Saturday, September 26, 2009

सरहद पर उठती लपटे

भारत के पड़ोसी देशों में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। सीमाओं पर खतरों की लपटें हैं। चीन से लेकर नेपाल तक का रुख भारत के प्रति बदला हुआ है। पाकिस्तान तो भारत का द्घोषित रूप से शत्रु रहा है

ठीक ही कहा जाता है कि आप जीवन में कुछ भी चुन सकते हैं, पड़ोसी नहीं। पड़ोसियों के साथ जीना आपको सीखना पड़ता है। क्योंकि सहयोग भी उन्हीं से मिलता है और सबसे ज्यादा खतरा भी उन्हीं से होता है। भारत के तमाम पड़ोसी देशों में या तो अस्थिरता है या भारत विरोधी माहौल है। चीन की द्घुसपैठ लगातार जारी है और वो इन दिनों मीडिया के सुर्खियों में भी है। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। जिसका अकसद भारत को अस्थिर करना है।

हाल ही में पाक के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी स्वीकार किया है कि अमेरिका से आतंकवाद से लड़ने की खातिर मिले फंड से उन्होंने सेना के लिए हथियार खरीदे। जाहिर है कि उन हथियारों का इस्तेमाल भारत से लड़ने में ही होता है। नेपाल में माओवाद के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत के साथ उसका पुराना रिश्ता चरमराया है। श्रीलंका की मौजूदा सरकार का रुख भारत के लिए संतोषजनक नहीं है।

कुल मिलाकर पड़ोसी देशों में कुछ ऐसा माहौल महज एक इत्तेफाक नहीं है। हमारा पड़ोसी देश चीन बार-बार देश की सीमा का अतिक्रमण कर रहा है। भारत-चीन सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बनी समिति की बैठक में फैसला किया गया था कि दोनों देशों को यथास्थिति बनाए रखनी है तथा सीमा का उल्लंद्घन नहीं करना है। लेकिन हकीकत यह है कि चीन तनाव पैदा करने में जुटा है। अमेरिका के साथ हमारी निकटता से चीन परेशान है। दक्षिण एशिया में भारत की मजबूत होती आर्थिक हैसियत भी उसे नहीं सुहा रही है। ऐसे में चीन थोड़े दिनों के अंतराल पर सीमा विवाद के मसले को हवा देने लगता है। न सिर्फ अरुणाचल प्रदेश के मसले पर उन्होंने एक बार फिर हमारे खिलाफ विषवमन किया है, बल्कि लद्दाख क्षेत्र में भी अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं।

मुंबई की २६/११ की द्घटना में पाकिस्तान बुरी तरह द्घिरा हुआ है। पाकिस्तान अब विश्व जनमत को जोर-शोर से यह विश्वास दिलाने में लगा है कि वह आतंकवाद के खिलाफ प्रभावी कार्रवाई कर रहा है। और इसलिए भारत अब उससे बातचीत के लिए तैयार हो गया है। जबकि वास्तविकता इससे परे है। भारत मुंबई हमले के बाद मारे गए आतंकवादियों के डीएनए सैंपल और अन्य जानकारियां पाकिस्तान को उपलब्ध करा चुका है। इसके बावजूद पाकिस्तान ने अभी तक इन आतंकवादियों की पहचान और पृष्ठभूमि की जांच नहीं की है।

साफ है पाकिस्तान इस मामले में गंभीर नहीं है। इस बीच एक ब्रिटिश अखबार ने खुलासा किया है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बहावलपुर कस्बे के बाहर आतंकी संगठन का बड़ा प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। कैंप की दीवारों पर भारत विरोधी नारे और लाल किले का नक्शा भी मौजूद है। भारत को अब अपनी रणनीति की व्यापक समीक्षा करनी चाहिए और कड़े तेवर अपनाकर पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए कि वह आतंकवादी समूहों के खिलाफ कार्रवाई करे। यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि अगर वह ऐसा नहीं करता तो उसके साथ वार्ता संभव नहीं है।

साथ ही भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने इस तथ्य को उजागर करना चाहिए कि पाकिस्तान के भारत विरोधी तत्व पश्चिमी सीमा पर अमेरिकी सैनिकों और अफगान सरकार के साथ हो रही लड़ाई में शामिल हैं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान पर कूटनीतिक के साथ ही आर्थिक दबाव बढ़ाना चाहिए ताकि वह आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के उधर मजबूर हो जाए।

बांग्लादेश में जब तक खालिदा जिया की सरकार रही, इस पड़ोसी देश से भारत के रिश्ते दोस्ताना तो क्या सामान्य भी नहीं रह पाए। लेकिन शेख हसीना के आते ही बर्फ पिद्घलने लगी। दोनों देशों के आपसी संबंधों में एक बड़ा पेंच आतंकवाद का रहा है। शेख हसीना ने भारत को विश्वास दिलाया है कि उनका देश आतंकी गतिविधियों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। मगर इस मामले में पाकिस्तान और बांग्लादेश की कहनी और करनी में अंतर है। भारत के उत्तर-पूर्व में आतंक का पर्याय बने उल्फा, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड, कामनापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन, त्रिपुरा टाइगर फोर्स जैसे संगठनों के लोग वारदातों को अंजाम देकर बांग्लादेश की सीमा में भाग जाते रहे हैं।

बांग्लादेश सरकार इनके खिलाफ मुहिम चलाने में भारत के साथ सहयोग करने को तैयार है। प्रत्यर्पण संधि के लिए बांग्लादेश के राजी होने के संकेत हैं। भारत और बांग्लादेश के बीच दोनों ओर बहने वाली नदियों के पानी के बटवारे और तीन बीद्घा जैसे मामलों में सीमा का विवाद भी रहा है। जहां तक नदी जल विवाद का संबंध है, दोनों देशों के बीच अरसे से यह एक नाजुक मसला रहा है। जरूरत इस बात की है कि आगे की वार्ताओं में अनावश्यक पेचीदगियों से बचा जाए।

नेपाल में गैर माओवादी लोकतांत्रिक सरकार का स्थायित्व भारत के लिए रणनीतिक आवश्यकता होनी चाहिए। दुर्भाग्य से भारत के राजनीतिक दल अपनी आंतरिक स्थितियों के प्रति इतने अधिक केन्द्रित रहे हैं कि नेपाल में अपने मित्रों की सहायता के लिए ध्यान देने का उन्होंने समय ही नहीं निकला। नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड ने वहां की हर स्थिति का दोषारोपण भारत पर करना शुरू किया। नेपाल, पाकिस्तान और चीन ही नहीं बल्कि बांगलादेश भी जेहादियों भी अड्डा बनता जा रहा है। भारत में पाकिस्तानी षड्यंत्र से नकली करेंसी भी नेपाल मार्ग से ही भारत भेजी जाती है।

नेपाल में चीन के समर्थन से माओवादी लगातार भारत-विरोधी भावनाएं फैला रहे हैं। अतः इन परिस्थितियों में नेपाल की वर्तमान सरकार को स्थायित्व देते हुए माओवादियों को भविष्य में सर न उठाने देने की कोशिश करनी चाहिए। भारत विरोध का ही दूसरा पैतरा है, पशुपति नाथ मंदिर के पुजारियों का अपमान। उनका एक मात्र दोष यही है कि वे भारतीय हैं। माओवादी चीन की शह पर सैकड़ों वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को तोड़ना चाहते हैं। चीनी सरकार नेपाल फौज में भी द्घुसपैठ के रास्ते तलाश रही है।

नेपाल में जो हो रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा बन सकता है। अगर भारत अपने इस दायित्व से चूका तो आने वाला समय अस्थिर और अराजक हो सकता है। नेपाल का दोष भारत पर ही मढ़ा जाएगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा नेपाल को स्पष्ट करना होगा कि अगर उसने 'चाइना कार्ड' खेलने की कोशिश की तो भारत सबक सिखाने से नहीं चूकेगा।

श्रीलंका में भारत की भूमिका हमेशा से ही अहम मानी जाती रही है। गौरतलब है कि यहां के अल्पसंख्यक समुदाय तमिल को लेकर भारत सरकार हमेशा चिंतित रही है। भारत श्रीलंका के साथ मधुर संबंध चाहता है। लेकिन जानकारों का ऐसा मानना है कि प्रभाकरण के खिलाफ चलाये गये अभियान में चीन और पाकिस्तान ने श्रीलंका की सैन्य और आर्थिक मदद की। यकीनन ये भारत के लिए शुभ नहीं माना जा सकता। पाकिस्तान और चीन की श्रीलंका से बढ़ती नजदीकी अरब सागर में भारत के लिए एक चुनौती साबित हो सकती है। ऐसे में भारत सरकार को श्रीलंका के साथ ठोस पहल करने की आवश्यकता है।

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