मुख्य भाषा फारसी में भी जारी किया गया। ओबामा ने स्पष्ट किया कि अमेरिका ईरान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। उन्होंने ईरान में हुए आतंकी हमलों की भी भर्त्सना की। अपने बयान में शांतिपूर्ण परमाणु शक्ति के रूप में ईरान के अंतरराष्ट्रीय अधिकार का सम्मान करने की बात कही। विश्व समुदाय के अन्य देशों के साथ अपने विश्वास बहाली के प्रयासों के प्रति अपनी इच्छा प्रकट की। ओबामा ने, ईरान के अनुरोध पर ईरानी जनता की चिकित्सीय जरूरतों और अन्य मदद को पूरा करने के लिए अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के प्रस्ताव को स्वीकार करने की भी बात कही। उन्होंने माना कि हर राष्ट्र की तरह ईरान अपने दायित्वों को पूरा करता है तो वह उसे समृद्धि की राह पर प्रशस्त करेगा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सकारात्मक संबंध बनाएगा। अब आगे क्या करना है इसका निर्णय ईरान को करना है। ओबामा ने कहा कि फैसला ईरान सरकार को करना है कि वह अतीत के मुद्दे से ही जूझना चाहती है या अपने देश के लिए अवसर, समृद्धि तथा न्याय का एक व्यापक द्वार खोलना चाहती है।
अमेरिका के इस कदम पर तेहरान में व्यापक तौर पर प्रतिक्रिया हुई है। प्रमुख धार्मिक नेता आयतुल्लाह अहमद जन्नती ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के हालिया ईरान संबंधी बयान को उद्धरित करते हुए कहा कि दोनों पक्षों के मतभेद आधारभूत प्रकार के हैं और दोनों देशों के बीच एक बड़ा मुद्दा इजराईल और अमेरिका का रवैया है, जो क्षेत्र में तनाव, जनसंहार और अत्याचार जारी रखे हुए हैं। यदि अमेरिका इसी प्रकार इजराईल का समर्थन करता रहा तो तेहरान और वाशिंगटन के संबंध वर्तमान रूप में ही जारी रहेंगे। लेबनान, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान और इराक के मामलों में अमेरिकी हस्तक्षेप बंद किए जाने पर बल दिया और कहा कि जनमत की द्घृणा नारों से समाप्त नहीं हो सकती। अमेरिका से विश्व जनमत की द्घृणा का कारण वाशिंगटन के हाथों विश्ववासियों पर अत्याचार और उनके अधिकारों का हनन है।
साथ ही देश के राष्ट्रपति चुनावों को अस्वस्थ दर्शाने के लिए पश्चिमी संचार माध्यमों के जारी दुष्प्रचारों की ओर संकेत करते हुए कहा कि केवल ईरान का चुनाव ही शत्रुओं के निशाने पर नहीं बल्कि उनका उद्देश्य मतभेदों और तनाव को हवा देकर इस्लामी गणतंत्र की व्यवस्था और इस्लामी क्रान्ति का अंत करना था। किंतु जनता की चेतना, एकता, नैतिकता और सच्चाई तथा इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के मार्गदर्शनों से शत्रुओं के सारे षड्यंत्र निष्फल हो गये। अमेरिका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा का व्यवहार कूटनीतिक नाटक और शब्द-जाल के अतिरिक्त कुछ नहीं है और वे केवल शांतिप्रेम का दिखावा कर रहे हैं। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति के परिवर्तन के नारे तथा ईरानी नव वर्ष पर उनके बधाई संदेश की ओर संकेत करते हुए कहा कि इससे न केवल यह कि किसी प्रकार का कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है, बल्कि ईरानी जनता के नाम उनके इस बधाई संदेश में भी उन्होंने ईरानी राष्ट्र पर आतंकवाद के समथ्र्ान और परमाणु बम रखने का आरोप लगाया है।धार्मिक नेता खातेमी ने इस बात पर बल दिया कि अमेरिका ने पिछले ५० वषोर्ं से अब तक एक क्षण भी ईरान के विरुद्ध षड्यत्र करना नहीं छोड़ा है। यदि हमने वास्तविक परिवर्तन को देखा तो हमारी धार्मिक शिक्षाएं हमसे कहती हैं कि यदि दूसरा पक्ष वास्तव में संधि करना चाहता है तो तुम भी उसमें रुचि दिखाओ। किंतु यदि हमने यह देखा कि वे केवल मधुर संबंधों का दिखावा कर रहे हैं और उनका व्यवहार धूर्ततापूर्ण है तो अमेरिका के साम्राज्यवादी व्यवहार के संबंध में ईरानी जनता का ३० वर्षों से चला आ रहा साम्राज्य विरोधी रवैया जारी रहेगा। व्हाइट हाउस की विदेश नीतियों में परिवर्तन के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के वचन की ओर संकेत करते हुए कहा कि अभी तक अमेरिकी व्यवहार में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है। उन्होंने कहा कि यद्यपि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ वार्ता की इच्छा प्रकट की है किंतु उन्होंने भी ईरान के बारे में पूर्व बुश सरकार के निराधार दावों को दोहराया है। ईरान के वरिष्ठ राजनीतिज्ञ आयतुल्लाह हाशमी रफसंजानी ने अपनी प्र्रतिक्रिया में कहा अमेरिका ने लगभग पचास वर्षों से ईरान पर अत्याचार किये हैं किंतु यदि अब वह संधि चाहता है तो अपनी सद्भावना का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने अमेरिकी जनता से कोई मतभेद होने से इन्कार किया। यदि अमेरिकी सरकार हमारे साथ अंतरराष्ट्रीय नियमों के अनुसार व्यवहार करे तो उससे भी हमारी कोई शत्रुता नहीं रहेगी। पूर्व राष्ट्रपति हाशमी रफसंजानी ने कहा कि अमेरिका के आतंरिक मामलों से हमारा कोई संबंध नहीं है किंतु यदि अमेरिका ने अन्य राष्ट्रों पर अत्याचार जारी रखा तो हम चुप नहीं रहेंगे।
इस बीच ६ नवंबर को परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेंसी आईएईए ने एक बार फिर बल देकर कहा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूर्ण रूप से शांतिपूर्ण है। आईएईए के महानिदेशक मुहम्मद अलबरादेई ने न्यूयॅार्क में अमेरिका की विदेश नीति परिषद की बैठक में कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि ईरान परमाणु शस्त्र बनाने का प्रयास कर रहा है। उन्होंने इसी प्रकार आशा जताई कि उनका कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व ईरान को परमाणु ईंधन देने के बारे में समझौता हो जाएगा। ईरान के विरुद्ध कुछ सैनिक धमकियों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि यदि इजराईल ने ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर आक्रमण का प्रयास किया तो मध्य-पूर्व का क्षेत्र आग के गोले में परिवर्तित हो जाएगा। उन्होंने कहा कि वे बार-बार कह चुके हैं कि ईरान के परमाणु मामले का समाधान कूटनीतिक मागार्ंे से किया जाना चाहिए।
गौरतलब है कि ईरान के प्रस्तावित पैकेज और जेनेवा वार्ता की ओर संकेत करते हुए तेहरान ने विश्वास दिलाने का प्रयास किया है कि उसने सदैव आईएईए के नियमों और कानूनों के अनुसार परमाणु क्षमता प्राप्त करने का प्रयास किया है। ईरान विश्व को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह किसी भी देश पर आक्रमण का इरादा नहीं रखता किंतु इसके साथ ही किसी को भी ईरान के हितों पर आक्रमण करने की अनुमति भी नहीं देगा।
बीसवीं सदी के ईरान की सबसे महत्वपूर्व द्घटना थी ईरान की इस्लामिक क्रांति। शहरों में तेल के पैसों की समृद्धि और गांवों में गरीबी। सत्तर के दशक का सूखा और शाह द्वारा यूरोप के देशों के प्रतिनिधियों को दिए गए भोज जिसमें अकूत पैसा खर्च किया गया था, ने ईरान की गरीब जनता को शाह के खिलाफ भड़काया। इस्लाम में निहित समानता को अपना नारा बनाकर लोगों ने शाह के शासन का विरोध करना आरंभ किया। १९७९ में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए जिनमें हिंसक द्घटनाओं की संख्या बढ़ती गई। शाह के समर्थकों तथा विरोधियों में हिंसक झड़पें हुइर्ं और इसके फलस्वरूप १९७९ में पहलवी वंश का पतन हो गया और आयतुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बना। इस्लामिक दुनिया में अपनी स्थित मजबूत की। इसके बाद से ईरान में विदेशी प्रभुत्व लगभग समाप्त हो गया।
दरअसल, अमेरिका की सोच के पीछे पश्चिम एशिया की बदलती हुई परिस्थिति मुख्य रूप से उत्तरदायी है। खाड़ी युद्ध के बाद से लगातार ईरान अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा रहा। और वह इसमें कामयाब भी रहा। अमेरिका ने ईरान पर दबाव बनाने के लिए इराक और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया। लेकिन अमेरिका खुद अपनी ही चाल में फंसता गया। इराक और अफगान युद्ध के बाद अमेरिकियों को जो शमिर्ंदगी उठानी पड़ी वह किसी से छिपी नहीं है। इराक में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद वहां की सत्ता शियाओं के हाथ में आ गयी। ईरान भी एक शिया बहुल देश है।
ऐसे में इराक और ईरान की नजदीकियां बढ़ना स्वाभाविक है। शियाओं के देश इराक का सऊदी तेल भंडार क्षेत्र दमन के करीब आना, सऊदी अरब के लिए चिंता का विषय है। स्थितियां थोड़ी बदलीं तो बहरीन, लेबनान में शियाओं की बहुलता, कुवैत में शिया जनसंख्या आदि कारण भी तेहरान का हौसला बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं। वहीं ईरान के संबंध सीरिया के साथ काफी अच्छे हैं। २००३ में अमेरिका द्वारा सद्दाम हुसैन को बेदखल किए जाने के बाद से अमेरिका खुद अपनी ही चाल में उलझ गया। अब ऐसे में अगर उसे पश्चिम एशिया में बने रहना है तो ईरान से दोस्ती तो करनी ही पड़ेगी।

No comments:

Post a Comment