Friday, October 23, 2009

सुर को सम्मान

मन्ना डे ने हिन्दी फिल्म संगीत को अपने वैविध्यपूर्ण सुर से समृद्ध किया है। क्लासिकल, कव्वाली से लेकर कॉमेडी और रोमांटिक गानों में उनका कोई जोड़ नहीं है। इस वर्ष उन्हें फिल्म जगत के सबसे बड़े दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। मन्ना डे की गायकी दिल और रूह को छूने वाली होती है। वे अपने ढंग के ऐसे गायक हैं जिनकी नकल संभव नहीं
ऐ मेरे प्यारे वतन' 'ए भाई जरा देख के चलो', 'कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'लागा चुनरी में दाग' 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई' 'तू प्यार का सागर है' जैसे सदाबहार नगमें गा चुके ९० वर्षीय मशहूर गायक मन्ना डे को भारतीय सिनेमा में जीवन पर्यन्त शानदार योगदान के लिए वर्ष २००७ का दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिया जाएगा। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल उन्हें यह पुरस्कार २१ अक्टूबर को एक समारोह में प्रदान करेंगी।
पांच दशकों से अधिक की लंबी प्रतीक्षा के बाद ही सही उनकी गायकी को भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े सम्मान दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजने का फैसला लिया गया है। मोहम्मद रफी ने मन्ना डे के लिए कहा था कि लोग मेरे गाने सुनते हैं और मैं सिर्फ मन्ना डे के। ९० बसंत देखने के बाद भी दमखम वैसा ही कायम है। आज भी गाते हैं और रोज रियाज करते हैं। १८ दिसंबर १९५३ में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारसन से शादी की। मन्ना डे आज के हो- हल्ले वाले संगीत से दुखी हैं। आज गाने का स्वर देखकर मन खिन्न हो जाता है। आज के गाने को देखकर लगता है कि कोई भी गा सकता है।
मौत का उन्हें डर नहीं है। कहते हैं मरना तो पड़ेगा ही, किंतु अतृप्त होकर नहीं तृप्त होकर जाना चाहता हूं। इस जीवन से खुश हूं। जितना प्यार, सम्मान और यश मुझे मिला, उसे सपने में भी नहीं सोचा था। मन्ना डे का पूरा नाम प्रबोध चंद्र डे है। उनका जन्म एक मई १९१९ को बंगाल में हुआ। यहीं उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की। १९४२ में मुंबई का रुख किया और कृष्णा चंद्र डे और सचिन देव बर्मन के साथ काम करना शुरू किया। यहीं से उनके करियर की शुरुआत मानी जाती है।
मन्ना डे की खासियत यह रही कि उनके गाये गानों में हिन्दुस्तानी क्लासिकल संगीत हमेशा उपस्थित रहा। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की दीक्षा भी ली। मन्ना डे ने १९४० में फिल्म 'राम राज्य' में अभिनय भी किया और गाना भी गाया। इसके बाद फिल्म 'तमन्ना' से उन्होंने पार्श्वगायन में पूरी तरह से कदम रख दिया। इस गाने में कृष्ण चंद्र डे का संगीत था और यह गाना उस जमाने के हिट गानों में शुमार किया गया। मन्ना डे ने लगभग ३५०० गानों को अपनी आवाज से सजाया। उन्होंने कई गाने किशोर कुमार, मोहम्मद रफी और मुकेश कुमार के साथ भी गाए। वे हिन्दी और बंगाली फिल्मों के महान गायकों में से एक हैं। इससे पहले १९७१ में मन्ना डे को पद्म श्री और वर्ष २००५ में पद्म विभूषण से अलंकृत किया जा चुका है।
पचास के दशक तक मन्ना डे एक मंझे हुए पार्श्व गायक के तौर पर स्थापित हो चुके थे। उन्होंने 'आवारा', 'दो बीद्घा जमीन' 'हमदर्द' 'परिणीता' 'चित्रांगदा' 'बूट पालिश' और 'श्री ४२०' जैसी फिल्मों के लिए पार्श्व गायन किया। आमतौर पर राजकपूर की फिल्मों में मुकेश अपनी आवाज देते थे, लेकिन कुछ गीतों के लिए राजकपूर ने मन्ना डे की आवाज पर भरोसा दिखाया। 'श्री ४२०' का मुड़-मुड़ के न देख प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यू डरता है दिल 'मेरा नाम जोकर' का ए भाई जरा देख के चलो और 'बॉबी' फिल्म का 'ना मांगू सोना चांदी' ऐसे ही कुछ गीत रहे। मन्ना डे की आवाज हर दौर में श्रोताओं ने पंसद की। उन्होंने 'शोले' 'लावारिस' 'सत्यम शिवम सुंदरम' 'यादों की बारात' 'क्रांति' 'कर्ज' 'सौदागर' 'हिन्दुस्तान की कसम' 'बुड्ढा मिल गया' जैसी तमाम फिल्मों के गीतों को अपने सुरों से सजाया। उन्होंने देश के महान शास्त्रीय गायकों में शुमार भीमसेन जोशी के साथ गाकर अपनी सुर साधना का परिचय दिया।
गानों में प्रामाणिकता लाने के लिए मन्ना डे ने प्रयोग भी खूब किए। 'नदिया चले चले रे धारा' में अलाप के लिए कल्याणजी भाई ने बंगाल के लोक गायकों को बुलावा दिया। गोवा के मिजाज को समझते हुए मन्ना डे कुछ दिनों तक उस शैली को समझते रहे, जिसमें उन्हें 'ना मांगू सोना चांदी' जैसा गीत गाना था। 'इक चतुर नार' के लिए भी वह पूरे दक्षिण भारतीय मिजाज में थे। बंगाल के लोक संगीत में तो उनकी आवाज में और भी सोना बिखरा पड़ा है। शैलेंद्र ने 'तीसरी कसम' बनाई तो लोक गायकी की छटा बिखेरता 'चलत मुसाफिर मोह लिया रे' गीत मन्ना डे से गवाया और उन्होंने इसे सहजता और खूबसूरती से गाया भी।
फिल्मी कव्वालियों पर कोई भी चर्चा मन्ना डे के बिना अधूरी है। 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' 'ऐ मेरी जोहरा जबीं' 'ये इश्क इश्क' और बहुत सी कव्वालियां इसके सबूत हैं। एक तरफ शास्त्रीय संगीत में 'सुर ना सजे' जैसा संजीदा गीत, तो दूसरी और 'ए भाई जरा देख के चलो।' यह करिश्मा मन्ना डे ही कर सकते हैं। उनकी गायकी को गंभीर और महज शास्त्रीयता तक देखने वाले अगर उनके रोमांटिक गीतों की बानगी को समझ लें तो फिर उनसे भूल न होगी। लताजी के साथ उनके बेहद खूबसूरत युगल गीत हैं।
अक्सर कहा जाता है कि मन्ना डे की प्रतिभा का फिल्म जगत पूरा उपयोग नहीं कर पाया। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। फिल्म संगीत के स्वर्णिम दौर में मन्ना डे की अपनी खास जगह रही है। वह लीक पर नहीं चले। केसी डे और उस्ताद अब्दुल रहमान खान जैसे संगीत मर्मज्ञों का सान्निध्य जिसे मिला हो, उसे मन्ना डे बनना ही था। बेशक किसी गीत को फिल्म में लाने में कई पहलुओं का ध्यान रखना पड़ता है। इसलिए आवाज में तरुणाई पाने की तलाश में शायद रफी और मुकेश को ज्यादा अवसर मिल गए हों, पर इससे फिल्म संगीत में मन्ना डे का महत्व कम नहीं हो जाता है। उनके कुछ अविस्मरणीय गीत ऐसे भी हैं जिन्हें सुनकर लगता है कि अगर मन्ना दा नहीं होते, तो फिर संगीतकार उन गीतों की धुन शायद बदल देते।
फिल्म संगीत का वह स्वर्णिम दौर श्रोताओं को कई तरानों की याद दिलाता है जिसे हम आज तक नहीं भूल पाये हैं। यह गीत आज भी लोगों को रोमांचित करता है। 'चढ़ गयो पापी बछुआ' 'तुम गगन के चंद्रमा हो' 'नैन मिले चैन कहां' 'ये रात भीगी भीगी' 'प्यार हुआ इकरार हुआ' 'सुर न सजे' 'पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई' ऐसे ही कई तराने हैं। यह उनकी गायकी का विशाल गगन है कि उन्होंने शास्त्रीयता, कव्वाली, भजन या फिर बंगाल की सुंदर लोकधुनों पर तैयार गीतों को इस कदर गाया कि लोग झूमते रह गए।
मन्ना डे ने संभवतः सबसे ज्यादा थीम सांग गाए हैं। मसलन ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'सफर' में अत्यधिक करूणा है। यही उसका केन्द्रीय भाव भी है। कैंसर के मरीज राजेश खन्ना से शर्मिला टैगोर प्यार करती है। रोना-गाना चलता रहता है। अंत में नायक मर जाता है। इस फिल्म में कई मधुर गीत हैं जो काफी लोकप्रिय भी हुए। मगर इस फिल्म के थीम सांग के लिए ऋषिकेश ने 'मन्ना डे' की मदद ली। इस फिल्म का थीम सांग-'नदिया चले, चले रे धारा, चंदा चले, चले रे तारा ़ ़ ़तुझको चलना होगा' मन्ना डे ने ही गाया। इसी विषय पर एक और फिल्म थी 'आनंद'। उसमें भी नायक राजेश खन्ना थे और कैंसरग्रस्त भी। वह फिल्म भी ऋषिकेश दा की है। उसमें कई कर्णप्रिय गीत मुकेश के स्वर में हैं। लेकिन थीम सांग उन्होंने ही गया है। गीत है 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी तो हंसाए, कभी ये रूलाए।
मनोज कुमार की फिल्म 'उपकार' का गीत 'कस्मे वादे प्यार वफा सब बाते हैं, बातों का क्या।' को सूफियाना अंदाज में मन्ना डे ही दे सकते थे। इसी तरह महबूब खान की क्लासिक फिल्म 'मदर इंडिया' का गीत- 'चुनरिया कटती जाए रे, उमरिया द्घटती जाए रे' को उन्होंने अपनी विशिष्ट आवाज से दार्शनिक टच दिया है। आत्मा को मथती मन्ना डे की आवाज ने निराशा को वह सूफियाना अंदाज दिया है कि वह गीत सुनकर आज भी लोगों के बढ़ते कदम ठिठक जाते हैं। ग्रेट शो मैन राजकपूर की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत 'ए भाई जरा देख के चलो' को कौन भूल सकता है। इस गीत में जीवन-दर्शन है। संवाद शैली में यह गीत है। मन्ना डे की विलक्षण गायन-क्षमता बेमिसाल नमूना है। अरसा हुआ मन्ना डे ने मुंबई को हमेशा के लिए छोड़ दिया। अपने पुराने शहर कोलकाता में रहते हैं। शायद हमें या हिन्दी फिल्मों को मन्ना डे जैसे गायक की जरूरत नहीं रही, क्योंकि हम चलताऊ गाने सुनने के आदी हो गए हैं।

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